आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 18 )
प्रथम बरात लगन तें आई ...
( रामचरितमानस )
*** कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
सम्पूर्ण जनकपुर एक नगर के समान नही.....एक सुन्दरी नारी के समान सर्वाभरण भूषिता, आपाद मस्तक अलंकृता स्वागत में प्रस्तुत थी ।
बरात जनकपुर आयी ..........मुझे मेरी सखियों नें ये सूचना दी थी ।
सात दिन लगे अवध से जनकपुर आनें में बरात को ।
बहुत अच्छे हैं चक्रवर्ती सम्राट ! दूत बता रहा था मेरे पिता जी को ।
बहुत उदार शिरोमणि हैं महाराज ...........यथा राजा तथा प्रजा ।
अब राजा ऐसे हैं तो प्रजा में भी तो वो उदारता आएगी ही ना !
वह दूत बता रहा था पिता जी को .............मुझे महाराज अवधेश नें अपनें गले का हार क्या दिया ..........अवध की प्रजा तो मुझे रत्नाभरण से भूषित करनें के लिये तत्पर हो गयी ।
पर महाराज ! मैने कुछ स्वीकार नही किया .......दूत नें सिर झुकाकर कहा ...........।
मेरे पिता जी बोले थे .......क्यों ? बड़े लोग कुछ उपहार दें तो लेलेना चाहिए ना !
महाराज ! कैसी बात कह रहे हैं ..............हमारे यहाँ बेटी के घर का जल तक ग्रहण नही करते ........ये हमारी मैथिली संस्कृति है ..........कैसे हम भूल सकते हैं ...........वो दूत भावुक हो गया था ..........
महाराज ! सिया जू केवल आपकी पुत्री नही है ...........सिया जू तो जनकपुर के हर व्यक्ति की लाड़ली है .........बेटी है ........जनकपुर का हर व्यक्ति आज ये सोच रहा है कि मेरी ही बेटी का विवाह है ..........किसी राजकुमारी का नही ।
बरात आगयी है महाराज !
..........अंत में दूत नें इतना कहकर मौन साध लिया ।
मेरे पिता अपनें परिवार के और राज्य के गणमान्य व्यक्तियों के साथ पहुँचें बरात का स्वागत करनें ................
गुरुदेव वशिष्ठ जी के चरणों में साष्टांग वन्दन किया था विदेहराज नें ।
चक्रवर्ती महाराज अवधेश नें विदेहराज को पकड़ कर अपनें हृदय से लगा लिया था ...........अनेकों हाथी अनेकों घोड़े ......रथ .......इत्यादि की भरमार थी ..........गाजे बाजे बज रहे थे ...........रूपसी नारियाँ नृत्य करती हुयी चल रही थीं ..............।
चक्रवर्ती नरेश दशरथ जी चकित थे .............जनकपुर के दर्शन करके ।
जनवासे में महाराज चक्रवर्ती नरेश को लेकर गए विदेहराज ।
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एक घटना मेरी सखी चारुशीला नें मुझे सुनाई थी ..........
जब बरात आयी ..........तो सबका स्वागत किया गया ........
और सबके लिये वाहन की व्यवस्था भी थी ............पर कुछ अवध वासी थे ......जो बोले .......हम पैदल जायेंगें ........।
सात दिन से रथ में, घोड़े में बैठ बैठ कर .........हम थक गए हैं ......इसलिये पैदल कुछ दूर तक हम चलेंगें ।
"चारुशीला" मेरी सखी है ............मेरी अष्टसखियों में ये चारुशीला भी एक है ........इसकी विशेषता ये थी .......कि बिना कहे ही मेरे मन की रूचि ये जान लेती थी ।
वही मुझे आज ये सब बता रही थी .............
सिया जू ! हमारे जनकपुर का डोम नही है !
हाँ , है तो !
बस उसका घर देख लिया इन अयोध्या वासियों नें ...........
एक नें कहा ............कितना सुन्दर सजा हुआ है ये घर .........हमें तो लगता है .....हमारे ठहरनें की व्यवस्था यहीं है ...........बराती यहीं रुके हैं शायद ..........।
सब लोग , जो जो पैदल चल रहे थे ......वो सब लोग ........घुस गए उस डोम के घर में ..........।
अरे ! आप लोग कहाँ आरहे हैं .........मत आइये इस घर में ।
उस घर का मालिक डोम था ......छोटी जात का ............वो तो घबडा गया .........हमारे घर में .......ये महाराज की बरात कैसे आगयी ....!
हम अवधवासी हैं .........क्या हम लोगों के ठहरने की व्यवस्था यहीं है ?
वो डोम तो काँप गया .............हाथ जोड़कर बोला ........ये घर तो जनकपुर के डोम का घर है ..........हम तो आपको जल के लिये भी नही पूछ सकते .............।
ये डोम का घर है ?
सिया जू ! वो सब अवधवासी चकित थे ........डोम के घर में सोनें चाँदी के बर्तन ?
ये सब भी हमारे महाराज जनक की कृपा है ............
डोम ने हाथ जोड़कर सारी बात कही ...........
जूठा, गन्दगी उठानें के लिये हम जब जाते हैं महाराज विदेह के पास .....तो वो मात्र जूठा नही उठानें देते ..........उनके जो बर्तन हैं ..........वो सब सोनें चाँदी के ..........वो भी हमें दे देते हैं ............।
अवध वासी बोले ..........नित्य अपनें बर्तन दे देते हैं ?
जी ! हमारे विदेह राज बहुत उदार हैं ...........वो नित्य अपनें भोजन किये हुए सोनें चाँदी के बर्तन भी हमें दे देते हैं .......!
