वैदेही की आत्मकथा - भाग 118

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 118 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही !

मेरे सामनें मेरे राजीव नयन थे.....मैं उन्हें देख रही थी - अपलक ।

वो सागर का किनारा.....उनके भी नेत्र भर आये थे   जब मुझे उन्होंने  देखा.....मेरे साथ त्रिजटा थी.....रावण पहले ही  पहुँच गया था   सागर किनारे.....मैं  अपनें श्रीराम के दाहिनी और बैठी.....ये बात भी  रावण ही बोला था  -  कि कर्मकाण्ड अनुष्ठानादि में  पत्नी,  पति के दाहिनी और बैठती है.....हाँ   मैं  वहाँ गयी ही इसलिये थी कि   मेरे श्रीराम द्वारा   "भगवान रामेश्वर"  की  स्थापना की जानी थी  ।

रावण पुरोहित था   और मेरे श्रीराम यजमान थे ...............

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मुझे  पूरी बात बतानें वाली  त्रिजटा ही तो थी .............उसनें ही मुझे बताया था कि  समुद्र में पुल बाँध लिया है ........मेरे श्रीराम नें  ।

फिर इसके बाद   2 दिन ही बीते होंगें  .............मेरे पास बैठी थी त्रिजटा अशोकवाटिका में ........रावण की एक दासी आयी  और उसे  बुलाकर ले गई ........मेरे मन में अज्ञात भय  नें प्रवेश किया था.........क्यों त्रिजटा को बुलाया  रावण नें ....?    क्या बात हो गयी ऐसी  ?  

पर   4 घड़ी के भीतर त्रिजटा मेरे पास आयी थी ............उसनें मुझे इतना ही कहा .........रावण का रथ आया है.....आप चलिये  ।

पर कहाँ ?   क्यों ?       मैं  नही जाऊँगी  उस दुष्ट रावण के साथ  ।

तब मुझे  जो विस्तार से बातें बताई त्रिजटा नें,    उससे मैं चकित थी ।

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सब अच्छा हुआ......सागर में सेतु बन्धन भी हो गया .........पर  मेरी इच्छा है  वानरराज सुग्रीव !     कि लंका विजय के लिये  "शिवलिंग" के यहाँ स्थापना की जाए  !    मेरे श्रीराम नें  सुग्रीव से कहा था ।

आप आज्ञा दें   प्रभु ! 

   सेवा के लिए  सदैव तत्पर  हनुमान आगे आये  ।

सुग्रीव हाथ जोड़े खड़े हैं........आप की इच्छा में ही हमारी इच्छा है ।

हनुमान !    शिव लिंग विग्रह  कहाँ से लाई जाए  ?        सुग्रीव का तो मात्र सम्मान करते हैं मेरे श्रीराम ........करनें योग्य तो   हनुमान ही हैं  ।

आप आज्ञा करें  ?      हनुमान नें सिर झुकाकर कहा   ।

तुम कैलाश  जाओ .........और वहाँ से    भगवान साम्बशिव से  "शिव लिंग विग्रह"  मांग कर लाओ । .........मेरे श्रीराम की आज्ञा  को मान कर हनुमान  चल पड़े  थे कैलाश की ओर  ।

पर   शिवलिंग की स्थापना कौन करेगा ?      पुरोहित कौन होगा ?  

मेरे श्रीराम  सोच में पड़ गए थे  ।

मतंग ऋषि आश्रम से आगे   तो कोई ऋषि मुनि हैं नही ?   

और  उधर के जितनें ऋषि हैं,   सब  वैष्णव हैं.....और  नियम है  शिवलिंग की स्थापना  वही करवा  सकता है.....जो नैष्ठिक शैव हो ।

यानि   पूर्णरूप से शिवभक्त हो आचार्य ।   पर ऐसा है कौन  ? 

कुछ ही क्षणों में  मेरे श्रीराम के मुख मण्डल में प्रसन्नता व्याप गयी थी ।

रावण !   

