वैदेही की आत्मकथा - भाग 128

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 128 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

कल दिन भर नही आयी त्रिजटा ..........

मैं परेशान  अशोक उद्यान में इधर उधर घूमती रही....परेशान होती रही ।

आयी भी तो रात्रि में ......वो भी  छुप छुपाके  ।

आते ही पहले तो मुझ से गले लग कर रोई ......खूब रोई .........बोली -

रामप्रिया !    नगर में  आपके मृत्यु की  चर्चा है .......मेघनाद नें आपको मार दिया  ..........!

पर त्रिजटा की इस बात पर मैने  ज्यादा ध्यान नही दिया ......त्रिजटा ! 

तू क्यों नही आयी ?  मैं सुबह से तेरी प्रतीक्षा कर रही हूँ ।

रामप्रिया !  मैं  अब  पहले की तरह नही आसकती ..............

क्यों ?    तू क्यों नही आसकती ...........तुझे तो रावण नें भी स्वतन्त्रता दी है ना  ?

पर  लक्ष्मण के जीवित होनें की खबर से ........और लंका नगरी में श्रीराम के गुप्तचरों के  फैलनें की  चर्चा से.......सबपर पैनी नज़र  रखे हुए हैं  रावण के लोग......और  अब तो अशोक वाटिका में  भी  ।

मुझे भी कहा गया है  रामप्रिया !  कि  आपके पास में  न आऊँ .......त्रिजटा नें मुझे  ये सारी बातें बता दी थी ।

पर  आज प्रातः   मेरी माँ  सरमा नें मुझे ये कहकर उठाया कि .......देख तो त्रिजटा !     सीता  का वध कर दिया है  मेघनाद नें  ।

क्या !    मैं  घबडा के उठी......मुझे तो लगा   मेरा सब कुछ खतम ही हो गया .....मैं घबड़ाई हुयी     बाहर नगर में  आयी ..............फिर सभा में भी गयी .........रावण मुझे बड़े ध्यान से देख रहा था मानों मेरा  अध्ययन कर रहा हो ............फिर  मुझे  सुनानें के लिये बोला -   अशोक वाटिका में  जो जाता है  उन पर  विशेष नजर रखो   ।

मैं वहाँ से निकल गयी रामप्रिया !   

       बड़ी जल्दी जल्दी बोले जा रही थी त्रिजटा   ।

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लक्ष्मण जीवित हो गया  !    

रावण और मेघनाद फिर क्रुद्ध हो  उठे थे  ।

रावण तो बोला ......सुषेण वैद्य नें हमारे साथ विश्वासघात किया है ....मार दो उसे ........।

पर मेघनाद नें रावण को रोक दिया ........नही .......ऐसा करना उचित नही होगा .....क्यों की सुषेण वैद्य जैसा वैद्य, हमारे पास कोई है नही ।

रामप्रिया !   पिता रावण को आश्वासन देकर  फिर  निकुम्भीला देवी के मन्दिर में गया   मेघनाद ......वहाँ जाकर  उसने  पूर्व की तरह  आराधना की  देवी की .....वहीं  अदृश्य रथ प्राप्त किया  .....और  युद्ध भूमि की ओर फिर  चल पड़ा था  ।

पर  रामप्रिया !    इस बार सावधान थे  श्रीराम और लक्ष्मण  ..........

मेघनाद नें इस बार एक गलती कर दी ..........कि उसनें  वानरों के ऊपर  बाणों की वर्षा करनी  शुरू कर  दी थी  ...........

तभी  क्रोध में भरकर एक बाण ऐसा चलाया  सुमित्रानंदन नें ........कि  मेघनाद  दिखाई देनें लगा ........उसकी वो अदृश्य शक्ति  रामानुज नें खतम ही कर दी थी.............

मेघनाद डर गया ................

तभी आँखें बन्दकर  ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करनें लगे लक्ष्मण ........

ये देखते ही भागा है मेघनाद .............श्रीराम हँसे .......वानरों नें भागते मेघनाद को देखा  तो तालियाँ बजानें  लगे थे ।

हँसते हुये रामानुज लक्ष्मण नें,   बाण को  धनुष से उतार लिया था ......

