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वैदेही की आत्मकथा - भाग 66

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 66 )

सुनत जनक आगवनु सब .....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

प्रातः ही  अपनें अपनें स्थान से  सब  मन्दाकिनी में स्नान करके  हमारी पर्णकुटी में आगये थे ।

माँ कौशल्या मुझे अपलक देखती रहीं..............

ये क्या चौदह वर्ष तक चलता रहेगा  ?     

माँ की वेदना फूट पड़ी थी  ।

 देवराज इन्द्र के परम मित्र की  पुत्र- वधू की ये दशा  ! 

 
भरत !    तुमनें राम का हृदय जीत लिया .............देखो तो कुल गुरु वशिष्ठ जी  तुम पर कितनें प्रसन्न हैं  ।

श्रीराम   माताओं का क्रन्दन सुन रहे थे ..........अगर  ऐसे ही रहा तो  फिर  रुदन सबका शुरू हो जाएगा ......ऐसा विचार करके .......बात को  बदल दिया था मेरे श्रीराम नें ।

गुरुदेव को  उच्च आसन में  बिठाया.......माताओं को सम्मान से  मैने बिठाया ..........बाकी निषाद राज इत्यादि तो  जहाँ स्थान मिला वहीँ बैठ गए  थे  ।

भरत !   तुमनें ये जटा क्यों बढ़ा लीं ?    

और ये बताओ  इतनें लोगों को यहाँ लाकर कष्ट देनें का क्या औचित्य ?

वह भाग्यहीन है नाथ !  जो आपके चरणों के पास आकर भी  सुख का अनुभव न करे......भरत भैया बिलखते हुए बोले थे ।

"महाराज निषाद राज की जय हो"

दो भील आगये थे ......और  वो निषाद राज को कुछ कहना चाहते थे ।

क्या बात है  ?    निषाद राज नें  पूछा ।

महाराज !   सभा की   व्यवस्था हमनें कर दी है .......हजारों लोग भी वहाँ बैठ सकते हैं ........अयोध्या से आयी सम्पूर्ण प्रजा  प्रभु के वचनों को सुनना चाहती है ........इसलिये  सभा में ही  चला जाए ।

सिर झुकाकर भीलों नें कहा  ।

निषाद राज नें  श्रीराम की और देखा ..................

ठीक कह रहे हैं ये वनवासी ..........राम !   अयोध्या की प्रजा भी  आप दोनों भाइयों की चर्चा सुनना चाहती है .......ये चर्चा अब वहीँ हो ।

गुरु वशिष्ठ जी नें   श्रीराम से कहा ।

जो आज्ञा  गुरुदेव !     सिर झुकाकर श्रीराम नें  आज्ञा मानी ......और सब चल पड़े  थे  सभा की और ..........सभा  विशाल सभा थी ।

ये  कौन है  ?  

सब लोग जब पर्णकुटी से सभा की और जा रहे थे  तो मैने देखा .......

एक  पगड़ी पहनें हुए  अत्यन्त तेजवान  व्यक्ति ............

ये कौन है ?      मैने मन ही मन में सोचा ....................ये  इस वन का तो हो ही नही सकता .......न ये  अयोध्या का है ..............

मै उस व्यक्ति को ही  देख रही थी ..............उसनें  मेरी और देखा ......उसके नेत्र बहनें लगे थे ...........तुरन्त उसनें  अपनें बहते आँसू पोंछ लिये ..........फिर  वहाँ से  चला गया ...........।

मै उसे ही देख रही थी.......हाँ  ओझल होनें से पहले  उसनें मुड़कर मेरी और  देखा ........फिर   भावुक होकर  मुझे उसनें आशीर्वाद दिया ।

कौन है ये  ?       मुझे ऐसा क्यों लग रहा है  कि मैने इसे कहीं देखा है ।

मुझे क्यों ऐसा लग रहा है कि   इससे मेरा परिचय है ........।

चलो ना !  तुम  सीता !   चलो बहू !       

माँ नें विशेष आग्रह किया मुझे...................तो मैं माताओं को लेकर  सभा की और चल दी थी  ।

********************************************************

वो सभा विशाल थी ...........अयोध्या वासी  जो आये थे ......वो सब बैठे हुए  थे ................

उच्च आसन में गुरुदेव को बिठाया  मेरे श्रीराम नें ................कौशल्या माँ , सुमित्रा माँ ...........इनको आसन दिया ..............

माँ कैकेई कहाँ है ?     

मेरे श्रीराम नें   तेज़ आवाज में पूछा ।

भीड़ में थी कैकेई.......उसे कोई सभा के मंच में चढ़नें भी नही दे रहा था ।

श्रीराम  नें देखा ...........नीचे स्वयं उतरे ..........और   कैकेई का हाथ पकड़ कर   मंच पर लेकर आये ...........और हाँ  इतना ही नही  सबके सामनें कैकेई माँ के चरण भी छूए  मेरे श्रीराम नें  ।

हाँ भरत !  अब बोलो ...........तुम कुछ कह रहे थे  ।

हाँ आर्य !    मै तो ये कह रहा था कि  - पिता नें  कैकेई की प्रेरणा से जो कुछ किया  उसके परिणाम स्वरूप स्वयं  स्वर्ग सिधारे ......।

अरे नाथ ! कलंकी तो हुआ ये  हत भाग्य  भरत ।

रो पड़े भरत ये कहते हुए  ।

मत रो भाई !  मत रो .............

