वैदेही की आत्मकथा - भाग 160

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 160 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

  सुबह उठकर गंगा स्नान करके .........अपनें  सैनिकों के सहित  मथुरा के लिये प्रस्थान कर गए थे शत्रुघ्न कुमार ......।

पर जाते जाते  मेरे पास आये और  वन्दन करते हुये बोले.......आप इतनी कृपा करना भाभी माँ !   कि  हम अयोध्या वासियों को श्राप न देना  ।

और मैं  लवणासुर का वध करके  आपके चरणों के दर्शन करनें अवश्य आऊंगा..........मेरे भी  हृदय से आशीर्वाद फूट पड़ा ........

विजयी भवः

शत्रुघ्न कुमार चले गए  थे  ।

समय बीतता गया...........और   वो समय भी आया  .....

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मैं देख रही थी ...........उस दिन  मैं  गंगा के किनारे ही बैठी रही  ।

पक्षी सब मेरे पास आजाते थे .......और मुझ से बहुत प्रेम करते सब ।

हिरणों का  झुण्ड तो मेरे  समीप ही रहता..........तोता कोयल ........।

मुझे चित्रकूट की याद आती....वहाँ भी कितनें  पक्षी , पशु  हमें प्रेम करते थे ।........पर यहाँ मेरे  श्रीराम नही हैं मेरे साथ ।

ओह !   असह्य पीड़ा का अनुभव करनें लगी थी मैं   एकाएक ।

जैसे तैसे अपनी कुटिया में आयी .....और  गिर पड़ी  अपनें आसन में   ।

वनदेवी !       दो तपश्विनी आईँ ........मुझे जलपान करानें .......पर मेरी स्थिति देखकर वह भी दौड़ीं.........वनदेवी को प्रसव की पीड़ा हो रही है........उन्होंने सबको सूचना दी.......।

सूतिकागार  उसी कुटिया को बना दिया.....................

बधाई हो .........बधाई हो............तपश्विनी बोल उठीं ............

रोनें की आवाज आरही थी  नवजात शिशु की .................

वनदेवी !  आपको दो पुत्र रत्न हुए हैं...........मुझे बताया ।

मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले...........हाँ  एक नेत्र से  आनन्द के .....और दूसरे नेत्र से  दुःख के ....।

इनके पिता ?            एक तापसी नें   पूछना चाहा ......पर दूसरी नें तुरन्त मना कर दिया .........महर्षि नें "नही" कहा है .......कि कुछ भी पूछकर इन्हें परेशान न किया जाए ।

तभी  चार तपश्विनी उधर से आईँ........शंखनाद किया  उन्होंने ।

मेरे नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े ..........पर मैं मुस्कुरा रही थी  ।

चक्रवर्ती सम्राट  अयोध्या नरेश  राजा राम के पुत्रों का जन्म उत्सव  मात्र चार शंख बजाके ?      महर्षि को सूचना दी  ?     एक तापसी नें दूसरी से पूछा ......हाँ दे दी .........वो बहुत प्रसन्न हैं ........वो  नाच उठे थे  ।

कह रहे थे  मेरी पुत्री के  पुत्र हुआ है .........उत्सव मनाओ ......मैं भी तैयारी में लगता हूँ .............वो  इन नवजात शिशु  के ग्रह स्थिति पर गम्भीरता से विचार कर रहे हैं ।........मुझे  लाकर  एक तापसी ने  उष्ण जल दिया .....।

मैने देखा .........मेरे दो बालक ..........मुझे ही देख रहे थे  टुकुर टुकुर  ।

मेरे श्रीराम की तरह ही आँखें हैं  इनकी ..............मैने मन ही मन विचार किया ...........मैं अपनें शिशुओं  को देखती रही  ।

मेरी कुटिया  में  औषधियों की धूनी दी जारही थी .............महर्षि नें शस्त्र भेज दिए थे .......मेरी कुटिया में  लटकानें के लिए  ।

ये तपश्विनी ही थीं  धाय, स्वजन , सेविकाएँ या इन्हें  सहायिका भी कह लो ........सब यहीं थीं .......बड़े उत्साह से मेरी सेवा में लगी  थीं ।

बाहर  ऋषि बालक ....नाच रहे थे....शंख नाद  तो रुकही नही  रहा था ।

मुझे बता रही थीं   तापसी  .......महर्षि  स्वयं  उत्सव की तैयारियों में जुट गए थे ......छोड़े छोटे ऋषि कुमारों को लेकर ........बन्दन वार  बंधवा रहे थे  ...........रंगोली  काढ़ी जा रही थी  ।

फूलों  का ढ़ेर लगा दिया था ........और उनको  फैलाया जा रहा था   चारों ओर .............।

महर्षि नें ही स्नान करके  जातकर्म संस्कार करवाया ............महर्षि ही आचार्य बने थे ...........और नाना की भूमिका में भी वे ही थे  ।

जातकर्म के बाद  मेरे नवजात शिशुओं का.......तपश्विनीयों ने ही नाल छेदन संस्कार  भी किया .........और उनको बड़े उत्साह से  .....आनन्दित होते हुये  नेग महर्षि नें स्वयं दिया.........मेरी पुत्री के पुत्र हुए हैं .....ये मेरे लिये आनन्द का विषय है.......वो बहुत प्रसन्न थे ।

मेरे पास आये..........मेरे नवजात  को  बहुत   आशीर्वाद दिया ।

राम के समान ही तेजवान और यशस्वी होंगें ये  बालक ............कहते हुए महर्षि  नवजात शिशुओं को ही देखे जा रहे थे ।

इतनें वीतराग होनें के बाद भी ..............मेरे प्रति कितना वात्सल्य था  महर्षि का ............मेरे नवजात को आशीर्वाद देते हुये जानें लगे तो   शंख मंगवा कर   शंख नाद किया ........।

कोई आया है    महर्षि !    एक तपश्वीनी नें आकर कहा ।

कौन आया है  ?         महर्षि नें पूछा ।

वही अयोध्या के  राजा श्रीराम के अनुज.......मैं  चौंक गयी  ....शत्रुघ्न कुमार  आये हैं  ?       

