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वैदेही की आत्मकथा - भाग 72

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 72 )

एक बार चुनि कुसुम सुहाये .....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

भरत भैया चले गए ........उनके साथ  माताएँ, गुरुजन प्रजा  सब गए ।

मेरे श्रीराम की पादुका को भरत भैया नें  पहले तो हाथी पर सिंहासन जो था उसपर रखा .......पर   श्रीराम नें  भरत भैया को कहा ......भरत !  अब लौटते समय पैदल मत जाओ ......इसी  हाथी में बैठ कर जाओ .......भाई जिद्द नही करते ..........अब तो मैं चौदह वर्ष बाद आही रहा हूँ ना !       मैं प्रसन्न हूँ .....तो तुम भी प्रसन्न होकर जाओ न !

अगर तुम पैदल गए  तो इस राम का हृदय दूखेगा भरत ।

भरत !   मान लो  अपनें ज्येष्ठ भ्राता की बात........और ज्येष्ठ भ्राता पिता के समान ही होते हैं .......गुरु वशिष्ठ जी नें  कहा ।

समान नही........अब तो यही मेरे पिता हैं .....स्वामी हैं......पूज्य हैं ....प्रेष्ठ हैं ......प्राण हैं.........सब कुछ हैं यही अब मेरे  ।

भरत भैया की ये प्रेम से सिक्त वाणी थी   ।

भरत भैया नें  मेरे श्रीराम के चरणों में अपना मस्तक रखकर... .."आप जिसमें प्रसन्न हों  नाथ ! " .......फिर हाथी में जाकर बैठ गए थे ........पर   पादुका को अपनें मस्तक पर रखा था  ।

सब गए.............मेरे पिता जी और माता जी ..........कुछ मिथिला के लोग भी थे .........कुछ सैनिक ........सेवक ........सब  गए .....।

मन्दाकिनी नदी  में उन दिनों     जल दुगुना बह रहा था ......हमारे सबके आँसू भी तो थे मन्दाकिनी में   ।

कई वर्षों तक  हर शाम को .......कामदगिरि में बैठकर  आँसू बहाते थे मेरे श्रीराम .......भरत भैया को याद करके ।

मै भी  चुपके चुपके  रो ही लेती थी........लक्ष्मण भैया   कार्य में व्यस्त तो रहते .....पर  उनको भी   ये कहते हुए सुना था एक दिन.......कि  भरत भैया  सुना है  अयोध्या में न रह कर......नन्दि ग्राम में रहते हैं  ।

किसनें कहा  तुमसे लक्ष्मण ?   

वो निषाद राज जी के ही कोई  परिचय के हैं ........नन्दी ग्राम जाकर मिल कर भी आये हैं ....भरत भैया से  ।

आपकी पादुका राजसिंहासन में   विराजमान करके  राज्य को चला रहे हैं भरत भैया ........लक्ष्मण  नें उस दिन   श्रीराम को अयोध्या के बारे में सब बता दिया था .....उनको सूचना मिलती रहती थी भीलों के द्वारा । 

ओह ! बेचारी माण्डवी !............मुझे कष्ट होता था   ।

भोजन भी नही करते.........अन्न का परित्याग कर दिया है भरत भैया नें .......लक्ष्मण  सारी बातें बता रहे थे  ।

ये सब सुनकर  रोनें  लग गए थे मेरे श्रीराम........साथ साथ हम भी ।

कई वर्षों तक  चला था ये सब   .............

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चित्रकूट में  मेरे प्राण ,  मेरे प्रियतम  श्रीराम .................

लक्ष्मण कहीं गए थे.......दोपहर का ही समय था...........ग्रीष्म ऋतू ...।

पता नही  मेरे प्राण प्रियतम का प्रेम उस दिन  उमड़ा ...........

मैने देखा .............मेरे श्रीराम  दूर   फूलों से  भरे बाग़ में .......वल्कल में फूलों को चुनकर रख रहे थे ...........बहुत सारी फूलें  इकट्ठी कर ली थीं मेरे "प्राण" नें   ।

मैं गयी उधर ही................आप क्या कर  रहे हैं वहाँ ? 

यही बोलती हुयी गयी थी मै  ।

पर जैसे ही मैं  पास में गयी................मेरे प्राण नें   दूर से ही वक्कल में रखे सारे फूल मेरे ऊपर  डाल दिए .........मैं महक गयी थी ।

नही नही .....फूलों के कारण नही.....मेरे  "प्राण" के  प्रेम के कारण ....।

मै उस  दिन   फूलों का भार भी न सह सकी.............और गिर गयी ।

मेरे पास आकर   मुस्कुराये ..............फिर  कमल के कुछ पराग मेरे ऊपर  डाल दिए...............सीते ! देखो  भौंरा ...............मैनें  अपना मुँह  छुपा लिया  डर के   ।

हँसते हुए  बैठ गए थे  मेरे श्रीराम, मेरे पास.....मैं  सलज्ज हो गयी थी  ।

तुम्हारे इस रूप को देखकर  राम को जो सुख मिल रहा है ......राम के नेत्रों को जो सुख मिल रहा है ......हे  प्रिये सीते ! मैं उसके बारे में बोल नही सकता.........तुम  स्वर्गिक सौंदर्य को भी तुच्छ बना रही हो ।

मेरे  केशों की लट को  छू रहे थे मेरे प्राण ...................

मैं तनिक विश्राम कर लूँ ........?    

एकाएक पूछ बैठे मुझ से  ।

हाँ हाँ ..........नाथ !   मै उठनें को हुयी  कि  मुझ से बोले   .....तुम  ऐसी ही रहो .........फिर मेरी उरु में   सिर रख कर लेट गए ।

पर मैं उठ गयी .....................वे सोये रहे ..........कभी मुझे देखते थे ......मै उनकी जटाओं को  सुलझानें का प्रयास करती .....वो  फिर उठकर मुझे आलिंगन करते ........मैं लज्जा से भर जाती थी ...........।

तभी काक ........हाँ कौआ ...............

आप इंद्र के पुत्र   जयन्त से तो  परिचित हैं ना ? 

वही कौआ बनकर आगया था   ।

शेष  चरित्र कल ..........

Harisharan

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