वैदेही की आत्मकथा - भाग 157

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 157 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

लक्ष्मण !  रोको  रथ ,    रोको !      मैं  चहकती हुयी  बोली थी ।

पर रथ रुका नही...........क्यों नही रोका  रथ ?

मैने शिकायत की  लक्ष्मण से ...और कुछ देर मुँह फुलाकर भी बैठी रही ।

पर लक्ष्मण  आज उद्विग्न थे ........उनके चेहरे से स्पष्ट लग रहा था ।

क्यों नही रोका रथ !     कितनें प्यारे हिरण थे ........मैं उनको दानें खिलाती ..... !    पर पता नही  तुम जब से चले हो अयोध्या से   कुछ उदास से लग रहे हो     कुछ बोल भी नही रहे  ।

क्या बात है  लक्ष्मण ?       मैं बार बार पूछ रही थी  ......

पर लक्ष्मण   ऐसे अशान्त थे  जैसे उनके हृदय में ज्वाला फट रही हो ।

वो  मेरी ओर देख भी नही रहे थे ..............

अरे !  रुको तो  भाई !       रुको  !  देखो ये विप्र बालक जा रहे हैं .....इनको कुछ दक्षिणा तो दे दूँ   !   

पर, ये पहली बार हो रहा था कि लक्ष्मण मेरी कोई बात नही मान रहे थे ।

आगे  बस्ती दिखाई दी .........जहाँ नागरिक लोग आ जा रहे हैं......रघुकुल की ध्वजा    रथ में देखते ही  सब  दौड़े ........

महारानी  सिया जू की ....जय जय जय .....

अयोध्या की  सम्राज्ञी की...  जय जय जय .......

मेरे ऊपर फूलों की वर्षा कर रहीं थीं  नारियाँ .........मैं हाथ जोड़े  सबका अभिवादन स्वीकार कर रही थी  ।

बस्ती गयी ..............वन प्रदेश फिर प्रारम्भ हुआ   ।

लक्ष्मण !  तुम्हारे भैया   कितना प्यार करते हैं ना मुझ से ...........

मैने एक बार ही कहा था उनसे ..............कि मुझे वन देखना है .......बस  मेरी बात तुरन्त मान ली ......और मुझे वन भेज दिया .........ये कहते हुये मैं आनन्दित हो उठी थी  ।

पर ....लक्ष्मण !  तुम बोल क्यों नही रहे ?    बताओ ना ? 

अब शाम तक ही तो मैं  हूँ ना !       शाम होते ही  अयोध्या लौट चलना है ........फिर  क्यों ऐसे   उदास  चल रहे हो .....भैया !  क्या बात है ?

तुम रो रहे हो ?        मैने  जब देखा  तो   लक्ष्मण रो पड़े थे ..........भाभी माँ !   मेरा स्वास्थ ठीक नही है .............इसलिये  !

पर क्या हुआ तुम्हे ?   बताओ तो भाई !  हुआ क्या तुम्हे ? 

मैं अभी नही बता सकता.............आँसू पोंछे लक्ष्मण नें   ।

क्यों  नही बता सकते  ?  मैने पूछा ।      "आर्य की आज्ञा है भाभी माँ !  ......गंगा के उस पार पहुँच कर ही मैं आपको कुछ बताऊँ " 

तो शीघ्र चलाओ ना  रथ  !     शीघ्र  चलाओ  लक्ष्मण  ! 

मुझे भी सुननी है  तुम्हारे अग्रज की बातें .............!

मुझे क्या पता .........कि  क्या बात है  !    मैने लक्ष्मण से  रथ   शीघ्र चलाने को कहा ........और बार बार कह रही थी  ।

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"हाँ  अब  गंगा के इस पार आगये हैं .........अब बताओ लक्ष्मण !  क्या कहा है तुम्हारे बड़े भाई नें "

मैने रथ में बैठे ही पूछा  ।

आप उतरिये  रथ से माँ !    सिर झुकाकर  लक्ष्मण नें मुझ से कहा था ।

क्यों  रथ में बैठकर  बतानें के लिये  मुझे मना किया है क्या ? 

