आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 4 )
सीताया चरितम् महत् ...
( वाल्मीकि रामायण )
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कल से आगे का प्रसंग -
ओह ! मै वैदेही तो खो गयी ......अपनी जन्म भूमि को याद करते हुए ।
हाँ मेरी जन्म भूमि मिथिला है ही ऐसी .............
वहाँ के लोगों का प्रेम.......वहाँ के लोगों का स्नेह मै कैसे भूल पाऊँगी ।
ओह ! ये खबर क्या मेरे पिता जनक जी तक पहुंची होगी ?
कि प्रभु श्री राम नें मुझे इस तरह .............
नही नही ..........नही पहुंचनी चाहिये .......कितना कष्ट होगा उन्हें ।
और उससे भी बड़ी बात ये कि मेरे प्राण नाथ के प्रति कहीं कुछ गलत भावना न आजाये ..........मुझे इसी बात का डर लगता है ।
पर नही .....मेरे पिता जनक जी बहुत बुद्धिमान व्यक्तित्व हैं .......वो सब समझते हैं कि .....राजा का क्या कर्तव्य होता है .....राजा के लिए प्रजा ही सब कुछ होती है .................।
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क्या लिखूँ ! समझ नही आता ...........अभी तो मेरे मन मस्तिष्क में बस जनकपुर ही है ..........मेरी प्यारी जन्मभूमि ।
मै बड़ी होती जा रही थी ........................
एक दिन मुझे ही तो मिले थे .......देवर्षि नारद जी महाराज ।
वाटिका में .....जब मै अपनी सखियों के साथ खेल रही थी ।
वैसे देवर्षि आते जाते रहते थे ....मेरे पिता जी के पास ।
कभी किसी ऋषि कुमार को पकड़ लाते ......और कहते मेरे पिता जी से .....कि इसका आत्म ज्ञान पक्का है की नही ?
मेरे पिता जी उस ऋषि कुमार की परीक्षा लेते ...............उत्तीर्ण हुआ या अनुत्तीर्ण हुआ .............और हाँ ....मेरे पिता जिसे उत्तीर्ण कर देते .....वो फिर पूर्ण आत्मज्ञानी ही होता ।
पर जिसमें कमी है .........उसको वो शिक्षा देते ........उपदेश देते ।
हँसी आती है उस दिन की बात याद करके .................
( कई दिनों के बाद सीता जी आज हँसती हैं .....एक घटना को याद करके )
उस ऋषि कुमार को देवर्षि नारद जी ही तो लाये थे .........हा हा हा हा ।
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हे विदेह राज ! ये एक ऋषि कुमार है .........इसनें आत्मज्ञान प्राप्त किया है .............और मार्ग में मुझे मिला ......तो मुझ से कहनें लगा .....मै आत्मज्ञानी हूँ ..........तब मैने इससे कहा था ........मिथिलापति विदेह जब तक तुम्हे आत्मज्ञानी नही कहेंगे.......तुम आत्मज्ञानी कैसे हो सकते हो ? नारद जी नें मेरे पिता से आकर कहा था ।
मेरे पिता जी हँसे थे ........ये क्या बात हुयी देवर्षि !
मै कौन होता हूँ किसी को भी आत्मज्ञानी का प्रमाणपत्र देनें वाला ।
हैं .....आप हैं ही उस उच्चकोटि के ज्ञानी ...................जिनको ये समझ है कि आत्मज्ञान कैसे प्राप्त होता है ....और हो जाता है तो उसके लक्षण क्या हैं ?
मेरे पिता जी हँसे थे .....खूब ठहाका लगाकर हँसे थे.......आप भी ना !
अच्छा ठीक है ............ऋषि कुमार ! बताओ तुमनें क्या सीखा है ....और किन किन शास्त्रों का अध्ययन किया है ?
मेरे पिता जनक जी नें पूछा था उस ऋषि कुमार से ।
वो हँसा था ........आत्मज्ञान के लिए शास्त्र पढ़नें की जरूरत है क्या ?
नही ....बिल्कुल नही ............मेरे पिता जी नें कहा ।
फिर आप ये प्रश्न क्यों कर रहे हैं ?
ऋषि कुमार का अहंकार बोल रहा था ।
मेरे पिता इतनें में ही समझ गए थे कि ....ये कोई आत्मज्ञानी नही है ।
फिर भी उसे तो ये बताना आवश्यक ही था ........कि तुम्हारी स्थिति अभी आत्मज्ञानी बननें में कई कोसों दूर है .........।
अच्छा बताओ .......आत्मज्ञानी के लक्षण क्या है ?
मेरे पिता के इस प्रश्न का उत्तर उसनें दिया था ...............
जो देहातीत है .............देहातीत होना ही पहला लक्षण है आत्मज्ञानी का .......क्यों की देह तो मिथ्या है ............।
देवर्षि की और देखकर मुस्कुराये थे मेरे पिता ............उसका ये उत्तर सुनकर ।
आप हँस रहे हैं क्या मेरी बात सही नही है ?
उस ऋषि कुमार नें फिर ये बात कही थी ।
नही नही ......मै तो तुम्हारी बातों से बहुत प्रसन्न हूँ ..........हाँ ठीक कहा आपनें ......यही लक्षण हैं आत्मज्ञानी के ।
पर ..........मेरे पिता जनक जी रुक गए इतना कहकर ।
क्या पर ? ऋषि कुमार कुछ ज्यादा ही अहं से ग्रस्त था ।
नही मुझे ये देखना है कि तुम सच में आत्मज्ञानी हो ....या केवल आत्मज्ञान की बातें ही करते हो !
मेरे पिता जनक जी नें उस युवक से कहा ।
आप क्षत्रिय होकर मुझ ब्राह्मण को शिक्षा दे रहे हैं ?