   प्रभु मुस्कुराये  ।

सब चौंक गए थे   जामवन्त, सुग्रीव, नल नील  सब  स्तब्ध थे  ......ये क्या कह रहे हैं   श्रीराम ........रावण को पुरोहित बनाएंगे ?  

क्यों  ?     क्या हुआ  तो  ........वह  ऋषि पुलत्स्य का पौत्र है,  ऋषि विश्वश्रवा का पुत्र है  .........विशुद्ध ब्राह्मण है .....और  नैष्ठिक शैव है   .........

पौरोहित कृत्य   के लिए  रावण जैसा विद्वान  कौन होगा  !  

पर  उसनें हमारे साथ यहाँ आकर कपट किया तो ?  

सुग्रीव नें कहा   ।

नही ..............आचार्य की पदवी लेनें के बाद   वो विद्वान रावण   अपनें यजमान से कपटाचार नही करेगा.......श्रीराम नें  स्पष्ट कहा ।

आप की जो आज्ञा !   

  सबको मेरे श्रीराम की बात  माननी  ही थी   ।

तो  दूत भेजा जाए ............पर दूत बनके कौन जायेगा लंका ?

स्वयं ही समाधान भी किया  मेरे श्रीराम नें ......जामवन्त  ।

हे रामप्रिया !    जब जामवन्त दूत बनकर आये थे    उसी समय रावण नें मुझे बुलाया था ........जब मैं आपके पास यहाँ  बैठी थी  ।

त्रिजटा  नें मुझे बताया   ।

ब्रह्मा के पुत्र हैं जामवन्त ......इसलिये  रावण सम्मान करता है  उनका ।

कैसे आये  रीछ श्रेष्ठ !     रावण नें आदर किया जामवन्त का ।

शिवलिंग की स्थापना कर रहे हैं      प्रभु श्रीराम ........और  आपको  उसका आचार्यत्व करना है ...........जामवन्त नें रावण से कहा ।

पर ये शिवलिंग की स्थापना   लंका विजय के लिये ?     रावण नें प्रश्न किया  ।

हाँ लंकेश !     जामवन्त बोले  ।

आप  का अपमान है ये ............लंकेश  !    उस राम की ये हिम्मत कैसे हुयी   कि .........रावण का मन्त्री प्रहस्त  क्रोध में बोला ।

तुम मूर्ख हो ........चुप रहो ............पहली बार अपनें मन्त्री को डाँटा रावण नें ..........।

रावण के मुख मण्डल में प्रसन्नता थी ..........कि मुझे किसी नें तो ब्राह्मण समझकर आदर किया ...........और मुझे विद्वान् जानकर आचार्य की पदवी दी.......रावण  गदगद् हो गया था ।

कह दो मेरे  यजमान राम से    पण्डित रावण  अवश्य आएगा  ।

रावण नें   अपना निर्णय दिया ....और जामवन्त को विदा कर दिया था ।

इतना ही नही ......जामवन्त को ये भी कहकर भेजा.....शिवलिंग की स्थापना में जो जो  सामग्रियाँ चाहियें  वो सब मैं ही व्यवस्था कर दूँगा ।

रामप्रिया !   मुझ से  कहा रावण ने ...........मुहूर्त तो   आज का ही अच्छा है ........और  मात्र दो घड़ी का  है  विशेष मुहूर्त   ।

जाओ त्रिजटा !      सीता को रथ में बिठाकर ले आओ  ।

पर क्यों ?     

क्या तुम्हे पता नही ..........यजमान  अगर गृहस्थ है   तो कर्मकाण्ड में उसकी अर्धांगिनी उसके  दाहिनी भाग में रहनी ही चाहिये  ।

ताऊ जी !  तो क्या आप  सीता को  लेकर  राम के पास जाएंगे  ? 

हाँ ............जल्दी करो त्रिजटा !   मुहूर्त निकला जा रहा है  ।

रावण की बात मानकर त्रिजटा मेरे पास आयी थी  ।

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मैने जब रथ में बैठनें से मना किया .....तब  रावण ही आगया था वहाँ ।

मैं  तुम्हारा आचार्य  हूँ .........इस समय पण्डित हूँ ..........क्या  अपनें पण्डित    को प्रणाम नही करोगी  ? 

