वैदेही की आत्मकथा - भाग 120

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 120 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही !  

मैं  उस दिन  अपनी माँ पृथ्वी से प्रार्थना करती रही .........मै रो रो कर प्रार्थना कर रही थी.......मैने अपना मस्तक पृथ्वी में रख दिया था ।

अब आपके हाथों में है आपकी बेटी  माँ !    मैं ये कहते हुये  पृथ्वी के अंश रज को  अपनें माथे से लगा रही थी.....माँ !  मत छोड़ना "अंगद" का पैर ...आप उसके पैर को पकड़े रहना ।   मेरा रोना बन्द नही हो रहा था  ।

मुझे त्रिजटा बता गयी थी,  जल्दी जल्दी में इतना ही बोली थी कि -  श्रीराम नें अपना दूत अंगद भेजा है रावण के पास.......उसके लंका में प्रवेश करते ही .....भगदड़ मच गयी थी ......सबको लग रहा था कि  वही पहले वाला वानर आया है .......और  रावण के एक पुत्र को भी मार दिया था  उस अंगद नें   ।

यहाँ तक तो कोई बात नही थी .........मरना मारना तो अब होगा ही ....युद्ध जो छिड़नें वाला है ........पर  आगे जो  त्रिजटा नें बताया ......

रामप्रिया !    अंगद नें अपना पैर जमा लिया है रावण की सभा में .....और चुनौती दी है ..........जो  मेरे इस पैर को उठा देगा ..........मैं कहता हूँ   श्रीराम   सीता को छोड़ कर वापस अयोध्या चले जायेंगें  ...........।

क्या !       मैं चौंक गयी थी.........मैं स्तब्ध हो गयी.........ये क्या कह दिया  उस अंगद नें ........ओह !      

आप  धीरज रखिये  रामबल्लभा !   मैं   अभी आती  हूँ .............

इतना कहकर  त्रिजटा  चली गयी थी  ।

मैं  इस समाचार  से  विचलित हो गई..........ये क्या बात हुयी ?

अंगद ऐसे  कैसे चुनौती दे सकता है .......!  

फिर  मैं  बैठ गयी थी ......और अपनी माँ से प्रार्थना करनी शुरू की मैनें .......माँ !    हे धरती माँ  !   आप उस अंगद का पैर मत छोड़ना ।

घड़ी  दो घड़ी  के बाद त्रिजटा आयी ......उसनें जो मुझे बात बताई थी  .........सुनकर मैं  ख़ुशी से उछल पड़ी   ....और मैने  स्वयं आगे बढ़कर त्रिजटा को अपनें हृदय से लगा लिया था  ।

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लंका के सुबेल पर्वत शिखर  पर बैठे  श्रीराम  आज गम्भीर चिन्तन में थे ।

सुग्रीव !,  विभीषण !  जामवन्त !   ......इस लंका को नही बचाया जा सकता ना ?         श्रीराम गम्भीर होकर बोले थे  ।

श्रीराम का हृदय व्याकुल हो उठा था ............मेरी सीता को तो मैं मिलूँगा  ऐसा विश्वास है ..........पर  सुग्रीव !   यहाँ के वीर  राक्षस मारे जायेंगें  ..... तो  उनकी  पत्नियाँ  विधवा हो जायेंगी ना ?

त्रिजटा मुझे  ये सब  शुरू से ही बता रही थी ........कि घटना कहाँ से शुरू हुयी .......।

हमारे राक्षस समाज में  पुनर्विवाह है   देव !

    सिर झुकाकर दवे स्वर से विभीषण नें कहा  था  ।

पर नही ....कितनें बच्चे अनाथ हो जायेंगे ना !     मेरे श्रीराम का हृदय आज रो उठा था  ।

और देखो !  सुग्रीव !    कितनी सुन्दर ये लंकापुरी है .......इसकी  अट्टालिकायें ..........ये सब श्मशान बन जाएगा  ?

फिर  कुछ देर बाद श्रीराम स्वयं बोले थे.........हमको एक प्रयास और करना चाहिये.........दशानन शायद समझ सके  ।  

आप क्या करना चाहते हैं  प्रभु ?     जामवन्त नें पूछा था ।

रावण को एक मौक़ा और मिलना चाहिये...........श्रीराम बोले ।

सब एक  दूसरे का मुँह तांकनें लगे ........क्या कह रहे हैं  प्रभु !

