आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 17 )
मंगल सगुन सुगम सब ताके ...
( रामचरितमानस )
******* कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
मेरा जनकपुर झूम रहा था ..........मेरे जनकपुर में देवों और देवियों के आनें की लाइनें ही लग गयीं थीं .....बाजे गाजे तो बजते ही रहते थे ।
मेरे जनकपुर वासी उन दिनों जब सुबह उठते थे तो मार्गों में फूल बिछे हुये पाते ........और आश्चर्य ये था कि ये फूल भी इस पृथ्वी के नही थे .......क्यों की उनकी सुगन्ध ही दिव्य थी ......कुछ अलग ।
सिया जू ! सिया जू !
मेरी सखी "पद्मा" दौड़ती हुयी आई थी........उसकी साँसे चढ़ी हुयी थीं ....वो साँसें लेते हुए भी बोल रही थी और साँसें छोड़ते हुए भी ।
महाराज व्यवस्था में व्यस्त हैं सिया जू ! क्यों की अयोध्या से बारात चल दी है.......वो अब हँसनें लगी......खूब हँसे जा रही है ।
अरी बोल भी .....क्या हुआ ? इतना क्यों हँस रही है ?
मैने पद्मा से पूछा था ।
सिया जू ! ये पहली बरात होगी .....जो बिना दूल्हा की है ।
फिर हँसनें लगी ................।
और पता है .........सिया जू ! मै जब महाराज के पास से होकर गुजर रही थी ........तब एक दूत आया था महाराज के पास ......और मै भी खड़ी हो गयी ........सुननें के लिये कि अयोध्या की बरात के क्या समाचार हैं ..........।
पगली है क्या पद्मा तू ?
इतना हँस क्यों रही है ............मैने उसे डाँटा ..........पर पद्मा है कि हँसे जा रही है ..............।
अरे ! सिया जू ! आप भी सुनोगी न तो हँसोगी !
वो दूत बता रहा था महाराज को ..........और महाराज भी अपनी हँसी नही रोक पाये .................
अब बता क्या हुआ ऐसा ! मैने पूछा ।
सिया जू ! बारात चली है अयोध्या से ...............गणेश गौरी शंकर इन सबको प्रणाम करके इनका पूजन करके बारात निकल तो गयी ।
पर ...................फिर पेट पकड़ कर हँसनें लगी थी पद्मा ।
मारूँगी पद्मा तुझे ......बता क्या हुआ आगे ?
मैने भी हँसते हुए उससे कहा .......क्यों की उसकी हँसी देखकर अब मुझे भी हँसी आरही थी ।
हाँ ....मै कह रही थी कि ..........बरात तो चल दी ......अयोध्या से ......अब आगे जैसे बढ़ी .........तो बीच बीच में नगर पड़नें लगे .....हजारों लोग ......सजे धजे ....कोई हाथी पर बैठा ...........कोई रथ पर .............चले जा रहे थे ...........
अब सिया जू ! मार्ग में लोग खड़े हो जाते हैं......देखनें के लिए कि ये सब क्या है !
लोग पूछते हैं ..............ये सब क्या है ?
तब अवध के बाराती कहते - कि बरात जा रही है अयोध्या से ...........
फिर लोग पूछते .....कहाँ जा रही है बरात ?
तब अवध के लोग कहते .....जनकपुर जा रही है ।
लोग इतनें में चुप थोड़े ही होंगें ........फिर पूछते ..........दूल्हा कहाँ है ?
अब बाराती चुप !
पद्मा हँसते हुए लोट पोट हो गयी .................
सिया जू ! तब ये बात पहुंची चक्रवर्ती महाराज दशरथ के पास ।
अब वो क्या कहें ..........लोग तो पूछते हैं .........पूछेंगें ।
महाराज दशरथ गए अपनें गुरु वशिष्ठ जी के रथ के पास ...........
गुरु महाराज ! एक संकट आ खड़ा हुआ है ..............
क्या बात है महाराज ! बताइये ...........
गुरु महाराज ! लोग पूछ रहे हैं .............कि ये सब क्या हो रहा है ....
तब हमारे लोग बता रहे हैं कि ............बरात जा रही है .........।
फिर लोग पूछते हैं ....दूल्हा कहाँ है ?
इसका उत्तर क्या दें ?
कह दो दूल्हा तो वहीँ जनकपुर में ही है ..............
यही तो गुरुमहाराज ! जब हमारे लोगों नें प्रजा से ये कहा .......कि दूल्हा तो वहीं है ........तो सब हँसनें लगे .........कहनें लगे .......जय हो चक्रवर्ती नरेश की .........ऐसी बरात आज तक नही देखी हमनें .....जिसमें दूल्हा ही न हो ...........और दूल्हा भी बड़ा विचित्र है कि ससुराल में जाकर महीनों पहले से बैठा हुआ है ........।
पद्मा मुझे बता रही थी ...........इस बात पर तो मुझे भी हँसी आई ।
फिर आगे क्या बताया ....दूत नें .......? मैने पूछा ।
अरे ! सिया जू ! हमारे महाराज भी दूत की बात सुनकर हँसे थे ......
आगे बता , आगे क्या हुआ ? मैने पद्मा से फिर पूछा ।
अपनें विशेष दूत से भी हमारे महाराज नें यही पूछा था .......तो वह गम्भीर होकर बता रहा था .....महाराज ! चक्रवर्ती नरेश के गुरु महाराज भी थोड़े गम्भीर हो गए .............फिर उन्होंने उपाय बताया .....देखो ! एक काम करते हैं ................महाराज दशरथ ! हमारे साथ भरत और शत्रुघ्न तो हैं ना ?