इतनी सम्पदा , इतनी सम्पत्ती ....दूसरे राज्यों में तो अच्छे अच्छे श्रीमंतों के पास भी नही होती ......वो इस जनकपुर में एक निम्न जाति के लोगों के पास है ...........।
सब हमारे श्रीविदेहराज की कृपा है ...........और उन्हीं विदेहराज राजेश्वरी श्री सिया जू का विवाह महोत्सव हो रहा है ...........तो हम भी खुश हैं .......बाबा , बाबा , कहती रहीं हैं... हमें भी सिया बेटी ।
तो हमारी भी तो बेटी हुयी ना ? डोम के सजल नयन हो गए थे ।
और हाँ ..............कल मै विदेहराज के पास गया था .......तो उन्होंने मुझे कहा ........माँगों क्या चाहिये तुम्हे ? ये कहते हुए कितनें खुश थे हमारे महाराज ..........।
मैने कहा है.....कुछ नही चाहिये......बस बरातियों को जब भोजन कराया जाएगा.....तो उनके जूठे बर्तन उठानें की सेवा मुझे ही दी जाए ।
तब महाराज नें कहा ......ये सेवा तो तुम्हे मिलेगी ही .......और कुछ ?
हाँ .....विदेह राज ! एक सेवा और । ........वो डोम अपनी बात अयोध्यावासियों को सुनाते हुए कितना गदगद् हो रहा था ।
हाँ हाँ .....बोलो.......क्या सेवा ? मेरे महाराज जनक जी नें कहा था ।
हमारे जमाई राजा जिस थाल में खायेगें उसे भी मै ही उठाऊंगा ......हमारी बिटिया जिस थाल में खायेगी .......उसे मै ही उठाऊंगा ....और उनके जूठन पर भी मेरा ही हक़ होगा ।
ये कहते हुए कितनें भाव से भर गया था वो डोम .................
अवधवासी गदगद् !.............जनकपुर के भाव की गम्भीरता को समझते हुए ...........आनन्दित हो रहे थे ।
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महल ही नही सजा था ..........पूरा जनकपुर सजा था ..........विवाह का घर केवल मेरा महल ही नही लग रहा था .........जनकपुर का हर घर इस तरह से सजा था कि जैसे किसी को लगे ........विवाह तो इसी घर में हो रहा है .......।
मेरे जनकपुर के लोगों नें अपना हृदय, पलक पाँवड़ें अपना सर्वस्व.... स्वागत में प्रस्तुत कर दिया था ।
हल्दी, दही, केशर की वर्षा नें महाराज अवधेश समेत समस्त अवध वासियों को केशरिया कर दिया था ...............
मै ये सब सुनती रही थी ..............मेरी सखियाँ आतीं और मुझे एक एक बात बतातीं .........।
महाराज दशरथ जी स्नान करनें गए हैं ............
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महाराज को कहिये कि ऋषि विश्वामित्र और उनके पुत्र राम और लक्ष्मण आये हैं .............।
एक दूत नें आकर महाराज के पास सूचना पहुंचाई ।
भरत भैया ! बड़े राम भैया और लखन भैया दोनों आरहे हैं !
भरत को ये बात ख़ुशी ख़ुशी बताई थी शत्रुघ्न नें ।
भरत के नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होनें लगे थे .............
क्या ? मेरा राम आरहा है ? मेरा लक्ष्मण आरहा है ?
स्नान करके आये ही थे महाराज दशरथ जी ......कि ये सूचना भरत ने दे दी थी ।
उन्हीं वस्त्रों में बाहर आगये महाराज दशरथ ...................
सामनें से आरहे हैं गुरु विश्वामित्र .............साथ में हैं राजीव नयन श्री राम .....और लक्ष्मण .........गज की तरह मत्त चाल है ...इन दोनों भाइयों की ...........
साष्टांग लेट गए धरती में ही अवधेश ...........हे ऋषि विश्वामित्र ! ये सब आज जो मै धन्य हो गया हूँ ........मेरी प्रजा आज जो आनन्दित है .......हमारे रघुकुल में जो खुशियाँ छाई हैं .......ये सब आपकी कृपा के कारण ही है ............ये कहते हुए भाव में डूब गए थे दशरथ जी ।
ऐसा कहना रघुकुल की महानता का परिचायक ही है ..........
हे अवध नरेश ! ये रहे तुम्हारे दोनों पुत्र !
जाओ ! वत्स ! अपनें पिता जी के चरणों की वन्दना करो ........
दौड़ पड़े थे श्री राम ....और उनके पीछे लक्ष्मण ।
चरणों से उठाया अवधेश नें अपनें ज्येष्ठ पुत्र श्री राम एवं लक्ष्मण को .....और हृदय से लगा लिया ...................।
भरत जी नें श्री राम के चरणों को अपनें आँसुओं से धो दिया ........
शत्रुघ्न और श्री राम .....लक्ष्मण और शत्रुघ्न ......सब मिले ।
ये सारी सूचनाएं मुझे मेरी सखियाँ तुरन्त देती रहती थीं ...........
और हाँ .......एक और आश्चर्य की बात .........इस विवाह में, विवाह की तिथि कोई तय नही थी ..............बरात आगयी ........पर कब विवाह होगा ये पता नही ............है ना आश्चर्य की बात !
पर मेरे जनकपुर वासी अब एक विचित्र सी प्रार्थना करनें लगे थे भगवान से ...............
हे भगवन् ! ऐसी कृपा करो कि विवाह की तिथि जल्दी न आये ......
क्यों की जल्दी विवाह होगा तो विदाई भी जल्दी होगी ना !
मेरी मिथिला ! ......कितना प्रेम ....कितना भाव उमड़ता था मेरे प्रति मेरे जनकपुर वासियों का ........ओह !
शेष चरित्र कल ..............
Harisharan
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