आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 16 )
दूत अवधपुर पठए जाई ....
( रामचरितमानस )
********* कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
राम अद्भुत हैं , राम अनुपम हैं , राम अकल्पित अचिन्त्य शौर्य और महपराक्रमशाली हैं............उस रंगभूमि में से जब प्रणाम करके महर्षि परसुराम चले गए तब मेरे पिता जनक जी नें हाथ जोड़कर गदगद्कण्ठ से ऋषि विश्वामित्र से ये बात कही थी ।
हे ऋषि ! मै कृतकृत्य हो गया ............और आप तो जानते ही हैं कि कृतकृत्य का अभिप्राय ही ये होता है कि करनें के लिए अब कुछ शेष नही रह गया .........उस रंगभूमि में मेरे पिता जी कितनें भावुक हो उठे थे .......उनके नेत्रों से धन्यता के अश्रु बहते ही जा रहे थे ।
मुझे और क्या चाहिये अब ? मुझे अब करनें के लिए कुछ बचा ही नही है ...........आहा ! राम जैसे जामाता मिले .............इस विश्व ब्रह्माण्ड में जनक जैसा भाग्य किसका होगा भगवन् !
मै कन्या दान करूँगा .............मै जामाता के रूप में राम के चरण धोऊंगा ..........साथ में मेरी कन्या जानकी वाम भाग में सुशोभित होगी .........हे भगवन् विश्वामित्र जी ! जनक आज धन्य धन्य हो गया है ..........जनक को अब कुछ नही चाहिए ।
इतना कहकर मेरे पिता जी मौन हो गए थे ।
हे विदेह राज ! अब हम चलते हैं यहाँ से.........सीता को सौंप दो राम को ..... अब हम अयोध्या के लिए प्रस्थान करते हैं.......ऋषि विश्वामित्र नें कहा था ।
क्या !
ये सुनते ही रंगभूमि में मेरे पिता समेत माता मेरी सखियाँ और तो और समस्त जनकपुर वासी बिलख उठे थे .............
ये आप क्या कह रहे हैं हे भगवन् ! ये कैसे हो सकता है ........मुझे कन्या दान करना है ............मुझे चरण धोनें हैं अपनें दामाद और अपनी लाड़ली कन्या के ...........इन नेत्रों से अश्वारूढ़ दूल्हा राम के दर्शन करनें हैं .......अपनी पुत्री जानकी को दुलहिन के रूप में विदा करनें की आस लिए ये जनक और समस्त जनकपुर वासी बैठे हैं ....
हे भगवन् ! आप हमारी इच्छा पूरी करेंगें ऐसा हमारा विश्वास है ।
मेरे पिता जी सजल नयन से हाथ जोड़े ऋषि विश्वामित्र से बोले जा रहे थे ।
देखो ! विदेहराज ! ये जो स्वयंवर था ये प्रतिज्ञा के पूर्ण होनें के बाद ही सम्पन्न होनें वाला स्वयंवर था .......... इसमें वर को अपनी वरीयता सिद्ध करनी थी ..........वह राम नें कर दी है .........इसलिये हमें आप बाध्य नही कर सकते .....कि विवाह की विधि यहीं करनी ही पड़ेगी । ऋषि विश्वामित्र नें अपनी बात स्पष्ट कर दी थी ।
मै मानता हूँ आप सही बोल रहे हैं..........पर एक कन्या का पिता होनें के नाते मै आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि विवाह की सम्पूर्ण विधि यहीं पूरी की जाय ......ये कन्या के पिता की और से आपसे विनती है .......
मेरे पिता नें हाथ जोड़ते हुए ऋषि के चरणों में अपना मस्तक रख दिया था .........। अरे ! नही राजन् ! आप ये क्या कर रहे हैं .......!
ये विनती अब आपको चढ़ानी होगी .....चक्रवर्ती सम्राट महराज दशरथ को.......ऋषि नें समझाया मेरे पिता जी को ......क्यों की मेरे पिता इस समय मात्र एक कन्या के पिता की भूमिका में ही थे ।
आप आज्ञा तो दें .........मै क्या करूँ ?