हाँ ........."अंगद को दूत बनाकर एक बार भेजो  लंका"  ....प्रभु श्रीराम का आदेशात्मक  वाक्य प्रकट हुआ  ।

अंगद आगे आये   और श्रीराम के चरणों में प्रणाम करके  अन्य आदेश की प्रतीक्षा करनें लगे  ।

अंगद !   अगर दशानन अधर्म का मार्ग छोड़ दे......तो ये राम , रावण को क्षमा कर देगा.......इतना कहते हुये  अंगद के मस्तक में अपनें कोमल कर रख दिए थे   मेरे श्री राम नें  ।

चार परिक्रमा की अंगद नें  श्रीराम की ......और   चल पड़े  रावण के  पास ..श्रीराम दूत बनकर ...........सन्धि के लिये  ।

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पर  रावण की सभा में जाते हुए एक दुर्घटना भी हो गई  ।

क्या ?   मैने त्रिजटा से पूछा  ।

रावण का एक पुत्र "अक्षमाली" खेलता हुआ मिला......वो  दौड़ा अंगद को लात मारनें........तब  अंगद नें  उसी लात को पकड़ घुमाया और  पछाड़ दिया.....वो तड़फ़ भी न सका ....और उसके प्राण पखेरु उड़ गए    ।

इस घटना से  लंका भयभीत हो उठी.....पर अंगद बढ़ते चले गए .....सभा के द्वार पर खड़े   रक्षक  नें  पूछा  भी था -  कौन हो तुम ?

तो एक ही उत्तर दिया  था  - श्रीराम दूत  ।

फिर क्या हुआ  त्रिजटा ?            मुझे  सब कुछ जानना था  ।

रावण की सभा में रक्षकों   नें भी जानें दिया  अंगद को .........वैसे भी दूतों को  कोई रोकता नही है  ..।

हे रामप्रिया !     ये चर्चा   आज लंका में बच्चों बच्चों के मुँह में है  ।

रावण नें बैठनें के लिये अंगद को आसन नही दिया ..........वैसे भी दूतों को आसन देनें का विधान नही है........दूत हो तो खड़े खड़े ही सन्देश दो .....जो देंनें आये हो   ।

पर   अंगद को  रावण का ये व्यवहार अच्छा नही लगा.......तब अंगद नें  अपनी पूँछ से  ही   अपना आसन बनाया....और उसमें बैठ गए थे ।

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वानर !  कौन है तू  ?       रावण नें  पूछा  ।

मैं   राम दूत हूँ ।......हे राक्षस !     मेरे पिता से तेरी मित्रता थी  इसलिये सोचा  कि तुझे समझा आऊँ ।    अंगद नें रावण को कहा ।

तेरे पिता कौन हैं  ?   

रावण जानबूझकर  अंगद का अपमान कर रहा था ।

वानरराज बाली ......मेरे पिता  थे .........तुम तो जानते हो शायद ,  कभी भेंट हुयी थी बाली से या नही ?   व्यंग किया   अंगद नें  ।

अच्छा !  किष्किन्धा के बाली पुत्र अंगद  तुम्ही हो  ?    अपनें कुल के  कलंकित पुत्र   तुम्ही हो ना ?     फिर  हँसता हुआ बोला ........कहाँ है तुम्हारे पिता बाली  ?      लज्जा नही आती  अंगद  तुम्हें  ?     मैने सुना है  राम नें  तेरे पिता का वध किया .......उसके बाद भी   तू  उस राम का नाम "श्री" लगा के ले रहा है......।

रावण !   मेरे पास ज्यादा समय नही है.......इसलिये मुख्य बात मेरी सुन........मूर्खता करनें से तुझे  हानि ही होगी......ये लंका , यहाँ के कितनें निरपराध  लोग  युद्ध में मारे जायेंगें......इसी करुणा के वशीभूत होकर  श्रीराम नें मुझे यहाँ भेजा है  ।   अंगद नें कहा  ।

तुम वानर  होते तो हो   स्वामी के बड़े भक्त ..........रावण हँसनें लगा ।

पर अंगद नें रावण की बातों में ज्यादा ध्यान नही दिया .......और  जो कहना था वो कहते रहे  ।

अभी भी कुछ नही बिगड़ा है ...........हे लंकेश !    अधर्म का पथ त्याग दो ......माँ सीता को लौटा दो .........शरणागतवत्सल की शरण ले लो ......

मेरी बात मानों  रावण !     इन लंका के नर नारियों को  इस युद्ध की विभीषिका में मत झोंको ।.....अंगद नें अपनें हाथ भी जोड़ लिए थे ।

देखना  तुम्हारा राज्य ,  तुम्हारा सुख  ऐश्वर्य अखण्ड बना रहेगा  ।

हे अंगद !   तुम मेरे मित्र के पुत्र हो .........इसलिये मैं कह रहा हूँ ..........किसके साथ लगे हो तुम  अंगद !     एक ऐसे तपश्वी के साथ  जो राजकुमार था  और उसके पिता नें उसे  अपनें देश से निर्वासित कर दिया ......उस  राम के साथ तुम हो  !        रावण  की कुटिलता देख  ......अंगद  चिल्लाये..........दुष्ट रावण !  तू ये सब किसके लिए कह रहा है .......उन  श्रीराम के लिये,     जिन्होनें  करुणा करके  सत्यपथ का  मार्ग तुझ जैसे  दुष्ट को दिखानें  मुझे भेजा है....अंगद क्रोध में आगये थे ।