ये कहते हुये मैं रथ से नीचे उतरी   ।

ये क्या ?   मैं चौंक गयी थी ...........

क्यों की लक्ष्मण  मेरे सामनें साष्टांग लेट गए थे ............

ये क्या हुआ तुम्हे  लक्ष्मण भैया  !      वो हिलकियों से रो रहे थे ।

उनके आँसुओं से धरती भींग गयी थी  ।

"माँ !    भैया श्रीराम नें आपका त्याग कर दिया है "

क्या !         मेरी बुद्धि  स्तब्ध हो गयी.......मैं जड़वत् खड़ी रह गयी ........मेरे लिये ये जगत शून्य हो गया ..........।

लक्ष्मण बोलते गए .......धोबी की बात ........मैं  अपावन हो गयी  रावण के यहाँ रहनें से.......धोबी नें यही सब कहा........यही सब कहते गए ।

 
    लक्ष्मण ये सब बताकर   रथ की ओर बढ़ गए थे  ।

मैं खड़ी रह गयी थी अकेली ..........रघुवंश की बड़ी बहु ..........अयोध्या की सम्राज्ञी ......विदेह राज की लाडिली पुत्री  मैं वैदेही  ।

पर अकेली रह गयी थी... .........आज मेरे साथ कोई नही था ।

जब मैने देखा  रथ  चल पड़ा  लक्ष्मण का......मैं चिल्लाई .....लक्ष्मण !

मैं भी प्रजा हूँ ........मुझे भी तुम्हारे राजा से न्याय चाहिये .......।

मैं  स्वयं नही गयी थी रावण के यहाँ ...........रावण मुझे लेकर गया था .......मैं क्या करती   ?    मैं   नारी ..........मैं क्या करती  ? 

और  फिर इस विश्व ब्रह्माण्ड नें  भी देखा है ............मैनें अग्नि परीक्षा भी   दी है .........मैं  चिल्ला कर बोल रही थी  ।

माँ !  मुझे इतना ही आदेश है......लक्ष्मण नें रथ रोककर मुझ से कहा ।

आदेश ! आदेश आदेश ! ..........हाँ  तुम लोग तो कठपुतली हो  अपनें अग्रज के ..............सुनो लक्ष्मण !  मैं भी क्षात्रायणी हूँ ...."मुझे ले चलो अयोध्या कहकर"   मैं तुमसे प्रार्थना नही करनें वाली ।

पर इतना सुनते जाओ ............ये देखो !   मेरे उदर में  बालक है  .....देखो !  मैं चिल्लाई ...........देखो लक्ष्मण !  कहीं ऐसा न हो कि   इन बालक के लिये भी  मुझे  परीक्षा देनी पड़े ...........देखो !  ।

मैं  कितना रोष करती  !      मेरे अश्रु बह चले थे अब ..........धारा निकल पड़ी  नयनों   से  ।

लक्ष्मण  कुछ नही बोले ..........वो  चल दिए  रथ लेकर ।

मैं भी दौड़ी  गंगा की ओर .........मैं कूद जाऊँगी .........इस जीवन को ही समाप्त कर दूंगी ...........मैं  कूदनें ही जा रही थी ........कि तभी मेरा हाथ अपनें गर्भस्थ शिशु की ओर गया ............पैर मार रहे थे ........जोर जोर से ........मैं  टूट गयी ......मैं बैठ गयी ..........और - 

तुम उसी निष्ठुर के तो पुत्र हो ना !       तभी  ऐसी अवस्था में भी   चोट पहुँचा रहे हो अपनी माँ  को......हे निष्ठुर के पुत्र ।   ओह !  मेरे हृदय में क्या बीत रही थी उस समय.........मैं नही लिख पाऊँगी उसे  ।

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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