तो क्या आत्मज्ञानी ब्राह्मण और क्षत्रियों में उलझता है कुमार ! क्या ये सब भी मिथ्या नही हैं , ब्राह्मण और क्षत्रिय ?
मेरे पिता के ये कहनें पर वो ऋषि कुमार चुप हो गया था ।
देवर्षि ! मै स्नान करनें जा रहा हूँ .....कमला नदी में ............
क्या ऋषि कुमार आप भी चलेंगें मेरे साथ ?
मेरे पिता जी नें जानबूझकर अब उसे ज्यादा ही सम्मान देना शुरू कर दिया था ...........नारद जी हँसे .....वो समझ गए थे ........कि ऋषि कुमार की परीक्षा शुरू हो चुकी है ।
हाँ .....अवश्य ! अवश्य चलूँगा मै आपके साथ ।
ऋषि कुमार नें कहा .....और मेरे पिता के साथ कमला नदी में स्नान करनें के लिए चल दिए थे ।
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आपनें किस से आत्मज्ञान प्राप्त किया ?
वो ऋषि कुमार मेरे पिता जी से पूछनें लगा था ।
महान ऋषि अष्टावक्र से ...............बस इतना ही बोले मेरे पिता ......और कमला नदी के तट में आचुके थे ..........।
दोनों ही बड़े आनन्दित होकर स्नान करनें लगे ।
महाराज ! महाराज ! दो सैनिक आये .......और प्रणाम करके स्नान कर रहे अपनें महाराज विदेह राज से उन्होंने ये कहा था ।
महाराज ! आपका महल जल रहा है .....आग लग गयी उसमें ।
मुस्कुराये थे मेरे पिता जी ...........कोई बात नही ...........ये सब तो मिथ्या है ..............कोई चिन्ता के भाव नही थे मेरे पिता के मुख मण्डल में उस समय ।
पर ये क्या ! वो कुमार ....ऋषि कुमार तो नदी से बाहर आगया .....और भागा ..............
मेरे पिता देखते रहे ........और हँसते रहे .........कमला नदी में स्नान करते रहे ।
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कहाँ गए थे ऋषि कुमार ?
बड़े प्रेम से मेरे पिता जनक जी नें पूछा था उस ऋषि कुमार से ......जो नदी में नहाते हुए भागे थे महल की और !
आपके महल में आग लग गयी थी !
तो ? मेरे पिता नें पूछा था .....तो क्या हुआ महल तो मेरा था ....पर तुम क्यों भागे ........?
मै वहीँ आपके महल के पास ही अपना वस्त्र सुखा कर आया था ...
वस्त्र तुम तो ऋषि कुमार हो ...तपश्वी हो ....तुम्हारा क्या वस्त्र ?
नही .....मेरी लँगोटी सूख रही थी ........मैने अपनी लँगोटी सुखानें के लिए बाहर ही डाल दिया था ...वह जल न जाए इसलिये मै भागा था ।
मेरे पिता बहुत हँसे थे .........तुम आत्मज्ञानी हो ?
मुझे देखो कुमार ! मेरा महल जल रहा है ..........पर मै शान्त हूँ ......कोई बात नही ....महल तो मिथ्या है .........है ना ?
फिर तुम्हारी लँगोटी ! मुझे महल की परवाह नही .....तुम्हे अपनी एक लँगोटी !
( सीता जी ये लिखते हुए बच्चों की तरह निश्छल रूप से हँसती रहीं )
ऋषि कुमार ! बातों से कोई आत्मज्ञानी नही बनता ........बातें बनानें से कोई आत्मज्ञानी नही बनता ..........आत्मज्ञानी बनता है ......जब सत्य का बोध होता है .........तब लगता है .....कि सब कुछ तो मिथ्या है ...सत्य एक मात्र आत्मतत्व है ............और पता है ऋषि कुमार !
सत्य का अर्थ क्या है ?
सत्य का अर्थ है ........जो "है".............
कल भी , आज भी , और कल भी ..............जिसकी उपस्थिति सदैव है .....उसे ही कहते हैं ...सत्य ।
तुम बातें करते हो .......बड़ी बड़ी आत्मतत्व की .......और तुम्हारी दृष्टि टिकी है .....लँगोटी में !
मेरे पिता जी नें उस ऋषि कुमार को बड़े स्नेह से समझाया था ।
अब तो वो मेरे पिता के चरणों में ही था ............
मै समझ गया.......मुझे कुछ नही आता.......अब आप ही मुझे आत्मतत्व का ज्ञान दें .........ऋषि कुमार के अश्रु बह रहे थे , ये कहते हुए ।
मेरे पिता नें उन्हें आत्मज्ञान दिया था ।
ऐसे थे मेरे पिता जनक जी ...........
पर ......................(.लेखनी रुक गयी थी सीता जी की )
पर मेरे श्रीरघुनाथ जी को देखकर कितनें प्रेमी बन गए थे .....मेरे पिता ।
ज्ञान के सर्वोच्च शिखर को छूनें के बाद भी .........मेरे प्राण श्री रघुनाथ जी को पहली बार जब उन्होंने देखा ........तो !
ओह .........फिर नेत्रों से अश्रु धार बह चले थे सीता जी के ....
ताल पत्र भींग रहा था ........तालपत्र में टप् टप् आँसू गिरनें लगे थे ।
( कुछ देर अपनें आपको सम्भाला था सीता जी नें )
हाँ .......मुझे उस दिन देवर्षि मिले वाटिका में .......तब मैने अपनी सखियों के सहित उनको प्रणाम किया था .............।
शेष प्रसंग कल ............
Harisharan
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