वैदेही की आत्मकथा - भाग 30

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 30 )

उद्भवस्थिति संहारकारिणीम् .....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

हे ब्रह्माल्हादिनी !  हे रामहृदय रमणी ! हे रामप्रिया !  हे साकेतबिहारिणी !    हे जनककिशोरी !   .........

मै आश्चर्यचकित थी ...........मेरे सामनें हाथ जोड़े खड़े थे .......और ये सब  बोले जा रहे थे .........रघुकुल के कुल गुरु वशिष्ठ जी  ।

उनके साथ थे  मेरे प्राण श्रीरघुनन्दन ......पर वह शान्त थे  ।

मै क्या कहती ..............मेरे कुछ समझ में ही नही आरहा था ।

तब  रघुकुल के कुल गुरु वशिष्ठ जी नें   अपना इतिहास सुनाना शुरू कर दिया था  ।

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हे रामबल्लभा  !      बात उस समय की है  जब सृष्टि का प्रारम्भ ही होनें जा रहा था ........विधाता ब्रह्मा  सृष्टि कार्य में व्यस्त थे  ।

उस समय   मुझे  बुलाया   ब्रह्मा नें ...........सनकादि ऋषि मुझे बुलाकर लाये थे .........।

मुझे देखते ही  ब्रह्मा नें   कहा .............हे वशिष्ठ !     मेरी आज्ञा है  तुम्हे पुरोहित की पदवी  स्वीकार करनी होगी  ।

मै शान्त भाव से सुन रही थी   गुरु वशिष्ठ जी की बातें  ।

हे विदेह नन्दिनी  !        मुझे  ये पुरोहित की पदवी  प्रिय नही थी .......और मुझे ही क्यों  जो  तत्वज्ञान का पथिक है  उन्हें ये  पुरोहित  जैसी कर्मकाण्ड प्रधान क्रिया पसन्द हो भी नही सकती  ।

मैनें स्पष्ट  मना कर दिया ...........हे विधाता !  मुझे क्षमा करें  ।

मुझे अपनें तत्वज्ञान के अनुसन्धान से  अलग न करें .......न भटकाएं ।

क्या तुम ये जानना भी नही चाहोगे  कि किस कुल के कुलपुरोहित बननें की बात मै कर रहा हूँ ...............ब्रह्मा नें मुझे समझाना चाहा  .....और उस कुल का नाम भी बता दिया ........सूर्यवंश ........रघुकुल  ।

मैने हाथ जोड़कर    ब्रह्म लोक से प्रस्थान करना ही उचित समझा ।

पूर्णब्रह्म परमात्मा  स्वयं अवतरित होनें वाले हैं ........इस कुल में ।

जब मै जानें लगा था  तब पीछे से ये कहा था ब्रह्मा नें ।

और  तुम्हे ब्रह्म के गुरु बननें का सौभाग्य प्राप्त होगा ......क्या इस लाभ से वंचित रहना  चाहोगे  ?  

मै लौटा ब्रह्मा के पास ..............क्या आप सच कह रहे हैं  !

क्या  सच में  मेरे ईश्वर साकार रूप से अवतरित होनें वाले हैं ..?

हाँ  ऋषि वशिष्ठ !      स्वयं निराकार ब्रह्म साकार होकर आरहे हैं .....और इसी कुल में  रघुकुल में ....सूर्यवंश में ........दशरथ के पुत्र  श्रीराम के रूप में .............मुझे ब्रह्मा नें कहा  ।

ओह !     हे  वैदेही !      उस समय मेरे नेत्रों से  आनन्दाश्रु बहनें लगे थे ।

मुझे स्वीकार है  ब्रह्मदेव !    मै पुरोहित की पदवी स्वीकार करता हूँ ।

पर .................मै रुक गया था  उस समय  ।

क्या  ....पर  ?     बोलो   वशिष्ठ  !   क्या  पर  ? 

 

मै परब्रह्म का उपासक ...........मै परब्रह्म का  साधक ...........

और परब्रह्म ही मेरे शिष्य हो जायेंगें  तो  फिर  मै किसको अपना  इष्ट मानूँ  ?        मै किसकी उपासना करूँ  ? 

तब   हे  मिथिलेश नन्दिनी  !      मुझे  विधाता ब्रह्मा नें कहा था ......परब्रह्म के साथ साथ  उनकी आल्हादिनी शक्ति भी अवतरित होनें जा रही हैं ............सीता  के रूप में   ।

हे  वशिष्ठ !  राम  तुम्हारे    शिष्य होंगें  ये मर्यादा है ..........पर  आपकी इष्ट  , आपकी  आराध्या  ब्रह्म आल्हादिनी  सीता  रहेंगीं .........