नही रोऊंगा नाथ !      आप इस भरत पर इतनी कृपा कर दो  कि अयोध्या का राज्य   स्वीकार करो .....और आप वापस चलो ।

अपनें चरणों से उठाया था मेरे श्रीराम नें  भरत भैया को ........

भरत !   तुमको जो दोष देता है ......उसके तो पुण्य नष्ट हो जायेंगें , उसकी अधोगति होगी ।

हे मेरे भाई भरत !  तुम्हारा स्मरण, तुम्हारा यशोगान , मनुष्य के ताप सन्ताप पाप सबको   युगों युगों तक मिटाता रहेगा ।

सुनो ! भरत !     माता कैकेई का कोई दोष नही है ......इन्हें दोष मत दो ।

गुरु , माता, पिता ये सब  अपनें शिष्य और पुत्र को आज्ञा देनें के अधिकारी हैं .......जो अपार स्नेह दान करता है ना  भरत !   उसे ही ताड़ना देनें का भी अधिकार होता है ...............

पूरी सभा सुन रही थी  एक एक शब्द मेरे श्रीराम के  ।

पिता या माता  मुझे राज्य दे सकते हैं  तो ये उनका अधिकार भी है कि वो वन में रहनें की आज्ञा दें ...........इसमें  किसी को कोई आपत्ति नही होनी चाहिये  ये उनका अधिकार है भरत !

मै अब स्पष्ट कहता हूँ ........भरत !   मैं अपनें पिता जी की आज्ञा का पालन करनें के लिये वन में ही रहूंगा .......चौदह वर्ष के लिए  ।

इतना कहकर चुप हो गए  मेरे श्रीराम  ।

नाथ ! पिता जी नें मुझे राज्य दिया है ......अब  वो राज्य मैं आपको लौटा रहा हूँ ...........आपके सिंहासन में बैठनें का  साहस भरत भूल कर भी नही कर सकता  नाथ !    भरत नें दृढ़ता से कहा - कैकेई को भी इसमें कोई आपत्ति नही है  ।

भरत  की बातों नें   अयोध्या की प्रजा को आनन्द से भर दिया......सबनें करतल ध्वनि से  भरत भैया की बातों का समर्थन किया था  ।

मैने दृष्टि दौड़ाई पूरी सभा में .............भरत भैया की बातों से  ऊर्जा का संचार हुआ था  वहाँ   ।

ये फिर  ?    मैं चौंक गयी .........वही  व्यक्ति   पगड़ी लगाये हुए ........भीड़ में खड़ा है .......और   कभी मेरे श्रीराम को देख रहा है ....कभी मुझे........गलत तो नही है ये ......कोई देवता तो नही ?   कोई गन्धर्व ?      पर  पता नही  क्यों  ये मुझे बार बार  पहचाना सा लग रहा है  ।

परिचय की सुगन्ध आरही है इसमें से...........कौन होगा ये ? 

मेरा मन बार बार उधर ही जा रहा है .....उसी  व्यक्ति को मै देख रही हूँ ....अधेड़ उम्र का है ........पर तेजवान  ।

अब ये तो मंच की और ही बढ़ रहा है .................मै देख रही हूँ उसे ।

मेरे पास आया .................कैसी हो  मैथिली !   ये कहते हुये मेरे सिर में हाथ रखा उसनें .............मै उसे देखती रही  ।

कौन हो आप ?   मैने इतना ही पूछा  ।

मुझे नही पहचाना  बेटी ?     

मैं  महाराजाधिराज जनक राज का ..................

ओह !       मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले ..................आप  कैसे  यहाँ ? 

मै इधर पूछ रही थी ..........कि  उधर भरत भैया मूर्छित हो गए थे ।

मेरे श्रीराम नें भरत भैया को सम्भाला .....जल का झींटा दिया  ।

कैसा है मेरा जनकपुर ?     रो गयी थी मैं ये पूछते हुए  ।

कौन हैं आप ?       पीछे से मेरी माँ कौशल्या जी आयीं  ।

माँ !  ये  मेरे मिथिला से हैं ........मेरे पूज्य पिता जी के   मित्र ।

पर मै  यहाँ गुप्तचर के रूप में आया हूँ ................।

गुप्तचर ?    मैने प्रतिप्रश्न किया ।

हाँ पुत्री मैथिली !      मुझे ही भेजा था महाराज विदेहराज ने ।

गलत मत समझना पुत्री !   कुछ विशेष समय पर गुप्तचरी को गलत नही माना जाता  राजनीति में .....और  राजाधिराज विदेह राज के लिए ये समय तो  अत्यन्त दुःख का था.......उसकी लाड़ली पुत्री  आज वन में है !

आप को वनवास  मिला  मैं अयोध्या में ही था .......अब यहाँ आया हूँ  ।

विदेह राज को भी यहाँ बुलवा लें आप......क्यों की  अब  इस अयोध्या का अभिभावक कोई नही है .......माँ कौशल्या जी नें  कहा था ।

हाँ ....मैने सूचना भिजवा दी है ....वो  चल पड़े हैं  जनकपुर से ।

मेरे नेत्रों से  आनन्द के अश्रु बह चले थे .........मेरे पिता जी आरहे हैं ।

मै रो पड़ी थी ......माँ कौशल्या  नें मुझे अपनें हृदय से लगा रखा था ।

सभा नें विश्राम ले लिया था........क्यों की भरत भैया  की बात मानी जाए या    मेरे  श्रीराम की .........ये बात तय नही हो पाई थी  ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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