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वैदेही की आत्मकथा - भाग 65

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 65 )

सुनिय सुधा देखिय गरल....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

कुमार !    भरत भैया  माण्डवी से मिलकर तो आये ना ?

पता नही क्यों  मुझे माण्डवी की ज्यादा चिन्ता लग रही थी ।

अश्रुपूरित नयनों से  मेरी ओर देखा  कुमार शत्रुघ्न नें .............फिर बोले ......हाँ भाभी माँ !   मेरे कहनें से ही  माण्डवी भाभी के  पास गए थे .....उस समय मैं भी था भरत भैया के साथ  ।

कैसी स्थिति थी  मेरी बहन माण्डवी की  ?   

भाभी माँ !    भरत भैया  गए ..........माण्डवी भाभी नें  भरत भैया के पाँव छूए ..........माण्डवी !     अयोध्या में ये कैसा  अनर्थ हो गया. .....तुम्हे तो सब  विदित ही है ना  !  

माण्डवी भाभी नें  अपना सिर "हाँ"  में हिलाया ..........और    आसन में बैठनें का आग्रह किया.........नही .........मैं बैठनें नही आया हूँ ।

माण्डवी !       पता नही आर्य श्रीराम मेरी बात मानेंगें या नही........मै तो चाहता हूँ   कि   मेरे  श्रीरघुराज  लौट आएं.......और अपनी  सत्ता स्वयं सम्भालें .......माण्डवी !   अगर ऐसा नही हुआ.......तो हो सकता है  मैं   वहीँ   अपनें देह को जला कर भस्म कर दूँ  ।

भाभी माँ !    भरत भैया के मुँह से इतना सुनते ही  माण्डवी भाभी मूर्छित हो गई थीं ..........सम्भाला था   भरत भैया नें.......।

माण्डवी ! तुमसे  तो मुझे ऐसी अपेक्षा नही थी ...........

क्या हुआ नाथ !    मैनें जानबूझ कर नही किया  .....

चरण पकड़ कर रो रही थीं माण्डवी भाभी  ।

माण्डवी !   हम  आर्यपुत्र श्रीराम के  सेवक हैं.......और सेवक को  जिद्द करनें का हक़ नही होता ........स्वामी जो कहे .....स्वामी जो आज्ञा दे .....उसे चुपचाप मानना  ही  सेवक का धर्म है ......।

माण्डवी !  तुम्हे क्या लगता है   .........सेवा  से बड़ा धर्म कोई है  ? 

और  सेवा करना ........सेवक बनना.......ये सबसे दुरूह कार्य है ।

तुम्हारा पति ये भरत  श्रीराम के चरणों का सेवक है ..............इसलिये  मुझे नही पता  उनकी क्या आज्ञा होगी ..............इसलिये माण्डवी !  तुम्हे  सम्भालना होगा अपनें आपको ......और  इस राजपरिवार को ।

भाभी माँ !     माण्डवी भाभी  हिलकियों से रोनें लगी थीं .................

अमृत के बारे में सुना है ........पर विष  का तो हम अनुभव कर रहे हैं ।

माण्डवी भाभी नें  भरत  भैया को कहा .........................

मै आपको वचन देती हूँ.........आपके मार्ग में  मैं कभी बाधा न डालूँगी.........ये माण्डवी  आपको वचन देती है  कि   आप जिसमें प्रसन्न हों   मै भी उसी में  प्रसन्न रहूँगी .........मै वचन देती हूँ ।

पर नाथ !            अश्रु बह  रहे थे माण्डवी के ........।

क्या  !   क्या माण्डवी ?    बोलो  ?

उस समय  माण्डवी भाभी नें अपनें  दोनों बाहें फैला ली थीं ...........

मैं   बाहर निकल गया था ...................

एक बार  इस अभागिन माण्डवी को अपनें हृदय से तो लगा लो ! 

रोते जा रही थीं   और दोनों बाहें फैलाकर   ......................

भरत भैया आगे बढ़े .............माण्डवी !      आर्य श्रीराम लौट आवें .....इस भरत की , और   सम्पूर्ण अयोध्या के प्रजा की यही कामना है ............माण्डवी !       पता नही      क्या होगा .............क्यों की  उनकी इच्छा ही सर्वोपरि है ..........पर    तुम्हे सम्भालना होगा इस राजपरिवार को .....बिखरनें न देना .............

ऐसा कहते हुये   भरत भैया नें  माण्डवी भाभी को अपनें हृदय से लगा लिया था..........काफी देर तक सुबुकती रही  थीं  ।

इतना  सुनाकर  शत्रुघ्न कुमार चुप हो गए  थे ..................

मैं   साड़ी के पल्लू से  अपनी आँखें पोंछती रही ...........पोंछती रही ।

माँ कैकेई ?         उनके प्रति कैसा व्यवहार है  भरत भैया का  ?

मैने  कुछ देर बाद  फिर ये प्रश्न किया  ।

कुछ मत पूछो  भाभी माँ  !

