आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 156 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
कैसे लिखूँ आज मैं ये सब ..........
मेरे हाथ काँप रहे हैं आज ............।
आये थे शत्रुघ्न कुमार महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में .....मथुरा जा रहे थे अपनें बड़े भाई श्रीराम के आदेश से ......लवणासुर का वध करनें ।
आदेश से ? हँसी आती है मुझे ......आदेश ! आदेश ! ......।
मुझे शत्रुघ्न कुमार नें ही बताया था कि उस समय जब हम तीनों भाइयों को श्रीराम नें आदेश दिया ........नही नही ....आदेश तो बेचारे लक्ष्मण को ही दिया था ..........।
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नही, कोई प्रतिवाद नही करेगा मेरी बात का ..श्रीराम गम्भीर हो उठे थे ।
मेरे लिए अब जनता ही जनार्दन है ।
पर आर्य ! भरत भैया आगे आये.....तो गम्भीरता से श्रीराम बोले ....आप सबको मेरी सौगन्ध है....जो मेरी आज्ञा अगर टाली गयी तो !
रो गए थे तीनों भाई ........पर राजराजेंद्र श्रीराम को अपना आदर्श जो स्थापित करना था ।
मेरी आज्ञा पर तर्क करना ......विवाद करना मुझे मारनें के समान होगा !
ये कोई भाई नही बोल रहा था......न पति .........एक राजा बोल रहा था ......मात्र राजा ......जिसे इतिहास लिखना था .........आदर्श स्थापित करनें के लिये ..........हँसी आती है मुझे ।
सिर झुकाकर खड़े रहे तीनों भाई .......।
"मैं सीता का त्याग करता हूँ "
हिलकियाँ फूट पड़ी थीं तीनों भाइयों की ।
जो मूर्छित होते होते बचा था उसी को आदेश मिला ।
लक्ष्मण ! तुम कल प्रातः होते ही जाओगे गंगा किनारे निर्जन वन में ।
वैदेही को लेकर जाओगे .........वो जो वस्तु ले जाना चाहें ले जाएँ ।
कठोर बन गए थे ............पाषाण से भी कठोर ।
पर तुम वैदेही को कुछ बताओगे नही.......तब तक नही बताओगे जब तक गंगा का किनारा और निर्जन वन नही आजाता........वहाँ उतार देना ........और मेरा आदेश सुना देना वैदेही को ।
"राम नें तुम्हारा त्याग कर दिया है..... अब कहीं भी जानें के लिए तुम स्वतन्त्र हो "
लक्ष्मण इतना कहकर लौट आना ..........तुरन्त लौट आना ......ये मेरा आदेश है ..........इतना कहकर शून्य में तांकनें लगे थे ।
स्तब्धता छा गयी थी उस कक्ष में ।
लक्ष्मण ! धीरे से पुकारा था श्रीराम नें.....पर लक्ष्मण तो रो रहे थे .........लक्ष्मण ! इस बार जोर से पुकारा .........
घबड़ाये लक्ष्मण आगे हाथ जोड़ते हुये आगये ।
तुमनें उत्तर नही दिया ?
आपकी आज्ञा को मैनें कब टाला है भैया ! ...... हिचकियाँ चल ही रही थीं लक्ष्मण की ।
जाओ ! अब जाओ ! सो जाओ ! श्रीराम नें अपनें भाइयों से कहा ।
सुनो ! ये बात किसी से मत कहना......अपनी पत्नियों से भी नही ।
आज वो हृदय इतना कठोर हो गया था ...............ओह !
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सुनिए ! मुझे वन में जाना है.......गंगा के पवित्र जल में स्नान करना है ..........वहाँ ऋषियों के आश्रम हैं ............उनके दर्शन करनें का मेरा बहुत मन है ............।
अन्तःपुर में आगये थे श्रीराम ......और बिना कुछ बोले लेट गए थे ।
मैं ही बक बक किये जा रही थी , पर वो तो कुछ और ही सोच के बैठे थे ।
"कल लक्ष्मण तुम्हे वन में ले जाएगा......मैने उसे बोल दिया है"
इतना ही बोले थे .................
आप कितना ध्यान रखते हैं ना मेरा ! मेरी इच्छा का कितना सम्मान करते हैं ना ! मैने उनसे और भी बहुत कुछ कहा .........पर उन्होंने कोई उत्तर नही दिया ।
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उस दिन प्रातः ही सरजू स्नान के लिये श्रीराम चले गए ।
लक्ष्मण रथ तैयार कर रहे थे ....साथ में सारथि महामन्त्री सुमन्त्र थे ।
मैं बहुत खुश थी ...........सूखे मेवा, कुछ मिष्ठान्न भी रख लिए थे ।
हिरणों को देनें के लिये कुछ दानें ........गायों के लिये गुड़ इत्यादि ।
वन में रहनें वाले विप्रों को देनें के लिये कुछ दक्षिणा ...........।
ओह ! मैं भी भूल गयी ........वस्त्र तो रख लेती हूँ ......गंगा में स्नान करना पड़ा तो ! मैने वस्त्र भी रख लिए थे ।
उर्मिला ! तुम भी चलतीं ? उर्मिला आगयी थी ............मैने लक्ष्मण की ओर देखा ......उर्मिला को भी ले चलते हैं ना लक्ष्मण !
नही ......आप बैठिये भाभी माँ ! ऐसा नीरस उत्तर लक्ष्मण से मुझे मिलेगा मैने सोचा भी नही था ........।
मैं बैठ गयी थी रथ में ............और रथ चल पड़ा था ।
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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