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वैदेही की आत्मकथा - भाग 121

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 121 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मै वैदेही ! 

ओह !   मेरे सामनें उस दिन हृदय विदारक दृश्य दिखाया दशानन नें ।

मैं रो नही सकी .......मेरे आँसू सूख गए थे.......मैं बस   देखती रही ।

मैं आर्त होकर  चीखना चाहती थी ......पर नही   मैं  भाव शून्य रही ।

उस दिन मेरे प्राण निकल जाते .........अगर दशानन के जानें के बाद  त्रिजटा की माँ  "सरमा" न आती तो  ।

त्रिजटा उस दिन शाम को आई  थी............मुझे कहकर गयी थी......रामप्रिया !  मैं रजत पर्वत पर जा रही हूँ .......वहाँ से मुझे  श्रीराम के दर्शन हो जायेंगें ..........वो वहीं गयी थी  ........

पर यहाँ  अशोक वाटिका में आज   रावण आगया था ...........।

हे जनकदुलारी !    हमनें तुमको समझाया था ......पर तुम मानीं नही ।

मैनें उससे कोई प्रश्नोत्तर नही किया  ।

वो  बोलता गया .................मैनें   उसकी बात जब सुनी तो  अपनें दोनों कान बन्द कर लिए थे .............और  मैं   आर्त होकर  इधर उधर देखनें लगी थी ............।

जिस राम का तुम्हे भरोसा था  देखो !  उस राम को मैने मार दिया ।

ओह !   ये क्या बोल रहा है ..............

हाँ मैने  राम को मार दिया.......और साथ में   लक्ष्मण को भी मार दिया .........सुग्रीव युद्ध छोड़कर भाग गया है .........

रावण मेरे नजदीक  आया ........और बोला -  उस हनुमान के तो अंग भंग कर दिए हैं  मेरे राक्षसों नें   ।

नही .......तू  झूठ बोल रहा  है  रावण !   मेरे श्रीराम को तू क्या मारेगा  ?  

और बड़े बड़े ज्योतिषियों नें  कहा है  मेरे जीवन में वैधव्य योग नही है ।

त्रिकालदर्शी ऋषियों नें भी यही बात दोहराई है ..............रावण ! तेरे जैसे हजारों रावणों  को मारनें की सामर्थ्य रखते हैं   मेरे श्रीराम  ।

मेरे अंग काँप रहे थे ........बोलते हुये मेरे होंठ सूख गए थे ..........।

रावण हँसा ..........उसनें ताली बजाई...........उसी समय एक राक्षस  उसके पास आया ............एक थाली लेकर .....वह थाली  एक रेशमी वस्त्र से ढँकी हुयी थी.......मेरे सामनें ला कर रख दिया ।

मैं काँप रही थी ....................।

रावण नें तलवार ली .......और अपनें तलवार के नोंक से   उस ढंके हुए वस्त्र को हटाया .................

न   हीं !  ................मै  चिल्ला उठी    ।

मेरे श्रीराम का मस्तक रखा था    उस थाल में  ।

देखो !   जानकी !  देखो ........मैने मार दिया  तुम्हारे राम को  ।

हा हा हा हा हा हा हा हा ..............रावण क्रूर हँसी हँस रहा था ।

पर अब मेरे आँसू सूख गए ...........मैं गम्भीर हो गयी .............

ये सब क्या है  ?          

तभी  रावण को कोई बुलानें आया ............रावण को इतना ही कहा ...महारानी मन्दोदरी आपको बुला रही हैं .............

रावण नें मेरी ओर देखा .............और  फिर  वहाँ से चला गया ।

पर ये क्या !     रावण के जाते ही    वो  मस्तक गायब हो गया  ।

मैं  चकित और आर्त हो गयी थी ..........।

मैं  चारों ओर देखनें लगी .......रावण जा चुका था ........मैं त्रिजटा को खोजनें लगी ...........कि  ये सब क्या है  ? 

तभी .................

त्रिजटा की माँ  "सरमा"  मेरे पास आयीं ...............

क्यों  आर्त हो रही हो   राघवी ?       हम राक्षसों की माया से सावधान रहो .............

ये सब क्या था  ?     मैने   त्रिजटा की माँ सरमा से पूछा ।

माया ........राक्षसों की माया ........................