क्यों की शक्ति और शक्तिमान  दोनों  भिन्न नही हैं ........अभिन्न हैं  ।

इसलिये  आप  सीता भगवती की उपासना करें ..........मुझे ये आज्ञा दी थी   ब्रह्मा नें .............

ये कहते हुए  रघुकुल के गुरुदेव  वशिष्ठ जी नें  मुझे प्रणाम किया था ।

अरे !   मै कुछ समझ नही पा रही.............आप ये क्या कर रहे हैं  ?

आप पूज्य हैं ............मै कहती रही ......पर  गुरु वशिष्ठ जी  मेरी प्रार्थना ही करते रहे ...............।

आप  आद्य शक्ति हैं .......आप  सकल जगत की सृष्टि   पालन और संहार करनें वाली हैं ..........आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है  ।

वो मेरी सुन कहाँ रहे थे.......मै  संकोच  से  धरती  में गढ़ी जा रही थी ।

फिर एकाएक  पता नही वशिष्ठ जी को क्या लगा ........वो  श्रीरघुनंदन की और मुड़े ............श्रीरघुनंदन का हाथ पकड़ कर  मेरे हाथों में रखते हुए बोले ...............हे  मिथिलेश किशोरी !    ये  मेरा शिष्य राम है .......इसको स्वीकार करो ............।

ये क्या कह रहे थे  वशिष्ठ जी ........।

फिर  हाथ जोड़नें लगे थे ...............हे  सीता भगवती !    

तुम आद्यशक्ति हो .....समस्त शक्तियों का केंद्र हो ......उमा, रमा, ब्रह्माणी  सब तुम्हारी नख चन्द्र छटा से ही प्रकट होती हैं ..........तुम प्रसन्न हो जाती हो  तो इस सृष्टि का   प्रकटीकरण हो जाता है ........तुम  सन्तुष्ट हो जाती हो  तो इस सृष्टि का पालन होजाता है ......और तुम्हारा  तनिक क्रोध भी  संपूर्ण  सृष्टि में प्रलय ले आता है ..............इसलिये हे  जनकपुर बिहारिणी  !       मेरी बस इतनी प्रार्थना है  तुमसे ........

ये राम मेरा शिष्य है........इससे  तुम्हारा अपराध होगा............ये इसकी लीला होगी .................जगत को वैराग्य का सन्देश देनें के लिए ही   राम ने अवतार लिया है .............और वैराग्य इतना .......त्याग इतना   ......कि   इतिहास में ऐसा कोई त्यागी नही हुआ ........वैराग्य इतना  कि ..........असीम  ।

तुम  राम हो .....और राम तुम हो ............पर  ये राम अपनें आपको भी  त्याग सकता है .................हे वैदेही !      एक आदर्श राजा का उदाहरण  मेरा ये शिष्य प्रस्तुत करेगा समाज के सामनें ..........

उस समय   हे मेरी आराध्या  सीता भगवती  !    मेरे राम पर क्रोध मत करना ..........मेरे राम पर    करुणा करती रहना ...............

ये कहते हुए ..................मेरे  चरणों में ही झुक गए थे वशिष्ठ जी  ।

आप ये क्या कर रहे हैं   ?     मै  घबड़ाई ...............

पर   वशिष्ठ जी के नेत्रों से झरझर अश्रु बहते जा रहे थे .............

मै उस समय समझ नही पाई ..........कि इतना बड़ा ज्ञानी .....रघुकुल का गुरु .............फिर मेरी जैसी साधारण नारी से  ।

पर आज  समझ में  आता है ............गुरु वशिष्ठ  त्रिकालदर्शी हैं..........उन्हें  सब पता था ..........वो इस वैदेही के साथ घटनें वाली हर घटना को प्रत्यक्ष् देख रहे थे  ।

  जनकपुर से विदा के समय ........एकान्त में आकर जो बात कही थी वशिष्ठ जी नें ..................वो   यही तो था ...........

आदर्श राजा बननें की सनक  ?        क्या मेरे राम को  एक आदर्श राजा बननें की सनक  थी ?.......जिसके लिये  उन्होंने  अपनें आपको भी त्याग दिया ..........वशिष्ठ जी का यही तो कहना था ना .......कि मै  राम की आत्मा हूँ .......अपनी आत्मा को  छोड़ दिया   ?

शेष चरित्र कल ..................

Harisharan

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