आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 119 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
रावण आकाश मार्ग से लंका जा चुका था ...........सेतु जो मेरे श्रीराम नें बनवाई थी .......उसमें हमारा रथ दौड़ रहा था ........त्रिजटा मेरे साथ थी .........मैं पीछे की ओर ही देख रही थी .........मैं अपनें श्रीरघुनाथ जी को ही देख रही थी ..................तभी -
त्रिजटा देख हनुमान ! मेरा वत्स हनुमान !.............आकाश मार्ग से हनुमान शिवलिंग लेकर आगये थे ।
त्रिजटा ! सुन ना ! रथ को यहीं खड़ा कर .............मुझे हनुमान और मेरे श्रीराम का सम्वाद सुनना है ..........बस दो घड़ी के लिये !
त्रिजटा नें रथ रुकवाया ।
हम दोनों ही देख रहे थे ..........हनुमान आकाश मार्ग से उतरे ........।
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प्रभु ! मुझे थोडा विलम्ब हो गया .......भगवान साम्बसदाशिव प्रकट नही हो रहे थे.......मैंने बहुत स्तुति की........तब जाकर भगवान शिव प्रकटे .......फिर उन्होंने मुझे ये "शिवलिंग्विग्रह" दिया ।
इतना कहकर हनुमान नें प्रभु के सामनें एक पवित्र शिला में शिवलिंग को रख दिया था .............।
पर हनुमान ! यहाँ तो शिव की स्थापना हो गयी ............दर्शन करो रामेश्वर भगवान के.........मेरे श्रीराम सहज भाव से बोले ।
पर ..........हनुमान को क्रोध आगया था ।
पर........ नाथ ! मुझे आपनें आज्ञा दी थी ...........तो मेरी प्रतीक्षा कर लेते ना ! हनुमान नें अपनें दाँत भींचते हुये कहा ।
मुस्कुराये मेरे श्रीराम..........प्रतिष्ठापन के आचार्य जो कहेंगें वही तो यजमान को करना होगा ना ?
कौन था इस शिवलिंग की प्रतिष्ठा करनें वाला आचार्य ?
हनुमान अभी भी क्रोध में ही थे ..............।
रावण ................श्रीराम मुस्कुराते हुए बोले ।
रावण ? हनुमान का क्रोध और चरम पर पहुँच गया था ।
क्या कहा उसनें ? हनुमान नें मेरे श्रीराम से पूछा ।
उसनें हमको कहा ........शुभ मुहूर्त निकला जा रहा है ............इसलिये हम लोग प्रतीक्षा नही कर सकते ..................सीता को आज्ञा दी थी कि तुम समुद्र की बालुका से शिवलिंग बनाओ .................
माँ सीता भी आयी थीं.......? हनुमान इस बात से भी चौंके थे ।
पर हनुमान नें कहना जारी रखा......मुझ से चिढ़ता है रावण इसलिये जान बूझकर उसनें मेरे द्वारा लाये जानें वाले शिव लिंग की स्थापना नही होनें दी ।
प्रभु ! मैं कुछ नही जानता ..........रावण द्वारा स्थापित इस शिवलिंग को हटाइये .........और मेरे द्वारा लाये गए ................
मेरे श्रीराम हँसे ................मैं भी दूर खड़ी हँस रही थी ............
"हनुमान को अहंकार हो गया".......मेरे श्रीराम समझ गए थे ।
ठीक है हटा दो इस शिवलिंग को.....और तुम अपनें द्वारा लाये गए .....
बात पूरी कह भी नही पाये थे श्रीराम कि हनुमान आगे बढ़े .............
पहले तो बाएं हाथ से ही "रामेश्वर शिवलिंग" को उखाड़ना चाहा हनुमान नें ......पर दूध, दही, शहद, घी इत्यादि से स्निग्ध शिवलिंग खिसका तक नही........उपेक्षा पूर्वक फिर हनुमान नें दोनों हाथों से शक्ति लगाई ......पर रामेश्वर को उखाड़ना तो दूर , वो हिला भी नही ।
अपनी पूँछ से खींचना चाहा ...........पूँछ की सारी शक्ति लग गयी ......पर कुछ नही हुआ रामेश्वर का ।
उठकर खड़े हुये हनुमान और सम्पूर्ण शरीर की शक्ति लगाकर जैसे ही उखाड़नें लगे.................पसीनें पसीनें हो गए .............