मेरे श्रीराम  ?        मैं इतना ही पूछ सकी   ।

वो सकुशल हैं ...........मैं  आज ही  अपनें स्वामी  विभीषण और  उनके आराध्य प्रभु श्रीराम के दर्शन करनें गयी थी ........वो स्वस्थ और सकुशल हैं .......।

सरमा की बातों से  मुझे कुछ सांत्वना मिली  ।    

फिर ये सब क्या था    सरमा !   आप मुझे सच सच बताओ .......मेरा हृदय घबडा रहा है ............मैने  सरमा के हाथ जोड़े ।

हे राघवी !     मैं झूठ नही कह रही ............तुम ही विचार करो ......रावण के जाते ही  वो मस्तक कहाँ गया  ?   

तभी त्रिजटा आगयी थी ..........मैं दौड़ी    मैने जाकर पहले त्रिजटा को अपनें हृदय से लगाया ......और रो गयी  ।

सारी बातें मैने   रोते हुए ही उसे बताईं  ।

रामप्रिया !    ऐसा विलाप मत करो .......मैं अभी अभी  रजत पर्वत से ही आरही हूँ .........वहाँ मैने  श्रीराम के दर्शन किये हैं ..........और लक्ष्मण  प्रसन्न थे .........शायद  कल आक्रमण करेंगें  लंका में   मेरा ऐसा अनुमान है ........मैं सच कह रही हूँ  रामप्रिया !     श्रीराम तो व्यूह की रचना में लगे थे ..........कि कैसे,   कौन,    किस व्यूह का नायक बनेगा  .....और  सामनें वाले शत्रु को  कैसे  उसमें लाकर फ़ंसायेगा  ।

तुम सच कह रही हो  ना त्रिजटा ?  मैने  फिर  पूछा  ।

आपको मैं कैसे विश्वास दिलाऊं ...................

मैं मुड़ी त्रिजटा की  माँ सरमा की ओर .....................

आप मेरी  माँ समान हैं .......क्यों की आपकी पुत्री त्रिजटा को मैने अपनी सखी माना है .........माँ ! मेरा एक काम कर दोगी  ? 

आप  कहें  राघवी  !      सरमा नें कहा  ।

रावण इस समय क्या कर रहा है ?  .....वो  इतनी जल्दी यहाँ से कहाँ गया ?   उसे मन्दोदरी नें क्यों बुलाया  ?   आप शीघ्र जाकर पता लगाओ ना  !     और माँ !  मुझे  जल्दी आकर बताओ...... मेरे ऊपर कृपा करो ।

मैने हाथ जोड़े .........आप ऐसे न करें  राघवी !   मैं  अभी जा रही हूँ  ......

इतना कहकर सरमा चली गयीं थीं   ।

त्रिजटा मेरे पास बैठी रही ...............मुझे नाना प्रकार से समझाती रही ......पर  मेरा ध्यान   इस समय  सरमा के पास था .....वो क्या  बात बताती है  आकर  ।

सरमा आगयी थी ............और उसनें जो बात बतायीं ....उसे सुनकर  हम तीनों ख़ुशी से झूम उठे थे  ।

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"मेरी प्रार्थना है........आप  सीता को लौटा दें"

रावण के महल में जाते ही  महारानी मन्दोदरी  रावण के पैरों में गिर गयी थी.........और रोते हुए रावण को कह रही थी । 

तू रावण की पत्नी होकर  डर रही है ........डरेगा वो तपस्वी  राम ।

रावण की बातें  सुनकर  फिर बिलख उठी थी  मन्दोदरी ।

आप किसे बहला रहे हैं  नाथ !       एक वानर लंका जला गया ......और कल दूसरा वानर  अपनें पैर जमा गया  तो  उसके पैर कोई   उठा   न सका  ।    रावण  कुछ नही बोला  राघवी !   -  सरमा बता रही थीं  ।

मेरी आपसे प्रार्थना है कि  आप सीता को  लौटा दें ..........और    राम से सन्धि कर लें .......इसी में  हमारी और समस्त  राक्षस समाज की भलाई है ............मन्दोदरी बोले जा रही थी   ।

तू स्त्री है .........और .हम जैसे वीर पुरुष  अगर  स्त्री की बातें  माननें लगें .......तो वीरता समाप्त ही हो जायेगी   ।

हे राघवी !       इतना कहते हुये  रावण क्रोध में भरकर  राजसभा   चला गया ............और ये कहता गया ......अब तो  युद्ध होकर ही रहेगा ।

मैने  सरमा की बातें सुनकर   त्रिजटा की ओर देखा ...........वो मुस्कुराई ......मैं भी मुस्कुराई ............."युद्ध होगा  इसका मतलब  जो देखा था वो  सब  राक्षसी माया थी"        ये वाक्य  हम दोनों नें एक साथ कही .....

और  हम दोनों खूब हँसे............सरमा  वहाँ से जा चुकीं थीं ।

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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