आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 31 )
कौशल्यादि राम महतारी , प्रेम बिबस तन दसा बिसारी ।
( रामचरितमानस )
**** कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
मै अयोध्या नगरी पहुँच गयी ।
क्या लिखूँ अपनें जनकपुर के बारे में ............वहाँ की स्थिति तो अकल्पनीय थी ...............मेरे पिता जी अपनें आप में नही थे .....
मै पालकी में बैठी थी .............पिता जी मुझे देखते ......मेरे हाथों को पकड़ते .............फिर मेरे रघुवर से कहते इसका ख्याल रखना ।
चक्रवर्ती महाराज अपनें रथ से उतरते .......और मेरे पिता जी को बड़े आदरपूर्वक कहते .........अब आप जाइए विदेहराज !
हाँ हाँ मै जा रहा हूँ .................इतना कहकर वो रुक जाते ..........मेरी पालकी के पास .........चक्रवर्ती महाराज अपनें रथ में बैठ जाते थे ।
मेरी पालकी चल पड़ती ............तो मेरे पिता जी भी मेरी डोली के साथ साथ फिर चल पड़ते ...............।
मै इस दृश्य को देख नही पा रही थी ............मेरे नयनों से भी गंगा जमुना बह ही रहे थे ।
इस बार रथ को रोककर गुरु महाराज वशिष्ठ जी उतरे थे ........
हे महाराज विदेह !
मेरे पिता जी वशिष्ठ जी के इस सम्बोधन पर हाथ जोड़कर खड़े रहे ...........।
हे विदेह महाराज ! पुत्री को तो विदा करना ही पड़ता है ना .....यही रीत है ..............आप जैसे ज्ञानी को हमें समझाना पड़ रहा है ......।
आप जाएँ .......लौट जाएँ आप ...............
हाँ कष्ट होता है ..........अपनें कलेजे को देनें में कष्ट तो होता ही है ।
महल में मेरी सखियाँ मूर्छित हो गयी हैं ................ये बात बरात में फैल गयी थी ..............मेरा हृदय धक्क करके रह गया था ।
मेरी माँ सुनयना ?
उनका तो रो रोकर बुरा हाल है ............।
इधर वशिष्ठ जी समझा रहे थे .............आप लौट जाएँ ...........आप ही इस तरह भाव में बह जायेंगें तो इस जनकपुर का क्या होगा महाराज !
मेरे पिता नें महाराज चक्रवती को प्रणाम किया .....गुरु वशिष्ठ जी को प्रणाम किया ............और मेरे श्री रघुनन्दन को प्रणाम किया ।
आप निराकार ब्रह्म साकार रूप धारण करके आये हैं .......हे भगवन् ! मेरा ये परम सौभाग्य है .....मेरा ही नही मेरे जनकपुर का ये परम सौभाग्य है कि .............आप जैसे ब्रह्म स्वरूप को हमनें अपना जामाता पाया ...............हे मुनिमन मानस हँस ! बस इस जनकपुर को भी अपनें हृदय में स्थान देते रहना ...........हमें भूलना मत ।
इतना कहते हुए मेरे पिता जी फिर भावुक हो उठे थे .....पर इस बार जानें का इशारा स्वयं नें किया ........वो समझ गए .......इस पुत्री के वियोग को तो सहना ही पड़ेगा ...............ये रीत है ............पता नही कैसी रीत ! की पिता पालपोस कर बड़ा करे ...........
एक पाकर वृक्ष के नीचे खड़े रहे मेरे पिता जी .....सब परिकरों के साथ ......मेरी डोली चल पड़ी थी ..............आँखों में आँसू बहते रहे ......अपलक नयनों से आँसू बहते रहे मेरे और मेरे पिता जी के .....मै देखती रही ..............वो ओझल हो गए थे ।
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अयोध्या नगरी !
सरजू निर्मल बह रही हैं ....................
सूर्यवंशी बड़े बड़े प्रतापी राजा हुए हैं ..........मेरे पिता जी हमें बचपन में सुनाते थे ....................।
हमारे स्वागत की तैयारियां बहुत पहले से ही शुरू हो गयी थीं ।
मेरी यहाँ की माता..........सासू माँ ....कौशल्या जी ! वैसे मेरी तीन माताएं हैं ...यानि तीन सासू माँ .........सबसे बड़ी हैं .......जो मेरे श्री रघुनन्दन की माँ हैं ........और दूसरी हैं .....सुमित्रा ....... और तीसरी माँ हैं कैकेई ......।
अवध में पहुँचते ही ...............महल में जैसे ही मेरी पालकी गयी .......
आनन्द है यहाँ की आबोहवा में तो.....................शहनाई गूँज रही है मधुर मधुर ................सुगन्धित तैल का छिड़काव किया गया है ........सुन्दर सुन्दर वन्दनवार लगाये गए हैं .........रंगोली बड़ी सुन्दर निकाली है ........।
ओह ! मुझे उतारा गया ...............मैने अपनें पाँव रखे थे इस अवध की भूमि में..................।
ओह ! मेरा मुख मण्डल जल रहा है ...............पता नही क्यों ?
मेरा मुखमण्डल कुम्हला रहा है ..........पता नही ये क्यों हो रहा है ?
मुझे चलना है ......मेरी सासू माताएं आरती की थाल लेकर खड़ी हैं ।
मै पालकी से उतरी ...............और चलनें लगी .......आह !