मैने  धरती में  अपना सिर रखकर  प्रणाम किया  ।

सौभाग्यवती भवः ..........बड़े प्रेम से आशीर्वाद दिया था रावण नें ।

मैं जा रहा हूँ .......आकाश मार्ग से ........त्रिजटा !   तुम सीता को लेकर  राम के पास पहुँचों .........और हाँ   ये याद रहे  सीता !   वहाँ भी तुम मेरे ही बन्धन में   हो ............।

रावण  विचित्र है ............अद्भुत भी  है  ।

मैं जब वहाँ पहुंची .............रावण पहले ही उपस्थित था ।

सीता !   

    मेरे राजीवनयन के नेत्र  प्रेमाश्रु से  नम हो गए    ।

हाँ  राम !    आचार्य हूँ तुम्हारा ........तो   नियम का पालन तो मुझे भी करना है .............सीता तुम्हारी पत्नी है ............इस प्रतिष्ठापन के कार्य में  वो नही होगी  तो  ये कार्य तुम्हारा सफल कैसे होगा ? 

सीता  !  तुम  दाहिनी और बैठो  राम के ..........

रावण नें कहा .....और मैं  दाहिनी और ही  बैठी    ।

गणेश स्थापना,   अन्य देवी देवताओं का आव्हान,  सारी विधि  शुद्धता के साथ रावण नें पूर्ण की ...........

राम ! शिवलिंग कहाँ है ? 

हे आचार्य !   हनुमान लेनें गए है कैलाश !.......मेरे श्रीराम नें कहा ।

नही ........मुहूर्त निकला जा रहा है .....................

सीता !   तुम   सागर के रेत से शिव लिंग की स्थापना करो ...........

रावण नें मुझे आज्ञा दी .........आचार्य की बात  यजमान को माननी ही चाहिये .....मै  तुरन्त  समुद्र की बालुका से    शिव लिंग बनानें लगी ।

रावण  वैदिक मन्त्र उच्चारण करता रहा .......................

हो गया पूर्ण ...........  रामेश्वर भगवान की स्थापना हो गयी थी  ।

अब ?          रावण की ओर देखते हुये  श्रीराम नें पूछा ।

"मुझे प्रणाम करो तुम दोनों" 

.........विधि  सिखाई रावण नें .........हम दोनों नें  आचार्य रावण  के चरणों में प्रणाम किया   ।

विजयी भवः .....आयुष्मान् भवः ।

......चौंका दिया रावण नें ये आशीर्वाद देकर .........।

अब दक्षिणा दो !       रावण बोला  ।

सारे  वानर समाज में खलबली मच गयी  ..........अब ये क्या मांगेगा ।

माँगिये  क्या  चाहिये ?    कहिये  आचार्य रावण  !   क्या  चाहिए दक्षिणा ?      वैसे मेरे पास   धन नही है  अभी  ।

सुवर्ण की लंका वाले रावण को   तुम्हारा धन नही चाहिये राम ! 

फिर ?    मेरे श्रीराम नें पूछा ।

बस इतना दे दो ........."जब  मैं युद्ध  भूमि में देह त्यागूँ , तब तुम मेरे सन्मुख रहो "         

ओह !  मैं देखनें लगी रावण को ........ये क्या दक्षिणा माँग  रहा है !

मेरे श्रीराम  के नेत्र सजल हो गए ..........सारे वानर लोग रो रहे थे  क्या सुन्दर दक्षिणा मांगी है ..............

दिया   आचार्य !   आपको यही दक्षिणा दिया  । 

रावण प्रसन्न हुआ ........मुझे रथ में बिठाया  त्रिजटा नें ..........और  वापस   मैं  लंका ।

पर  कैलाश  से   पवनपुत्र शिवलिंग लेकर आरहे थे  *

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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