आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 127 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
मेरे पिता विभीषण नें पता सही बताया था ..........पवनसुत लंका नगरी में पहुँच कर समझ गए कि सुषेण वैद्य का घर यही होगा ......त्रिजटा अपनी मायामयी दृष्टि से सब देख रही थी ( राक्षसों में भी यह शक्ति पाई जाती थी ) और मुझे बता रही थी ।
मैं उद्विग्न, उसकी बातें सुन रही थी ......सुमित्रानन्दन की स्थिति मुझे विचलित कर रही थी..............।
सुषेण वैद्य का परिवार उत्सव मनानें बाहर गया था......लक्ष्मण की मृत्यु का उत्सव रावण नें ही लंका में आयोजित कर रखा था आज ।
अकेले थे सुषेण वैद्य ..........................
बाहर से ही देखकर समझ गए वैद्य जी के घर में कोई नही है ।
क्या मैं इन्हें चुपचाप उठाकर ले जाऊँ ?
फिर पवनसुत विचार करनें लगे ..............पर औषधि की आवश्यकता वहाँ हुयी तो ?
क्यों न पूरे घर को ही .....................
रामप्रिया ! हनुमान नें विचार किया ...........और सुषेण को घर सहित ही उठा लिया ...............।
सुषेण को तो पता तब चला जब क्षण में ही धरती पर उसके घर को हनुमान नें रख दिया था .......तब कम्पन हुआ सुषेण को .........बाहर आकर देखा तो ..........हजारों वानर खड़े हैं ........
मुझे यहाँ क्यों लाया गया ?
सुषेण भयभीत भी हैं ..............।
मेरे पिता विभीषण आगे आये...........हे वैद्यराज ! आप अपनें कर्तव्य का पालन करें ...............और रामानुज को शीघ्र स्वस्थ करें ।
विभीषण ! आप तो मुझे कर्तव्य की शिक्षा न दें ..............
विभीषण की उपेक्षा करते हुये सुषेण नें कहा .........पर श्रीराम हाथ जोड़कर बोले ...........हे वैद्यराज ! आप नारायण रूप हैं ........वैद्य नारायण स्वरूप होता है ...............इसलिये आप मेरे भाई को स्वस्थ करें ..........मेरी प्रार्थना है आपसे ...........।
पर आप लोग मेरे शत्रु हैं .........मैं जिस राजा की छत्र छायाँ में हूँ ........उसके शत्रु को मैं कैसे देख सकता हूँ ...........सुषेण नें कहा ।
पर मैने तो सुना था वैद्यराज ! कि वैद्य का शत्रु, केवल रोग होता है ........वैद्य का कोई शत्रु और मित्र नही होता , रोग को दूर करना ही उसका कर्तव्य है .............आप तो सब जानते ही हैं .........बड़ी विनम्रता से श्रीराम बोले हैं ।
रामप्रिया ! श्रीराम की वाणी में अद्भुत जादू है ..........सुषेण शान्त भाव से अपनें घर से बाहर आये ......नाड़ी देखी .........घाव देखा ..........।
"कुछ नही हो सकता आपके भाई का"..........ये लगभग मृत ही हैं"
ऐसा मत कहिये .................रो गए प्रभु श्रीराम !
हनुमान नें क्रोध में गर्दन पकड़ लिया सुषेण का ............
मैं चन्द्रमा को निचोड़कर उसका अमृत लक्ष्मण भैया के मुख में डाल दूँगा .......तब तो ये स्वस्थ होंगें .......?
मैं स्वर्ग से अमृत का कलश ही ले आऊंगा ........और पूरा अमृत लक्ष्मण जी को पिला दूँगा .........
हनुमान क्रोधित हो उठे थे ।
सुग्रीव नें हनुमान को हटाया है ...............हे वैद्यराज ! क्या कोई और उपाय नही है ? क्या कुछ भी नही ?
"एक उपाय है "........विचार कर बोले सुषेण ।
क्या , क्या उपाय है बताइये ना वैद्यराज !
श्रीराम विलख रहे हैं ।
सूर्योदय से पूर्व हिमालय से ...उत्तर दिशा से संजीवनी बूटी आजाये तो ये .........पर ये सम्भव नही है - सुषेण नें कहा ।
क्यों सम्भव नही है ! ....................मैं लेकर आऊंगा ........
"मैं प्रभु श्रीराम के चरणों की सौगन्ध खा कर कहता हूँ ..........ये हनुमान सूर्योदय से पहले ही संजीवनी लेकर आएगा ............।
इतना कहकर हनुमान उड़े........पर उड़ते हुए ये भी कहा है ......प्रभु ! अगर सूर्य उदित होनें लगे तो आज फिर बचपन की घटना को दोहराऊंगा .............सूर्य को फिर खा जाऊँगा ।
हनुमान तीव्र गति से उड़ गए ........... उत्तर दिशा की ओर ।
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हे रामप्रिया ! समय बीता जा रहा है .................सूर्योदय होनें में अब समय ही कहाँ बचा है .............
श्रीराम रोये जा रहे है ..................अपनें स्वामी की ये स्थिति देख वानर समाज भी आँसू बहा रहा है ।
क्या ये राम ...... उर्मिला को चिता में बैठे देख सकेगा ?
वो सती है .......वो महान सती है ........वो मानेगी नही .......अपने पति लक्ष्मण के साथ सती होगी ही ..........पर क्या उस दृश्य को मैं देख सकूँगा ..............रो रहे हैं श्रीराम , हे रामप्रिया !
मेरी स्थिति ऐसी हो गयी थी कि उसका वर्णन भी सम्भव नही है ...।
तभी ......वानर समाज आनन्दित हो उठा ...........सब नाचनें लगे ....सब तालियाँ पीटनें लगे ..............
क्या हुआ त्रिजटा ! मैनें पूछा ।
"हनुमान आगये"............त्रिजटा नें चहकते हुए कहा ...........
क्या ! मैं आनन्दित हो उठी .............मैने खुश होकर त्रिजटा को अपनें गले से लगा लिया था ।
पर्वत को रखा है हनुमान नें ............जड़ी बूटी ली है सुषेण नें ........और उसे घोटा है ...........फिर उसका रस निकालकर जैसे ही सुमित्रानंदन के मुख में दिया ......................
कुछ ही देर में ........आँखें खोलीं लक्ष्मण नें ...........
मैं उछल पड़ी .........मेरी बहन उर्मिला का सुहाग बच गया .....त्रिजटा ! मैं बहुत खुश हूँ ...........तू समझ नही सकती ....मुझे कितना आनन्द आरहा है ........मेरी उर्मिला !...........मेरे प्यारे देवर लक्ष्मण ........मेरे नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहते ही जा रहे थे ।
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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