मेरे पैरों में कुछ गढ़ रहा है ............पर मै यहाँ किसे कहूँ ?
किससे कहूँ ?
मै अपनें आपको सम्भाले .....फिर चलनें लगती हूँ ...............पर ....
आह ! गढ़ रहा है कुछ मेरे पाँव में ..........मै किसे कहूँ ?
नही चला जा रहा ।
क्या हुआ सिया बहू ? कोई दिक्कत है ?
मेरे पास आगयी थीं मेरी पूज्या सास कौशल्या जी ..........
नही .........मैने सिर हिलाया ..................और फिर चलनें का प्रयास करनें लगी ............मेरे ऊपर फूल बरसाए जा रहे थे ..........पर ।
बहू ! बताओ क्या बात है ? तुम्हारा मुख मुरझा रहा है ......और तुम चल भी नही पा रही हो ।
मेरी सासू माँ नें मुझसे फिर पूछा ।
देखो ! सिया बहू ! मैने तुम्हारे लिए ही ये कमल के पराग बिछाए हैं .....ताकि तुम्हारे सुकोमल पाँव में कुछ गढ़े नही ...........
माँ ! ये पराग गढ़ रहे हैं मेरे पाँव में !
मुझे ये कहना ही पड़ा .................।
क्या ! चौंक गयी थीं मेरी सास कौशल्या जी ......पराग गढ़ रहा है !
नीचे झुककर जब मेरी साडी को हटाकर मेरे पाँव में देखा..कौशल्या जी नें .....तो फिर स्तब्ध हो गयी थीं ......मेरे पाँव लाल हो गए थे ..........उन पराग के कारण .........गढ़ रहे थे कमल फूल के पराग ।
पर मुख म्लान क्यों ? चेहरा मुरझा गया है , क्यों ?
मेरी सास नें फिर पूछा ।
माँ ! ये सब देख रहे हैं मुझे ..............इनकी दृष्टि की गर्मी से मेरा मुख मुरझा रहा है ।
ओह !
मेरी सासू माँ कौशल्या जी चकित थीं .............।
मेरा ही स्वागत नही मेरी बहनों का भी स्वागत हुआ था ..........आरती हुयी .....और विधि पूरी की गयी ।
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हाँ , उस दिन मुँह दिखाई की विधि थी ........
श्री माँ सुमित्रा जी आगे आयीं ...........उन्होंने मुझे मुँह दिखाई में स्वर्ग से लाये हुए विशेष माँ अदिति के द्वारा प्रदत्त मोतियों का बहुमूल्य हार दिया था ..............
माँ कैकेई नें तो सबको चौंका ही दिया ।
ये कनकभवन की चाबी मैं अपनी बहू सीता को देती हूँ मुँह दिखाई में ।
श्री चक्रवर्ती सम्राट चकित थे ...............क्यों की मैने बाद में सुना था कि माँ कैकेई जिद्दी हैं ...........कनकभवन भी बड़ी जिद्द से बनवाया था .......वो भी विश्वकर्मा के द्वारा ..............।
अपनें लिए ..........कैकेई नें अपनें लिए बनवाया था ...........उसे आज मेरी मुँह दिखाई में दे दिया "कनक भवन" ।
मुझे कनक भवन की चाबी देते हुए कैकेई माँ नें कहा था .........ये मैने तुम दोनों के लिए ही बनवाया था ..........मेरे पुत्र राम और मेरी प्यारी बहु सीता के लिए .........तुम्हारे लिए ।
ये कहते हुए मेरे सिर में हाथ फेरा ..............आशीर्वाद दिया ।
मैने भी उनके चरणों में वन्दन किया था ।
मेरी माँ, अवध की मेरी माँ .......मेरी सासू माँ कौशल्या जी !
बहुत अच्छी हैं..........इतनी अच्छी सास ! सच में मेरे भाग्य हैं ।
भोली हैं .........बहुत भोली हैं ..........मेरे प्राण प्रियतम की माँ जो हैं ....
मुँह दिखाई में , मै क्या दूँ ? परेशान हैं ..............
सबनें दे दिया ......कैकेई माँ नें भी ....सुमित्रा माँ नें भी ...........पर ये मेरी भोली भाली सासू माँ परेशान हैं ।
हार अमूल्य है .................देवराज इंद्र नें दिया था एक बार .........चक्रवर्ती महाराज को ............
वही दे दो ना जीजी ! माँ कैकेई नें कहा था ।
हार लेकर भी आयीं ..........फिर मेरे मुख को जब देखा .........मुँह बनाते हुए बोलीं ......बहू के अनुरूप नही है ये हार !
ऐसे ही कई बहुमूल्य वस्तुएँ लायीं .......पर उनका मन नही माना ।
अब बोर मत करो जीजी !
कैकेई माँ नें झुँझलाकर कहा ।
तब मेरी सासू माँ कौशल्या जी नें बिना समय गंवाए अपनें पुत्र श्रीराम का हाथ पकड़ा और मेरे हाथों में देती हुयी बोलीं ........बहू ! तेरे अनुरूप मेरे पास मुँह दिखाई में देनें के लिए कुछ नही है ....इसलिये ये मेरे पुत्र राम को ही ले ......यही है तेरे अनुरूप ।
ये कहते हुए श्रीरघुनंदन का हाथ मेरे हाथों में दे दिया था मेरी सासू माँ कौशल्या जी नें ।
शेष चरित्र कल .......
Harisharan
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