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वैदेही की आत्मकथा - भाग 71

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 71 )

सादर भरत शीश धर लेहीं.....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

भरत !         मेरे श्रीराम  चिल्लाये थे  ।

******

ये अंतिम सभा थी   चित्रकूट की ...........सुबह से ही  अयोध्या और  मिथिला का समाज  उस  कामदगिरि के पास एकत्रित हुआ था ।

और इनसब समाज  का कहना था कि   आज ही निर्णय हो जाए ......।

सभा जुटी ...........तो  आज सबसे पहले   भरत भैया  नें ही कहना शुरू किया  था  ।

मै   अबोध बालक के समान हूँ ...............मैं विवेक सम्पन्न कहाँ हूँ .....माता पिता के सामनें बालक हठ करे   तो गलत नही है नाथ !

क्यों की ये उसका अधिकार है  ।

इतना कहकर   भरत भैया नें   अपनी बात कहनी प्रारम्भ की ............

आप चलिये  अयोध्या   अगर नही चल सकते  तो लक्ष्मण की तरह मुझे भी अपनें  साथ लें लें .................।

और अगर नही ........तो भरत यहीं अपनें प्राण त्याग रहा हैं   ।

सुमन्त्र जी !         चिल्लाये भरत भैया ......उनका मुखमण्डल    लाल हो गया था .........................कुशासन  बिछा दो .......और  उसमें अग्नि लगा  दो .......भरत यहीं अपना  देह त्यागता है   ।

इतना कहकर भरत भैया  नें    सुमन्त्र जी की और देखा ...........पर  सिर झुका कर खड़े रहे सुमन्त्र जी  ।

तब भरत भैया नें    इधर उधर  की कुशाएं   इकट्ठी करीं...............और उसमें अग्नि लगानें   लगे  ।

भरत !    मेरे श्रीराम  चिल्लाये थे   ।

**********

भरत ! तुम जैसे भाई  से मुझे ऐसी आशा नही थी ।

ये क्या कर रहे हो ?    

देह त्याग रहे हो  ! 

    तुम क्षत्रिय होकर  ऐसे निकृष्ट कर्म कर कैसे सकते हो !

मेरे श्रीराम अत्यन्त  रोष में थे ....................

तुम क्या कह रहे थे ?    

तेज़   चार कदम चले  मेरे श्रीराम और भरत भैया के वक्ष में हाथ मारते हुये बोले ..............तुम क्या कह रहे थे !      तुम बनोगे मेरे प्रतिनिधि ?     अरे !  राम मर गया हो  तब तुम मेरे प्रतिनिधि बनोगे ना ?

मेरे बदले तुम रहोगे वन में ?      कैसी बचपनें की बातें करते हो !  

फिर  मेरे श्रीराम  नें भरत भैया का हाथ पकड़ा ..........और बोले मुझे स्पर्श करके  बोलो  भरत !  की आज के बाद तुम ये सब नही करोगे !

नही  तो   ये राम   .............मेरे श्रीराम इधर उधर देखनें लगे थे  ।

काँप गए   भरत भैया  मेरे श्रीराम को इस तरह देख कर ................

नाथ !   मैं आपको पहले ही बोल चुका हूँ .................मैं आपका अबोध बालक  हूँ ...........क्षमा  करें  इस  अपनें बालक को ............।

इतना कहकर  सच में ही  बच्चे की तरह  भरत भैया  श्रीराम के चरणों से लिपट गए थे ।

मुझे कोई पद नही चाहिये .............मुझे केवल , केवल इन्हीं   "पद"  की चाहना है ..........ये कहते हुये     भरत भैया प्रभु के  पदरज को अपनें माथे से लगानें लगे थे  ।

मेरे भाई !   मेरे भरत !        श्रीराम   नें झुककर   भरत को उठाया ।

नही ..................अब मै बोलूंगा .............आप नही  चाहते कि   आप  को अयोध्या हम लोग लेकर चलें ...........आप चाहते हैं  कि   आप वन में रहें  ...........है ना  ?

भरत भैया नें पूछा था ............सबकी दृष्टि  श्रीराम पर  थी ।

भरत !  हमारे पिता सत्यवादी थे ...............तो उनके वचनों को पूरा करना हमारा कर्तव्य है ...............तुम  जाओ ...........तुम अच्छे राजा साबित होओगे ................मेरा  विश्वास है .........मैं  तुम्हारी भाभी को भी कहता रहता हूँ ..........मेरा भरत बहुत अच्छा राजा बनेगा ।

मै  कुछ कहना चाहता हूँ ...............गम्भीर हो गए थे भरत भैया ।

हाँ  हाँ कहो ........क्या कहना है  भरत ?

प्रेम में कोई जिद्द नही ............प्रिय की इच्छा में ही अपनी इच्छा ......यही प्रेम का संविधान कहता है .............है ना ?

मेरे श्रीराम नें सजल नयनों से भरत  भैया की और देखा था.........

ठीक है ...........ये कहते हुये भरत भैया  भागे  अपनें शिविर की और .......सम्पूर्ण समाज देख रहा था ..............आगे क्या होगा !

भरत भैया   दौड़कर गए  और  दौड़कर ही आये ........पर  इनके हाथों में क्या है ये  ? 

भरत भैया ,  राज्याभिषेक की सामग्रियों में  जो  स्वर्ण और हीरों से खचित  पादुका  थी .....उसको लेकर  आ गए थे  ।

नाथ !    मैं लौट जाऊँगा ..............बस  आप  इन पादुका   में अपनें चरण रख दीजिये .....................

चौदह वर्ष तक  आपकी पादुका  अयोध्या का राज्य चलाएगी  ।

ये क्या पागलपन है भरत !     मेरे श्रीराम  बोले  ।

क्यों नाथ !     आपकी कृपा हो  तो  तृण भी बज्र हो सकता है ............फिर पादुका तो  .....................

आपकी हर वस्तु चिन्मय है ...................फिर क्या हुआ  ?

आपको इस बालक की ये जिद्द तो माननी पड़ेगी ..............चरण पकड़ लिये  भरत भैया नें  ।

मेरे श्रीराम    उन्हें मैं  कभी कभी  "संकोची नाथ"  कहती थी  ।

आज ये  संकोच कर रहे थे ...........

गुरु वशिष्ठ जी आगे आये ................और उनके साथ मेरे पिता  विदेहराज जनक जी भी    ।

राम !    भरत की बात मान लो ...........अब जिद्द तुम कर रहे हो  ।

ये बात  लगभग  मेरे पिता जी और गुरु वशिष्ठ जी  दोनों नें ही कही थी ।

बिना कुछ बोले   श्रीराम नें  अपनें चरण,  पादुका में रख दिए .....फिर  तुरन्त हटा लिये ...........

भरत भैया   आनन्दित होगये थे ...........श्रीराजाराम की ....जय !

श्रीअयोध्या नाथ  की जय.........जोर जोर से बोल रहे थे ।

नाथ !     अब एक बात  और सुन लो ........चौदह वर्ष से   एक दिन भी ज्यादा समय आपनें लगाया  तो ये भरत आपको जीवित नही मिलेगा ।

नही भरत !     मेरे श्रीराम रो पड़े थे   ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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