कैकेई माँ को  तो  भरत भैया नें स्पष्ट कह दिया है.......तू मेरी माँ नही  ।

क्या ?       ये क्या कहा  ?       मै चौंक गयी थी   ।

हाँ ........भरत भैया नें यही कहा है ..............अपनी माँ कैकेई का त्याग कर दिया है   ।

ओह !        मुझे  कष्ट हो रहा था  ...................ये सब  सुन कर  ।

मै कुछ बोल न पाई ...........फिर चुप हो गयी  ........कुमार भी सिर नीचे करके  चुप ही रहे  ।

आज भी  गिलहरी आरही थी ...........वो उछलती थी ...............पर  आज मेरा ध्यान उसकी और नही था .............इसलिये तो वो  भी उदास सी हो गयी  थी ।

नित्य लानें वाले बन्दर   केले के  खम्भे उखाड़ लाये थे ...............मै अन्य दिन  बड़े उत्साह से  उनके हाथों से केले लेती ......पर  आज !

वो सब भी मेरे मुख को देख रहे थे ..............मै रो रही थी .........तो बेचारी गिलहरी  मेरे मुख की और ही देखे जा  रही थी  ।

कुमार !   एक बात बताओ ना !          जब माँ कैकेई को त्याग दिया ........फिर  उन्हें  भरत भैया  चित्रकूट में क्यों लाये  ?

मैने पूछा  ।

भाभी माँ !

   मुझे  सम्बोधन करते ही    कुमार शत्रुघ्न आगे कुछ बोल ही नही पाये  ।

जब  हम सब   अयोध्या से चित्रकूट की और चल रहे थे ............माताएं पालकी में बैठ रही थीं ...........तब  मैने देखा ...............अन्य कहारों से कैकेई  माँ झगड़ रही थीं ............मेरी पालकी कहाँ है ?

मैं किसमें बैठूँ .........?         

मैने सुना ........कहारों नें मेरी और देखा  था ......मुझे  उस समय कैकेई माँ  शत्रु के समान लगती थीं..........तब मैने कहारों के सामनें कहा........जिसनें आज  इस अयोध्या को अनाथों की स्थिति में पहुँचा दिया ....उसे पालकी देनें की कोई आवश्यकता नही है !

ऐसा क्यों कहा  कुमार !     कैकेई माँ की स्थिति ही मुझे सबसे दयनीय लगती है ......बेचारी को कुछ मत कहा करो ..........हाँ हो गयी  गलती ..........पर  ये सब कुमार !    मेरे आर्यपुत्र श्रीराम  की इच्छा से ही हुआ है ........यही रहस्य है .........उनकी इच्छा के बिना कुछ नही होता ।

मेरी बात सुनकर कुमार चुप हो गए थे  ।

अच्छा ! आगे क्या हुआ  ?     मैने पूछा ।

माँ कैकेई  अकेले ही   आम प्रजा जन के साथ  सिर में पोटरी लिए   पैदल ही चल दीं  ।

कैकेई कहाँ हैं  ?         भरत भैया नें माँ कहना छोड़ दिया  है  ।

मुझ से पूछा ............कैकेई कहाँ है  ?    

मैने कहा ........वो जा रही हैं पैदल ..............

तब मुझे भरत भैया नें समझाया .........शत्रुघ्न   ! 

कैकेई को  आर्य श्रीराम के पास ले जाना आवश्यक है ...............

क्यों की वरदान पिता जी से इसनें ही माँगे हैं ...................कल वन में प्रभु श्रीराम  हमसे कह सकते हैं ............तुम्हारी बातें मै क्यों मानूँ ?

जिसनें  मेरे पिता से वचन लिए थे  उस माँ कैकेई को तो बुलाओ ।

तब  क्या करोगे शत्रुघ्न !          

मुझे भरत भैया नें समझाया .............कैकेई को  पालकी दो ...और  उसे ससम्मान   उसमें बिठाओ  ।

बेचारी माँ कैकेई ...............मै माँ कैकेई के बारे में सोचनें लगी थी ।

आज  सब उदास थे ..............सब रो रहे थे................

इतना ही नही.............चित्रकूट रो रहा था  ।

चित्रकूट के वन्य जीव सब रो रहे थे............वन का अधिदैव ही व्याकुल हो उठा था   ।

अवधवासियों की आवाजें आनें लगीं .............पर्णकुटी से  हम बाहर आये ........तो मैने देखा .........सफेद वस्त्रों  में माताएं ............

मैं  रोते हुये दौड़ी............माताओं  के चरणों में  गिर गयी ।

बड़े प्रेम से माताओं नें  मुझे उठाकर  अपनी छाती से लगा लिया ।

गुरु वशिष्ठ जी को मैने प्रणाम किया  ।

पिंडदान ............मैने ही पिण्ड तैयार किया था अपनें हाथोंसे ..... मेरे पूज्य  ससुर जी   श्री दशरथ जी का  पिण्ड दान किया गया ।

किसी नें  उस दिन  कुछ नही खाया ...........जल तक नही पीया  ।

नही नही ........चित्रकूट के भीलों नें भी कुछ नही खाया ..........

पशु भी  जल   तक का त्याग करके हमारी  शोक सम्वेदना में साथ थे ।

शेष चरित्र कल ..........

Harisharan

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