हाँ हैं तो सही ..............चक्रवर्ती नरेश नें कहा ।
.......लक्ष्मण की शकल मिलती है .........शत्रुघ्न से ........है ना ?
हाँ ............दशरथ जी नें कहा ।
और राम की शकल मिलती है ....भरत से .....है ना ?
हाँ .....पर आप कहना क्या चाहते हैं गुरु महाराज ?
देखो ! अवधेश ! मै ये कहना चाहता हूँ ...........कि एक घोड़े को सजा धजा कर ले आओ .........सेहरा बाँध दो ...भरत के सिर में ........और भरत को घोड़े में बैठा दो ...........और कोई भी पूछे .....कहाँ है दूल्हा ....तो बस बोलना - यही है .........इशारे में बता दो ये रहा दूल्हा .....।
गुरु वशिष्ठ जी नें ये उपाय बताया ।
गुरु देव की बातें सुनकर हँसते हुए बोले चक्रवर्ती नरेश ........अरे !
गुरुमहाराज ! ऐसे थोड़े ही होता है ................
पर शकल तो मिलती है ना ..........भरत और राम की .....दोनों एक जैसे लगते हैं .....है की नही ?
चक्रवर्ती नरेश नें कहा ......आपकी बात सब ठीक है .......चलो राम की जगह भरत को आज बरात में दूल्हा बनाकर ले जायेंगें ...........पर जनकपुर में ?
वशिष्ठ जी नें कहा .............जनकपुर आनें से पहले ही उतार देंगें भरत को घोड़े से .............।
महाराज अवधेश नें कहा ...........चलो ....लोगों को बता देंगें .........लोग मान भी लेंगें .......क्यों की राम और भरत एक जैसे लगते हैं .....
पर भरत मन में क्या सोचेगा ? अवधेश नें गुरु महाराज से ये बात कहि ।
गुरु वशिष्ठ जी नें कहा ..............भरत क्या सोचेगा ?
नही....विचार कीजिये गुरु महाराज .....विवाह तो राम का होगा ना !
वशिष्ठ जी नें उस समय गम्भीर होकर एक बात कही .............
नही राजन् ! विवाह मात्र राम का नही हो रहा ..........विवाह तुम्हारे चारों पुत्रों का हो रहा है ..............।
क्या ? दूत की बात सुनकर जनक जी चौंके ।
क्या ? गुरु वशिष्ठ जी की बात सुनकर अवधेश चौंके ।
क्या ? पद्मा सखी की बात सुनकर मै चौंकी ।
सिर झुकाकर खड़ा था वो दूत हमारे महाराज के सामनें ........
पद्मा नें कहा .............महराज कुछ समझ नही पा रहे थे ......
तभी सुनयना माँ आगयीं थीं ....................और सारी बात समझ दी थी सुनयना माँ नें ............
सुनयना माता नें कहा था...........महाराज ! ईश्वर की विशेष कृपा
हम जनकपुर वासियों पर बरस रही है .........
आप सोच में क्यों पड़ गए ........महाराज ! हमारे यहाँ भी तो सिया के अलावा .......माण्डवी , श्रुतकीर्ति, उर्मिला हैं तो सही .......।
बस इतना क्या सुना हमारे विदेहराज नें ........ उस विशेष दूत को अपनें गले का हार उतार कर दे दिया ...........
आनन्दित हो उठे थे हमारे महाराज .......सिया जू !
पद्मा नें मुझे ये सब बातें बतायीं ।
मै प्रसन्नता से भर गयी ...........मै बहुत खुश हो गयी थी ।
मैने सबसे पहले पद्मा को अपनें हृदय से लगाया ..........
फिर मेरे नयनों से आँसू गिरनें लगे थे............
पद्मा ! मै सोच रही थी ............कि मै ही जाऊँगी अकेली अवध ?
जाना तो अकेले ही पड़ता है ना ...अपनें ससुराल ......
पर ये तो कितना अच्छा हुआ ना ............मेरी बहनें भी मेरे साथ जायेंगी .............
क्या अच्छा हुआ जीजी ! जरा हमें भी तो सुनाओ !
मेरी सबसे लाड़ली बहन उर्मिला उछलती हुयी आगयी थी ।
अब तेरी चिन्ता भी खतम हो गयी उर्मिला !
मेरी सखी पद्मा उर्मिला से बोली ।
मेरी क्या चिन्ता ?
अब तू भी खुश हो जा ......................
क्या हुआ पर ? बड़ी मासूमियत से बोली थी उर्मिला ।
लक्ष्मण से अब तेरा विवाह होगा ...................
जीजी ! देखो ना ..........ये सब मुझे छेड़ती रहती हैं ।
तब मैने उर्मिला को अपनें अंक से लगाया था .........और उससे बोली थी मै .....हाँ ......उर्मिला ! हम चारों बहनें एक साथ विदा होंगीं .....।
शरमा कर भाग गयी थी उर्मिला ।
मै बहुत खुश हूँ आज पद्मा .................
हम चारों बहनें विदा होंगी .............हम चारों साथ रहेंगी ।
पद्मा ! ए पद्मा ! क्या हुआ ? बोल ना !
पद्मा रो उठी थी ..............और मेरे हृदय से लग गयी थी ।
सिया जू ! आपके जानें के बाद इस जनकपुर का क्या होगा ?
हमारा क्या होगा ?
मैने पद्मा को देखा .....वो अभी से विदाई के बारे में सोचनें लगी थी ।
शेष चरित्र कल ..............
Harisharan
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