मेघनाद !    हम लोग भागते शत्रु पर  बाण नही चलाते  ।

ये सारी बातें  त्रिजटा नें  एक ही साँस में सुना दी थी ........

फिर रुकी वो ........मैने  उसे  बिठाया .................त्रिजटा  नें अपनें पसीनें पोंछे .........फिर  एकाएक रोनें लगी .......रामप्रिया ! आपको कुछ नही होना चाहिये ..................।

मैने उसे सम्भाला .......फिर  पूछा  आगे क्या हुआ  ?

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रामप्रिया !      पागल हो गया था  मेघनाद ................

अब उसनें अपनी माया दिखाई ....................

 केवल हनुमान को ही दिखाई माया...........और कुछ वानर भी थे ।

इतना कहकर  त्रिजटा फिर रुकी .........।

आगे बता  ना  त्रिजटा !      मैने फिर पूछा ।

माया से  आपको बनाया मेघनाद नें .........त्रिजटा बोली ।

मुझे बनाया  ?   मतलब ?   मैने  चकित होकर पूछा ।

हाँ  .....मायामयी सीता का निर्माण किया  मेघनाद नें ।

और उस सीता को लेकर गया   समरभूमि में ..........

त्रिजटा की बातें सुनकर  मैं  स्तब्ध थी  ।

मैं मार दूँगा  सीता को ............ये कहकर  सबको बता रहा था मेघनाद ।

और  रामप्रिया !   वो मायामयी  सीता  चिल्ला रही थी .......

हे राम !  हे लक्ष्मण !  हनुमान !  मुझे बचाओ .....मुझे बचाओ ।

फिर क्या हुआ  ?    मैने पूछा त्रिजटा से  ।

हनुमान दौड़े ..................मेघनाद !   मैं तुझे छोड़ूंगा नही  ।

पर  मायामयी सीता को ! ................त्रिजटा पूरा  भी नही बोल सकी की  "मायामयी सीता को मार दिया  मेघनाद नें"

फिर आगे ?        मैने फिर पूछा  ।

मेघनाद भागा  ये कहते हुये -  अब  युद्ध करनें का कोई अर्थ नही है  क्यों की सीता को तो मैने मार दिया  ।

हनुमान  नेत्रों से अश्रु बहाते हुये  श्रीराम के पास आये ............और बोले ......माता सीता  को मार दिया दुष्ट मेघनाद नें  ।

क्या ! ! ! ! ! ! 

श्रीराम  मूर्छित ही हो गए थे ........पर  उसी समय मेरे पिता  विभीषण नें  सम्भाला   और  हनुमान से कहा ..........शव कहाँ है  सीता का ? 

हनुमान  चौंकें  ..............

बताओ !   क्या  उस स्थान पर  सीता का रक्त गिरा ?   

हनुमान तुरन्त समझ गए  विभिषण क्या कहना चाहते हैं ।

तो वो माया से  रची गयी थीं  ........?

और क्या हनुमान !     अगर माया से नही रची होती  तो   शव को क्यों ले जाता .......... क्या समाधि बनाकर पूजेगा  मेघनाद  !

मेरे पिता विभीषण  नें समझाया और  फिर  सबको सांत्वना देकर   लक्ष्मण से कहा ............अभी मेघनाद   फिर निकुम्भीला देवी के यहाँ गया है ...........बलि देगा वो वहाँ देवी को ...........यज्ञ करेगा  वो .....।

अगर उसका यज्ञ सफल हो गया तो !..........मेरे पिता आगे नही बोले ।

तो ?     क्या होगा  ? 

कुछ नही कह सकते  रामानुज !   

लक्ष्मण !   तुम जाओ .........और आज  मेघनाद का वध कर ही दो ।

लक्ष्मण  नें प्रसन्नता से प्रणाम किया  प्रभु श्रीराम के चरणों में  और विभीषण के साथ चले गए हैं .........निकुम्भीला देवी के मन्दिर में ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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