आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 19 )
मंगल मूल लगन दिनु आवा ...
( रामचरितमानस )
****** कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
मेरी सखी चन्द्रकला सुबह ही सुबह आगयी थी.........और मुझे उसनें ये सूचना दी कि, विवाह की तिथि तय हो गयी है ...............
उसनें स्वयं सुना था ..........जब मिथिलेश और अवधेश दोनों की चर्चाएं हो रही थीं .............मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी .......।
मै ये सुनकर खुश तो हुयी.......पर दूसरे ही क्षण जब मैने चन्द्रकला के नेत्रों को देखा .......तो मुझे अच्छा नही लगा ।
उसकी आँखें बता रही थीं कि वह रोई है .......बहुत रोई है ।
अच्छा बता चन्द्रकला ! बात क्या हुयी थी दोनों महाराजाओं में ?
चन्द्रकला नें मुझे बताया .................
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आप पूछते क्यों हैं महाराज ?
जब मेरे पिता जनक जी नें अवध नरेश दशरथ जी से ये कहा था कि - आप जिस तिथि को कहें .......हम उसी तिथि में विवाह करनें के लिये तैयार हैं ...........!
तब चक्रवर्ती नरेश नें एक ही बात कही थी .........आप पूछते क्यों हैं !
आप दाता हैं महाराज जनक ! हम तो झोली फैलाकर लेनें आये हैं ।
आप जब देना चाहेंगें हम ले लेंगे ......और हे मिथिलेश ! आप धर्मज्ञ हैं आप जो करेंगें हमें सब स्वीकार है ...........महाराज अवधेश नें नम्रता से ये बात कही थी ।
इस उत्तर से मेरे पिता जी गदगद् हो गए थे ........हे चक्रवर्ती महाराज ! वैसे तो हम सब जनकपुर वासी ये चाहते ही नही हैं कि विवाह की तिथि शीघ्र तय हो ..............
क्यों ? ऐसा क्यों ? महाराज दशरथ जी नें मेरे पिता जी से पूछा था ।
क्यों की .........विवाह तिथि के तय होनें का अर्थ ही यही है कि अब शीघ्र विदाई की वेला भी आनें वाली है ।
पर ..............हमारे कुल गुरु शतानन्द जी विवाह की तिथि तय करके लाये हैं .................
उस समय हमारे कुलगुरु शतानन्द जी खड़े हुए थे ................
और गुरु वशिष्ठ जी के चरणों में प्रणाम करके बोले ..........
विधाता ब्रह्मा द्वारा शोधित मुहूर्त है ये ...................
मुझे ही ब्रह्मा नें ध्यान की अवस्था में ये आदेश दिया था ......और कहा था इस मुहूर्त में ही श्रीसीता राम का विवाह सम्पन्न हो .........
हमारे कुल गुरु नें वह मुहूर्त बताया ...........मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी ।
वशिष्ठ जी नें सुना.....और मुस्कुराते हुए बोले .........बहुत सुन्दर मुहूर्त है .........हम सब इस मुहूर्त पर अपनी स्वीकृति देते हैं ...........
सिर झुकाकर हमारे कुल गुरु नें वशिष्ठ जी के चरणों में प्रणाम किया ।
मेरे पिता जनक जी नें सबको प्रणाम निवेदित किया ।
जीजी ! जीजी !
तभी उर्मिला दौड़ी दौड़ी आयी मेरे पास .................
क्या बात है उर्मिला ?
काका कुशध्वज आ गए हैं !
उर्मिला के मुख से ये सुनते ही ...........मै उछल पड़ी थी ......
फिर तो माण्डवी और श्रुतकीर्ति भी आयी होंगीं ?
जीजी !
दोनों बाहों को फैलाये ...........एक ही स्वर में ख़ुशी से चिल्लाते हुए ...दोनों दौड़ी आरही थीं .........माण्डवी और श्रुतकीर्ति ।
मैने दोनों को अपनें हृदय से लगा लिया था ...............मेरे काका की बेटियां हैं ये .....मेरी बहनें ।
और उर्मिला तो मेरी मानी हुयी बहन है ...........छोटे में ही इसे गोद लिया था मेरी माँ सुनयना नें..........हम दोनों साथ ही बड़े हुए थे ......वैसे मुझ से कुछ महिनें ही छोटी है......उर्मिला ....मुझे बहुत प्यारी लगती है ..........हाँ चित्र बहुत सुन्दर उकेरती है ये उर्मिला ।
पर मेरी ये काका की बेटियां .............ये भी बहुत अच्छी हैं ..........जब जब आती हैं .............मानों उत्सव ही मन जाता है ।
आपका विवाह होनें जा रहा है जीजी ?