गिर गए......इतना ही नही मैनें देखा....हनुमान मूर्छित ही हो गए थे ।
तब मेरे श्रीराम दौड़े .........हनुमान ! जल का छींटा दिया हनुमान के मुखमण्डल पर ............तब जाकर कुछ होश आया था ।
मुस्कुरा रहे थे मेरे श्रीराम..........हनुमान ! तुम्हे इतना तो सोचना चाहिये कि जगत की सृष्टि, पालन और संहार करनें वाली सीता नें अपनें करकमलों से इन रामेश्वर भगवान की स्थापना की है ......तुम कैसे उन्हें उखाड़ पाओगे !
सिर झुका लिया था हनुमान नें.........बहुत संकोच हो रहा था अब हनुमान को ........जिनकी शक्ति से मैं आज इतना शक्तिशाली हूँ ......मैं उन्हीं के सामनें अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रहा था !
हनुमान का सारा गर्व चूर चूर हो गया था .......हनुमान को पश्चाताप होनें लगा .......तब मेरे श्रीराम नें हनुमान के सिर में अपनें कोमल कर रख दिए ...............
वत्स ! जो तुम कैलाश से शिवलिंग लाये हो ......उन्हें भी पास में ही स्थापित कर दो .......और इनका नाम होगा "हनुमदीश्वर महादेव" ।
और हाँ हनुमान ! तुम्हारे इन हनुमदीश्वर के दर्शन किये बगैर कोई मेरे रामेश्वर के दर्शन करेगा तो उसे फल नही मिलेगा ...........पहले तुम्हारे दर्शन करें ........फिर मेरे रामेश्वर के ।
चरणों में साष्टांग लेट गए थे हनुमान, मेरे श्रीराम के ।
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अब चलिये रामप्रिया ! बिलम्ब हो रहा है .........
त्रिजटा मुझ से बोल रही थी ।
बस कुछ क्षण और..........मैने त्रिजटा से कहा ।
मेरे श्रीराम सेतु पर आकर खड़े हो गए....चारों ओर करोड़ों वानर फैले हुए थे.....तभी सेतु के निर्माता "नल नील" आगे आये और मेरे श्रीराम को प्रणाम करके समस्त वानर सेना को सम्बोधित करनें लगे थे -
ये हैं हमारे लीलामय प्रभु श्रीराम ! नल नील नें प्रभु श्रीराम को दिखाते हुये कहना शुरू किया ..............
इन्होनें हमें सुयश देंनें के लिये ही सेतु का निर्माण कराया .......नही तो कोई आवश्यकता नही थी सेतु के निर्माण की ............
मेरी बात पर विश्वास न हो तो स्वयं देखिये -
जैसे ही नल नील नें सागर की ओर सेना को दिखाया ..........
मैने भी देखा ...............ओह !
समुद्र में जहाँ जहाँ देखते ......वहाँ जल के जीव सब बाहर आगये थे ...
और सेतु तो इन्होनें दूसरा ही बना दिया था .............
समुद्र में एक दूसरे पर सटकर के ऐसे लगे हुए थे वे सब जीव..... जैसे - स्थिर पत्थर के समान....सागर का जल ही दिखाई नही दे रहा था ।
मैने त्रिजटा को कहा ..............देख ! त्रिजटा ............
वानर चल पड़े थे लंका की ओर .......मेरे श्रीराम और लक्ष्मण हनुमान के कन्धे पर बड़ी प्रार्थना के बाद बैठे थे ।
वानर सेतु में पैर कम ही रखते .....और समुद्री जीवों के ऊपर ही पैर रखकर उछलते हुए चलते.........कोई कोई वानर तो पैर रखते हुए जीवों की गिनती करते हुए चल रहे थे........जलचर स्थिर पानी में पड़े थे ..........पर हाँ इन जलचरों को मैने देखा ...... इनकी दृष्टि केवल मेरे श्रीराम पर ही थी ........ये सिर्फ मेरे श्रीराम को ही देख रहे थे ............
"जय श्रीराम" के उदघोष से आकाश गुंजित हो उठा था ।
मैने आर्यपुत्र श्रीराम को प्रणाम किया .............
और त्रिजटा से बोली मैं ..........."अब चलो लंका"
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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