वैदेही की आत्मकथा - भाग 155

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 155 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

आप मेरे सर्वस्व हैं ............ये राज्य आपका है ........

ये क्या ?     ये  "आप" कह कर  सम्बोधित क्यों कर रहे थे अपनें छोटे भाइयों को  मेरे श्रीराम  !      पर  व्यक्ति जब अतिशय शोक में होता है .....तब  वह  ऐसे  व्यवहार करता ही है  ।

सामनें   खड़े हैं हाथ जोड़े  तीनों भाई .........भरत , लक्ष्मण, शत्रुघ्न ।

अश्रु भरे नेत्र  ,   शोकाकुल......कान्तिहीन  मुख मण्डल ..........

अपनें अग्रज श्रीराम को ऐसी अवस्था में देखा  तो  स्तब्ध रह गए थे  ये तीनों भाई  ।

आप कहना क्या चाहते हैं आर्य !   आगे बढ़कर भरत नें ही पूछा था  ।

तुम लोगों नें सीता के बारे में क्या सुना है ?  

ये क्या प्रश्न था   !    एक दूसरे का मुँह देखनें लगे थे ।

देखो !      राम  लड़खड़ाते उठे   अपनें आसन से ...............

तुम लोग जानते हो........मेरी सीता का जन्म सत्कुल में हुआ है  ।

वह  बहुत अच्छे और ज्ञानी परिवार की बेटी है .........अयोनिजा है ।

रावण नें उसका हरण किया.......मुझे पता था  ये बात कोई कह सकता है ....इसलिये मैने   सीता की अग्नि परीक्षा भी ली ........अगर तुम लोगों को विश्वास नही है तो पूछो इस  लक्ष्मण से ....ये साक्षी है ।

लाल नेत्र हो गए थे   मेरे श्रीराम के .......वो कभी क्रोध में आजाते थे तो   कभी  बिलख उठते थे  ।

तीनों भाइयों के  हृदय में मानों आज बज्राघात हो रहा था .........वो  किंकर्तव्य विमूढ़ से  सिर झुकाये  खड़े रहे   ।

भाइयों के समझ में  अभी तक बात आयी नही थी  कि  "हुआ क्या है" ।

वो धोबी कह रहा था कि  "सीता  रावण के यहाँ रही है"......दीवार से सिर टकराते हुये बोले थे श्रीराम  ।

अरे ! उसे क्या पता   ....जाओ लक्ष्मण ! बताओ उस धोबी को.....कि मेरी सीता अग्नि से होकर गुजरी है .........देवता आकाश में आगये थे .....देवता भी गवाही देंगें.......कि मेरी सीता पवित्र है ...।

अब बात समझ में आरही थी तीनों भाइयों के   कि  किसी धोबी नें.........।

बैठ गए अपनें आसन पर  फिर  श्रीराम ............कैसे समझाऊँ   कि मेरी सीता पवित्र है .........बार बार यही बोले जा रहे थे ।

मैं उस धोबी का सिर काट कर लाता हूँ भैया !     ऐसे कोई किसी के लिये कैसे कह देगा .....और  पूज्या भाभी माँ !  सामान्य नारी तो नही है ! 

वो  इस  अयोध्या की साम्राज्ञी हैं ........महारानी हैं ........भैया ! आप अगर आज्ञा नही भी देंगें  तो  भी  ये लक्ष्मण उस धोबी का गर्दन काट कर आपके चरणों में  चढ़ा देगा ।    लक्ष्मण क्रोध पूर्वक बोल रहे थे  ।

लक्ष्मण !       बहुत धीमी आवाज में बोले थे  श्रीराम  ।

"मनुष्य पर लांछन लगना मृत्यु के तुल्य है"     

ये क्या कह रहे हैं  आर्य !  भरत आगे आये थे  ।

आप एक धोबी की बातों पर ?     उसकी बातें भी कहीं ध्यान देनें योग्य हैं ........मदिरा का पान करनें वाला ......पत्नी के ऊपर हाथ उठानें वाला !

बुद्धिमान व्यक्ति  ऐसी बातें सुनकर उदासीन हो जाते हैं .........

आर्य !   मुझे क्षमा करें........मैं आपको उपदेश नही दे रहा .....मैं भरत आपके चरणों में अपनी विनती चढ़ा रहा हूँ  ।

भरत !    अपनें यश अपयश से उदासीन हुआ जा सकता है......पर  राजा पर ये बात लागू नही होती ना !     

भरत ! मैं कोई सामान्य नागरिक नही हूँ ........जो  कलंक लगा रहा है .......उसे सुनकर भी अनसुना कर दूँ  ?     प्रजा कुछ कह रही है .....भले ही झूठ कह रही हो .....पर उसे सुनना तो पड़ेगा ना !  और उस प्रजा की बातों का उत्तर तो राजा ही देगा ना !       श्रीराम बस बोले जा रहे थे ......उनकी आँखें सूज गयी थीं    रो रोकर  ।

शासक समाज का होता है ............उसका आचरण, उसका लोकापवाद भी   समाज के लोगों का आचरण बन जाता है ......इसलिये ऊँची गद्दी में बैठे शासक को   बहुत सावधान रहनें की आवश्यकता है ।

श्रीराम बोले जा रहे थे .......और उस समय  तीनों भाइयों का  हृदय  काँप रहा था ........अज्ञात भय से  ।

इसलिये  राजा को प्रजा के हित के लिये .......अपनें आपको भी  त्यागना पड़े -  तो भी त्याग देना चाहिये  ।

हाँ ........मेरे श्रीराम  अपनें आपको ही तो  अब त्यागनें जा रहे थे ।

सब भाई उस समय शान्त, स्तब्ध , शंकित - सुनते रहे.......श्रीराम बोलते रहे........बोलते रहे.......मेरे लिये तो   लोक समूह ही अब  उपास्य है .....प्रजा ही मेरी इष्ट है......क्यों की मैं  एक राजा हूँ ।

शेष चरित्र कल .............

Harisharan

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