काका की दोनों बेटियों नें पूछा था ।
लाज लग गयी थी ..............कुछ नही बोली मै ।
उस समय मेरी सखी चन्द्रकला जानें लगी ...............तब मैने उसे रोका ........आगे क्या हुआ चन्द्रकले ! ये तो बताओ ।
हँसते हुए माण्डवी और श्रुतकीर्ति नें चन्द्रकला को भी अपनें हृदय से लगा लिया था ..................।
नही ....अभी नही ............मै बाद में आती हूँ ......ये कहकर जानें लगी चन्द्रकला ...............
अरे ! सुना ना .........ये सब अपनी ही बहनें तो हैं ...............मैने चन्द्रकला को समझाया ............फिर आगे की बात बतानें लगी थी चन्द्रकला ।
हे मिथिलेश ! आपकी एक और पुत्री है ...........जिसे आपनें पाल पोस कर बड़ा किया है .........ये बात गुरु वशिष्ठ जी नें पूछा था ।
हाँ ..........मेरी एक और पुत्री है ............जिसे मैने पाला है ....मेरे भाई की ही पुत्री है ......उर्मिला ।
हाँ ........हम चाहते हैं कि उर्मिला का विवाह चक्रवर्ती नरेश के छोटे पुत्र लक्ष्मण के साथ हो...........ये बात जैसे ही सुनी महाराज मिथिलेश नें .......उनके नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहनें लगे थे ।
जीजी ! देखो ना .......ये फिर मुझे छेड़नें लगीं हैं ........चन्द्रकला ।
ये सच कह रही है उर्मिला ! मैने उर्मिला को कहा .।
वो तो शरमा कर भाग गयी ।
तू सच कह रही है ना चन्द्रकला ? मैने पूछा ।
मै क्यों झूठ बोलूंगी सिया जू !
आगे की बात और बताऊँ ? ये कहते हुए माण्डवी और श्रुतकीर्ति की ओर देखा था चन्द्रकला नें ।
क्यों ? बता ............और हाँ चन्द्रकला ! तू माण्डवी और श्रुतकीर्ति की और क्यों देख रही है ?
क्या इनका भी विवाह होनें वाला है ?
मैने जैसे ही पूछा ..........तो चन्द्रकला ने उत्तर दिया ...........
जी ! जी सिया जू ! रघुकुल के कुल गुरु इतनें में ही नही रुके थे ......उन्होनें बड़ी विनम्रता से आगे कहा था.............
महाराज ! आपके छोटे भाई हैं कुशध्वज ..............
जी ! गुरुदेव ! वो अभी आये ही हैं .....मेरे पिता नें कहा ।
उनकी दो पुत्री हैं ...............और हम चाहते हैं कि भरत और शत्रुघ्न के लिये उनकी दोनों पुत्री का कन्या दान आप करें ......।
चरण पकड़ लिए थे मेरे पिता नें गुरु वशिष्ठ जी के ।
हम को ये स्वीकार है ................ये मेरे पिता नें कहा था ......और देखा था अपनें कुल गुरु शतानन्द जी की और ......
महान ऋषि वशिष्ठ जी के चरण का मै भी सेवक ही हूँ ..............
इनकी हर आज्ञा मुझे तो शिरोधार्य ही है .............
मंगल होगा राजन् ! सब मंगल होगा ..................हमारे कुल गुरु शतानन्द जी नें मेरे पिता को कहा था ।
शरमा रही थीं माण्डवी और श्रुतकीर्ति ...............
मेरे नेत्रों से ख़ुशी के आँसू झर ही रहे थे ..................हम सब बहनें एक साथ रहेंगीं .........अब मै अकेली कहाँ ! मैने अपनें हृदय से लगा लिया था उन दोनों को भी.........।
उन दिनों मेरा जनकपुर झूम रहा था.....मेरे जनकपुरवासी झूम रहे थे ।
चारों ओर आनन्द ही आनन्द छा गया था ।
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उत्सव के शुरू हुए तो बहुत दिन हो गए ........
हँसी भी आती है कभी कभी ..........एक महिनें से भी ज्यादा हो गए हैं ..पिनाक के टूटे हुए ................अरे ! उत्सव तो तब से ही शुरू है जब से पिनाक टूटा है ..........।
पर विवाह की तिथि तय नही थी ...............अब हुयी है ।
देवता लोग आनें लगे थे रूप बदल बदल कर मेरे जनकपुर धाम में ।
देवियाँ आती थीं .........रूप बदल कर .............
