आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 158 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
मैं कब मूर्छित हो गयी थी मुझे पता नही ।
मेरे तो मुख पर जल का छींटा दिया था ..........तब जाकर मुझे कुछ होश आया ..............मैने सामनें देखनें की कोशिश की ...........
एक दिव्य तेज सम्पन्न ऋषि खड़े थे......मुझे देखते हुये वो रो रहे थे ।
पर ये क्यों रो रहे हैं ? मैने इधर उधर देखा था ..........मेरे आस पास कुछ ब्रह्मचारी बालक खड़े थे ..............।
मैं कहाँ हूँ ? मेरा मस्तक असह्य पीड़ा का अनुभव कर रहा था ।
ये अयोध्या तो नही है ? मैं यहाँ कैसे ?
ओह ! मुझे तो मेरे श्रीराम नें त्याग दिया ।
मुझे लक्ष्मण छोड़ कर चला गया है ।
पुत्री ! तुम वैदेही हो ना ? उन ऋषि नें मुझे पूछा ।
मैं क्या कहती ........मैं अपनें में ही नही थी .......कुछ नही बोली ।
तुम जनक नन्दिनी हो ना ? मैं ऋषि वाल्मीकि ।
उन अत्यन्त तेजपूर्ण ऋषि नें मुझे अपना परिचय दिया ।
तुम्हारे पिता जनक मेरे अच्छे मित्रों में से हैं ........मैनें तुम्हे बचपन में जनकपुर में बहुत बार देखा है .........हम ज्ञान की चर्चा के लिये तुम्हारे पिता के पास में ही जाते थे ।
मैनें उठनें की कोशिश की ........उन्हें प्रणाम करनें के लिए .....पर नही उठ सकी .........शरीर में मानों अब कोई शक्ति रही ही नही ।
मैं तो गंगा किनारे सन्ध्या कर रहा था .....ये मेरे ब्रह्मचारी बालक हैं .....
इन्होनें ही मुझे बताया कि .........कोई नारी मूर्छित पड़ी है ।
मैं कुछ सोचता कि उससे पहले ही लक्ष्मण का रथ दूर से जाता हुआ दिखाई दिया ...........मैं समझ गया .......कि राम नें अपनी आल्हादिनी का त्याग कर दिया है । ऋषि बोले जा रहे थे ।
आपको पता है ? मैने आश्चर्य व्यक्त किया ।........हाँ मुझे पता है .........मुझे ऋषि दुर्वासा नें सब पहले ही बता दिया था ।......ये कहते हुए ....उनके नेत्र सजल थे ........।
पुत्री ! श्रीराम का जन्म ही लोक शिक्षा , मर्यादा इन्हीं सबके लिये हुआ है । तुम्हे त्यागना तो इसकी शुरुआत है पुत्री !
मैनें महर्षि की ओर देखा .......पूछा क्या औरों को भी त्यागेंगें ?
अत्यन्त दुखपूर्वक महर्षि कह रहे थे ........लक्ष्मण शत्रुघ्न भरत सबका त्याग करके अकेले धर्म के लिये लड़ते हुये अपनें धाम जायेंगें ।
मैं अब उठी .........हाँ लड़खड़ाते हुए उठी ...............प्रणाम किया महर्षि के चरणों में , मैनें ।
पुत्री ! तुम चलो मेरे आश्रम.........नही नही तुम्हे चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नही है ............मेरे आश्रम के एक भाग में कुछ तपश्विनी भी रहती हैं ..........वहाँ किसी पुरुष का प्रवेश नही है ।
पुत्री ! मैं ऋषि वाल्मीकि तुम्हारे पिता जनक का मित्र हूँ .......तो तुम्हारा भी पिता समान ही हुआ ना !
मैं रो गयी थी फिर .....................मुझे मेरे पिता, मेरी माँ मेरा भाई और मेरा जनकपुर सब याद आरहे थे ।
पुत्री ! रोओ मत !
ये कहते हुये महर्षि स्वयं अपनें आँसू पोंछ रहे थे ।
वो चल पड़े अपनें आश्रम की ओर ..........पर बहुत धीरे चल रहे थे ।
मैं इस समय चल रही हूँ यही क्या कम है .........वो ये जानते थे इसलिये धीमी गति से चलते हुये अपनें आश्रम में मुझे ले आये ।
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ये वन देवी हैं .........मेरा नाम ही बदल दिया था महर्षि नें ।
इससे ज्यादा इनसे कोई प्रश्न नही करेगा ...........ये गर्भ से हैं .......इसलिये इनको सम्भालना आप सबकी जिम्मेवारी है ।
एक तपस्विनी गयीं और कुछ सूखे मेवे फल दूध इत्यादि लेकर आईँ .............।
मुझे अभी कुछ खानें की इच्छा नही है .......मैने महर्षि की ओर देखा ।
पुत्री ! खाओ ..............अपना नही तो कमसे कम गर्भस्थ शिशु का तो ध्यान रखो ..........इन्होनें क्या अपराध किया है !
मेरे सिर में हाथ रखा ये कहते हुये महर्षि नें ...........मुझे तो ऐसा लगा जैसे मेरे पिता ने ही मुझे संरक्षण दिया हो ।
महर्षि अपनी कुटिया में चले गए ...............।
मेरे लिये एक स्वच्छ सी कुटिया ..........मेरा कितना ध्यान रख रही थीं वो सब तपश्विनी.........मुझे कुछ करनें नही देती थीं ।
एक दिन शत्रुघ्न कुमार आगये थे ..........मथुरा जा रहे थे उनके अग्रज ने ही उन्हें भेजा था लवणासुर को मारनें .........तब रुके थे ।
मुझे देखा तो रो पड़े .........बहुत रोये.............
मैने ही उन्हें समझाया...फिर पूछा....अयोध्या की स्थिति कैसी है अब !
भाभी माँ ! अयोध्या का तो अधिदैव ही चला गया है ...........वहाँ अब रहा ही कौन ? मात्र एक कठोर आदर्शवान राजा ।
मुझे जो बताया शत्रुघ्न कुमार नें.......कि जब लक्ष्मण लौट कर गए मुझे छोंड़नें के बाद .......तब जो स्थिति थी मेरे श्रीराम की ........उसे सुनकर तो मैं भी बिलख उठी ........नही ......मेरे श्रीराम को सम्भालना शत्रुघ्न भैया ! .........शत्रुघ्न कुमार नें बताया कि ...........
शेष चरित्र कल ...........
Harisharan
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