आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 159 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
भाभी माँ ! अयोध्या में अब उत्सव नही होते .......चारों ओर उदासी पसरी हुयी लगती है ...........लोग हँसते तो हैं ......पर दिखावा से ज्यादा और कुछ नही ।
शत्रुघ्न कुमार मुझे बता रहे थे ।
लक्ष्मण भैया जब लौटे अयोध्या में .....तब वह अचेत से थे .......उनके हाथों में रथ की लगाम कहाँ थी ..............।
हम लोग प्रतीक्षा में थे लक्ष्मण भैया के .......जैसे ही रथ देखा .....
दौड़ पड़े ..........पर लक्ष्मण भैया को होश कहाँ था ।
जैसे तैसे हम लोगों नें उन्हें उठाया .......वो यही पूछ रहे थे कि मैं कहाँ हूँ ....ये अयोध्या तो नही लग रही ......इतनी वीरान अयोध्या कब थी ?
भाभी माँ कहाँ हैं ? भरत भैया काँपते हुये पूछ रहे थे ।
"पाप हुआ है हम रघुवंशीयों से" ........लक्ष्मण इससे ज्यादा कुछ नही बोले .......हाँ हिलकियों से रोते हुये ये अवश्य कहा ......भाभी माँ गर्भवती हैं .........उनको अकेले छोड़कर आगया हूँ मैं .......क्या करता .......महाराज राजा राम की आज्ञा जो थी मुझे .......।
महाराज राजा राम ! व्यंग था ये लक्ष्मण भैया का ।
शत्रुघ्न कुमार कुछ देर चुप रहे ....................
फिर बोले - हम तीनों भाई गए अन्तःपुर में .....जहाँ श्रीराम थे ।
पर ये क्या ? वो तो मूर्छित पड़े थे.............सीते ! सीते ! हा वैदेही ! बस यही नाम उनके मुँह से निकल रहा था ........उन्हें होश कहाँ था ।
भाभी माँ ! हम तीनों भाइयों नें मिलकर उन्हें जल पिलाया .......उनके ऊपर जल का छींटा दिया .........तब जाकर उन्हें कुछ होश आया था ।
कहाँ छोड आये लक्ष्मण ! मेरी सीता को ?
ये भी बड़ी मुश्किल से बोल पा रहे थे श्रीराम ।
गंगा के उस पार ......आपकी आज्ञा जो थी मुझे .........कितनी निष्ठुर आज्ञा दी आपनें ........लक्ष्मण भैया को रोष था .........पर श्रीराम की ऐसी स्थिति देख वो ज्यादा कुछ नही बोले ।
क्या कहा सीता नें ? लक्ष्मण ! जब तुमनें मेरी सारी बातें बताईं तब क्या बोली सीता ?
भैया ! भाभी माँ नें कहा.......मेरे कारण अगर मेरे नाथ को कोई कष्ट होता है तो मैं ये जीवन भी प्रसन्नता पूर्वक त्याग दूंगी ।
लक्ष्मण भैया रो रहे थे ये कहते हुए ।
"मेरे प्राण नाथ को सम्भालना" जब मेरा रथ चलनें लगा ....तब भाभी माँ नें मुझे यही कहा था ।
और हाँ भैया ! ये भी कहा ...........कि मैं गर्भवती हूँ ........देखो मेरी ओर .........और देखो मेरे गर्भ को ..........कहीं ऐसा न हो कि कल अयोध्या नरेश श्रीराम इसपर भी मेरी परीक्षा लें ।
भाभी माँ ! बस इतना सुनते ही श्रीराम फिर गिर गए थे धरती पर ।
हा सीते ! हा सीते ! यही कहते रहे ।
भाभी माँ ! उसी समय अन्तःपुर में हनुमान आगये ............और आते ही पहला प्रश्न उनका यही था .........माँ कहाँ हैं ?
पर सब की स्थिति जब देखी ..........तब वो कुछ बोल न सके ।
और जब मुझ से उन्होंने धीरे से पूछा .........माँ वैदेही कहाँ हैं ?
मैने जब उन्हें बताया ........कि .............
तब पवनपुत्र की जो दशा थी ........वो विचित्र हो गयी थी ।
दाँत कटकटानेँ लगे थे ......क्रोध के कारण वो अपने ही वक्ष पर मुष्टिक प्रहार करनें लगे थे ............उनकी आँखें मानों अंगार उगल रही थीं ।
मैं हूँ अपराधी .....तुम्हारी माँ को मैने त्यागा है ............मुझे दण्ड दो पवनपुत्र ! मुझे मारो ! आर्य श्रीराम रोते हुये हनुमान से यही कह रहे थे ...............।
पर आपनें ऐसा क्यों किया ? क्यों नाथ ! क्यों ?
हनुमान वहाँ से चले गए ...........क्रोध में अपनें पैर पटकते हुए ।
गुरु वशिष्ठ जी आये थे ..............उन्होंने भी जब सुना ...........तब वो जड़वत् खड़े रह गए ...........स्तब्ध ।
भाभी माँ ! गुरुवशिष्ठ जी भी अब अयोध्या से उदासीन हो गए हैं ।
आते हैं ......जब उन्हें बुलाया जाता है .......वो बोलते हैं ....जब उनसे कुछ पूछा जाता है ..............।
शत्रुघ्न कुमार ! मेरी बहनें ? उर्मिला , श्रुतकीर्ति माण्डवी.......मैने उर्मिला से कहा था चल मेरे साथ .......मैं भी पागल थी ......मुझे क्या पता कि मुझे तो श्रीराम त्याग चुके थे ......मैने अपनें आँसु पोंछे ।
भाभी माँ ! क्या बताऊँ ! तीनों बहुओं का जीवन अब एक तपश्विनी की तरह बीत रहा है ...........वो तीनों रोती रहती हैं .........बस आपको याद करके ......कैसे रहती होगी हमारी जीजी ........वन में ............
इससे ज्यादा शत्रुघ्न कुमार से बोला नही गया ...............
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
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