पर वो    अब इन बालकों को नही देख सकते........क्यो की बालकों का जातकर्म संस्कार हो चुका है....।

इतना कहकर  महर्षि बाहर चले गए  ।

मैं सुन रही थी  - महर्षि  नें  शत्रुघ्न कुमार से   उनकी कुशल क्षेम पूछी ......शत्रुघ्न कुमार बता रहे थे ........भाभी माँ  के आशीर्वाद    लवणासुर मारा गया .......इसलिये मैं केवल   भाभी माँ के दर्शन करनें आया हूँ ।

पर कुमार शत्रुघ्न !     तुम बिलम्ब  से आये .............अब तुम्हे जात सूतक लग गया है ............महर्षि कह रहे थे ।

क्या ?      शत्रुघ्न कुमार    चौंके  ।

तुम्हारे अग्रज के पुत्र हुए हैं.....और तुम कुमार शत्रुघ्न, चाचा बन गए हो  ।

आनन्द से उछल पड़े थे  शत्रुघ्न कुमार......पर मन मसोसकर रह गए  मैं देख नही पाउँगा अभी ?      नही  कुमार !    शास्त्र अब  जातकर्म के बाद आज्ञा नही देता आपको ............नाल छेदन से पहले तुम देख सकते थे ....पर अब  नही ......।

मैं  दान करूँगा ........आपके आश्रम में कितनें  ब्रह्मचारी हैं .......?

शत्रुघ्न कुमार    नें    पूछा ।

पर अब आप  को सूतक लग गया है.......आप दान भी नही कर सकते ।

शत्रुघ्न  कुछ नही बोले .........।

महर्षि नें  हाथ जोड़े कुमार के .......आप क्या कर रहे हैं ये  महर्षि ?

नही कुमार ! आप हमारे अतिथि हो .......पर आज मैं आपका सत्कार नही कर पाउँगा ........और मै व्यस्त भी हूँ आज ............मेरी पुत्री के पुत्र हुआ है ......दो पुत्र  ।

कुमार शत्रुघ्न   सिर झुकाकर सुनते रहे .......और महर्षि वहाँ से चले गए थे ..........उन्हें  तैयारी करनी थी ......उत्सव की .......पुत्री के पिता को सूतक नही लगता .........यही सबको कह रहे थे  ।

दही दूर्वा हरिद्रा  सब लाओ ...............आज आनन्द मनायेगें  ।  

मुझे  सब तापसी यही कह रही थीं -   कि प्रकृति आज कितनी प्रसन्न है.........चारों ओर सगुन ही दिखाई दे रहा है ...............कमल खिल उठे हैं सरोवर में .....और उनमें  भौरें गुँजार कर रहे हैं .........।

यज्ञ वेदी में  अग्नि  जलानें के लिये प्रयास नही करना पड़ रहा ...........स्वयं ही  अग्नि प्रज्वलित हो  रही है ।

अन्तःकरण सबका  शुद्ध और पवित्र हो गया है........ब्राह्मण बालक वेद मन्त्रों का उच्चारण कर रहे हैं .....गौएँ    प्रसन्नता से उछल रही हैं ....और अपनें बछड़ों को देखते ही  उनके थन से दुग्ध की धार बह चली है  ।

वनदेवी !   अयोध्या से आये  कुमार कह रहे थे कि  ऐसे लक्षण तो तब दिखाई दिए थे  अयोध्या की प्रकृति में ........जब  राजा राम का सीता देवी से विवाह हुआ था ........बिलकुल ऐसे ही शुभ लक्षण प्रकट थे  ।

पर वो कह रहे थे कि  अब अयोध्या में  अपशकुन के सिवाय और कुछ नही होता ............एक तापसी नें  आकर  कहा ।

दूसरी नें तुरन्त पूछा ..........क्यों  ?  अब क्या हो गया अयोध्या में ?

तुम्हे पता नही .......राजा राम नें अपनी धर्मपत्नी सीता का त्याग कर दिया है .........मुझे तो महा निष्ठुर लगते हैं  राम  !      

वो परम पवित्र सीता................राजा राम नें ठीक नही किया ।
 

पाप किया है  राम नें...............दूसरी बोली  ।

नही ............मैं  जोर से चिल्ला उठी ........मत बोलो  राजा राम को कुछ भी ........वो प्रजा वत्सल हैं ..............ऐसा राजा   कहाँ मिलेगा !  जो प्रजा की बातों को  इतनें गम्भीरता से लेता है ........।

अब रहनें दो वनदेवी !    राजा राम   का हम अब नाम भी नही सुनना चाहती.........सब तापसी एक साथ बोल उठीं थीं ।

मेरे नेत्रों से अश्रु बहते रहे थे .........मैं उन सबसे झगड़ती रही ..........अपनें  श्रीराम के लिये .................।

पर बाहर से  -  "बधाई हो बधाई हो" .........यही  आवाज  आरही  थी ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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