पर मेरे जनकपुर की नारियों के आगे वो स्वर्ग की देवियाँ भी शरमा जाती थीं .......क्यों की सुन्दरता मेरे जनकपुर में बिखरी हुयी थी ।
मै सुनती थी बड़े बड़े विद्वानों और प्राचीन ऋषियों के मुख से .........कि श्री राम ब्रह्म स्वरूप हैं ..........और मै ? तब मुझे उत्तर मिलता मै ब्रह्म की आल्हादिनी शक्ति ।
कहते हैं ..........मेरे विवाह में विधाता ब्रह्मा से लेकर गन्धर्व , किन्नर यक्ष .....देवताओं की तो भरमार थी ।
पर मेरे विवाह की एक घटना......पता नही मुझे किसनें सुनाई थी .......पर मुझे हँसी आती है उस घटना का स्मरण करके .........
विधाता ब्रह्मा चकित हो गए थे ..........ब्रह्मा की बुद्धि जबाब दे गयी थी ......मेरे जनकपुर को देखकर .........मेरे जनकपुर के नर नारियों को देखकर ...........।
इतना सुन्दर ये नगर ! इतना सुन्दर सजा है ये नगर !
और यहाँ के लोग .........कितनें सुन्दर हैं ..........अद्भुत !
पर ब्रह्मा को उसी समय घनी उदासी नें घेर लिया था ............
देवों नें कहा ........चलो जनकपुर सीताराम का विवाह महोत्सव होनें जा रहा है .........हे विधाता ! चलिए ।
पर विधाता उदास हो गए ।
उस समय देवाधिदेव महादेव प्रकट हुए थे ........और उन्होंने पूछा था हे विधाता ! क्या बात है आप इतनें दुःखी क्यों हैं ? क्या ऐसी बात हो गयी, जिसके कारण आप उदास हो गए ?
ये समय उदासी का नही है .............श्री राम दूल्हा बननें जा रहे हैं ।
पर हे भूत भावन ! मेरी ये समझ में नही आरहा ............
कि जनकपुर के इस विवाह उत्सव में कहीं मेरी कृति क्यों नही है ?
उस समय भगवान शंकर हँसे थे ..............और हँसते हुए बोले थे ......ये हमारे सीता राम जी का विवाह है ............
ये हमारे माता पिता का विवाह है .......माता पिता के विवाह में बच्चों की कृति नही होती .............इसलिये ये सब सोचना छोडो .....और चलो जनकपुर में ।
मै जगत जननी हूँ .........?
हाँ मेरे श्री राम जगत पिता हो सकते हैं ............पर ये सीता जगत जननी है ?
आज मुझे बस रोना आरहा है ..............उन पलों को याद करके .......उस समय का स्मरण करके ...............
क्या सीता जगत जननी होती तो उसकी आज ये दशा होती ?
तुम जगत जननी हो .......तुम जगत की माँ हो...........हे सीता पुत्री ! ये सब आस्तित्व की लीला है .......तुम्हारी महानता जगत को बतानें के लिए ..........आस्तित्व रूपी श्रीराम नें ही ये लीला की है ...........।
त्याग , तप, सहनशीलता ........इसकी चरम स्थिति पर तुम हो .......जगत तुम्हे देख रहा है ..............तुम्हारी महिमा गायेगा ये जगत .....क्यों की तुम इस जगत की माँ हो ..........
ठीक कहा था भगवान शंकर नें ......विधाता ब्रह्मा से ......कि हमारे माता पिता का विवाह है ये तो ।
मेरे सामनें ऋषि वाल्मीकि आकर खड़े हो गए थे ...............
मैने लेखनी वहीं रख दी ......और उठकर खड़ी हो गयी थी ।
पुत्री ! दुःखी मत हो ............क्या पता आस्तित्व क्या चाहता है !
इतना कहकर ऋषि चले गए थे .............
मै देखती रही ................शाम का समय होनें जा रहा था ।
ऋषि भी तो 'सन्ध्या" करनें गंगा जी के किनारे गए थे ।
अपनी कुटिया में आकर मैने दीया जलाया था ।
ओ ओ ओ ओ ओ ओ .....................
मै चिल्लाई .......
मैने एकाएक आँखें बन्द कर ली थीं ..............कोई कीड़ा गिर गया था ऊपर से......... मेरे ऊपर .......मै डर गयी थी ।
वन देवी ! वन देवी ! क्या हुआ ?
मेरी सेवा में जो रह रही थी वो सेविका दौड़ी हुयी आयी ........
नही ......कुछ नही ........तुम जाओ ।
मै जलता हुआ दीपक देखती रही .................
कितना सजा था ना उस समय मेरा जनकपुर ...............
और मेरे श्री राम दूल्हा बनकर घोड़े में बैठ कर आये थे ।
मै जलता हुआ दीया अपलक देखे जा रही थी ..............
शेष चरित्र कल...........
Harisharan
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