डर गया है  राम !        ये कहते हुए   ठहाका लगाकर रावण हँसा ।

सेना में कौन है  ?     मैं सबको जानता हूँ .........वो सुग्रीव ?     वो  तो डरपोक है अंगद  !    तेरे पिता बाली से डरकर वो किष्किन्धा  नही जाता था .....और रही  जामवन्त की बात,   तो वो बुढा हो गया है  अब  ।

हनुमान का नाम सुना है  रावण !   अंगद  व्यंग करनें लगे थे ।

रावण का चेहरा उतर गया  ये नाम सुनते ही  ।

दशानन !     स्वयं ही विचार करो ............एक वानर आकर तुम्हारी लंका को जला गया ..........ऐसे वानर तो कई हैं  हमारे प्रभु श्रीराम की सेना में  ...........दशकन्धर !   एक वानर  नें त्राहि त्राहि मचा दी  तो विचार कर   अगर  लाखों वानर  ...................

ये ज्यादा बोलता है   मारो इसे.......रावण  बीच में ही चिल्ला उठा  ।

अंगद को क्रोध आया........और क्रोध में भरकर   अपनी मुट्ठी भींचके जैसे ही पृथ्वी में मारा........पृथ्वी हिल गयी........रावण का सिंहासन हिल गया.......उसके  मुकुट गिर गए.........।

हे रामबल्लभा !         उसी समय  रावण का मुकुट  लेकर  अंगद नें  बाहर फेंक दिया  था   .......  त्रिजटा नें मुझे बताया था  ।

रावण !        

चिल्लाया अंगद   ।

और अपना दाहिना पैर  धरती पर पटका ............"तेरी लंका का कोई भी शूर  अगर मेरे इस पैर को उठा देगा .........तो मैं उनकी तरफ से कहता हूँ .......श्रीराम   माँ सीता को छोड़ कर वापस चले जायेंगे"

फिर क्या हुआ   त्रिजटे !      बोल   आगे क्या हुआ  ?

मैने त्रिजटा से पूछा  ।

हे रामबल्लभा !       ऐसा सुनकर  रावण आवेश में आगया ......

"इस वानर का  पैर पकड़कर  समुद्र में फेंक दो "

अंगद हँसे ........तू स्वयं क्यों नही उठता  रावण !    तू भी अपनी शक्ति लगा ले ..........................।

प्रहस्त !     रावण नें सबसे पहले प्रहस्त  को ही  उठाया ...........।

पर  पसीनें से लथपथ  प्रहस्त वापस बैठ गया  ।

ऐसे कई राक्षस आगे आये .......पर  थक हार कर बैठ गए वापस ।

रामप्रिया !   मैं देख रही थी ........मेघनाद भी उठा था .......हम सबको लग रहा था  कि  ये तो उठा ही देगा .......पर  नही ।

त्रिजटा मुझ से बोली....रामप्रिया !  मुझे तो ऐसा लग रहा था कि  पृथ्वी ही  अंगद के पैर को पकड़े हुए थी...वही नही छोड़ रही थी अंगद के पैर ।
  

मैने मन ही मन  कहा ........"माँ,  अपनी बेटी की लाज कैसे जानें देती" ।

त्रिजटा मुझे बताती रही............अंतिम में रावण आया  ........

फिर ?   फिर क्या हुआ  त्रिजटा ?          

रावण जैसे ही  झुका  अंगद के  पैरों में,     पैर उठानें के लिये ............

तभी अंगद नें अपनें पैर हटा लिये .........और  हँसता हुआ बोला ....

रावण !  मेरे पैर पकड़नें से क्या होगा .............पकड़ना ही है  तो श्रीराम के पकड़ ..........कल्याण हो जाएगा तेरा ..............

इतना कहते हुये   अंगद जोर से जयकारा लगानें  लगा........

असीम पराक्रम श्रीराम की ......जय 
असह्य तेजा  लक्ष्मण लाल की ......जय 

इतना कहकर  अंगद वहाँ से  उछलते कूदते हुए  चल दिए ......किसी की हिम्मत नही हुयी  रामप्रिया !  कि कोई अंगद को रोक भी देता ।

इतना सुनते ही मैं  ख़ुशी से झूम उठी थी............मैने अपना माथा पृथ्वी में रख दिया था .............ये क्या है  रामप्रिया !     मुस्कुराते हुये  त्रिजटा नें मुझ से पूछा ................

कुछ नही  त्रिजटा !      मैने त्रिजटा को अपनें हृदय से लगा लिया था  ।

शेष चरित्र कल ....

Harisharan

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