मेरी माँ सुनयना नें भी आगे बढ़कर ऋषि के चरणों में प्रणाम निवेदित किया था ...............।
हे विदेहराज ! आप जितनी जल्दी हो सके अपनें विशेष दूत को अयोध्या भेजें .......और पत्र में चक्रवर्ती महाराज से निवेदन करें ।
आपको क्या लगता है भगवन् ! कहीं आनें से मना तो नही कर देंगें अवध नरेश ? मेरे पिता जी नें पूछा था ।
नही विदेहराज ! अवध नरेश बहुत अच्छे हैं ...........वो आपकी प्रार्थना को सुनते ही आयेंगें .......और उनके लाडले पुत्र का विवाह भी तो सम्पन्न हो रहा है ........आपके सन्देश से अवध झूम उठेगा मिथिलेश ।
और मै भी तो यही चाहता हूँ कि ....अवध और मिथिला का सम्बन्ध पक्का हो .............प्रेम के सूत्र में आप दोनों बंध जाएँ ..........।
आप शीघ्रातिशीघ्र दूत को भेजनें की व्यवस्था करें .........बाकी तो आप सब जानते ही हैं .......मार्ग में जहाँ जहाँ नदी पड़ेगी ......वहाँ सुन्दर सेतु का निर्माण कराना आवश्यक होगा ............और मार्ग में विश्राम के लिए शिविर लगाई जाए ............ऋषि विश्वामित्र की बातें सुनकर प्रसन्नता से भर गए थे मेरे पिता जी .........और बड़ी नम्रता से ऋषि विश्वामित्र और श्रीराम और लक्ष्मण को रँगभूमि से आवास की और स्वयं लेगये थे ।
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मेरी जनकपुर तो सजनें के लिए मचल उठी थी ...........
जनकपुर के लोग इतनें उत्साहित थे कि उनके उत्साह को मै नही लिख पाऊंगीं ...................कोई अपनें घर को सजानें में लगा था ......कोई अपनें लिये नए नए वस्त्र खरीद रहा था ........कोई सुन्दर सुन्दर बन्दनवार अपनें द्वार पर लगा रहा था ...........किसी नें तो अपनें ही घर में शहनाई बजवानी शुरू भी कर दी थी ...........कोई अगर उनसे पूछता तो जनकपुर के वासी कह देते .......हमारी बेटी सिया का विवाह है ......पर राजकुमारी के विवाह में तुम क्यों इतना उछल रहे हो ......तो मेरे जनकपुर वासी उत्तर देते .......नही, सिया मात्र हमारे राजा जनक की पुत्री ही नही है ........हम सबकी लाड़ली बेटी भी है सिया .........।
कितना उत्साह था .....कितना उमंग था उस समय .........मेरी जनकपुरी में ..........मेरे जनकपुर के लोगों में ..............।
मेरा ध्यान अब उस विशेष दूत पर था .........जो अयोध्या गया था ।
मेरी सखी चन्द्रकला नें ये व्यवस्था बना दी थी कि अयोध्या की सूचना भी हम तक पहुँच जाए ...............कि वहाँ क्या हुआ .....और वहाँ के लोग क्या कह रहे हैं ...............मेरी सखी चन्द्रकला कहती है........जहाँ प्रेम होता है ...........वहाँ आशंका ज्यादा ही रहती है .........।
मेरी दशा ऐसी ही थी ........कहीं अवध नरेश मना कर दें तो ...बरात लेकर आनें के लिये ......?
सखी चन्द्रकला कहती .........तुम भी ना सिया जू ! कुछ भी सोचती रहती हो ...............क्यों मना करेंगे अवध नरेश ?
उनके बेटे का विवाह हो रहा है ...............अयोध्या वासियों के तो लड्डू फूट रहे होंगें मन में ..............ये बात उर्मिला नें कही थी ।
पर उर्मिला ! तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहे हैं की नही ?
जीजी ! देखो ना .........ये सब मुझे छेड़ती हैं ............
उन छोटे राजकुमार का नाम लेकर छेड़ती हैं ....उर्मिला नें मुझ से कहा ।
अरे ! हमनें तो कुछ कहा ही नही है ...............ये कहते हुये सब हँस पड़ी सखियाँ .........किशोरी जी के अंक में अपना मुख छुपा लिया था उर्मिला नें ।
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मुझे चन्द्रकला ही आकर बताती थी .............कि आज ये हुआ अवध में जब दूत पहुँचा ...और अवध नरेश को सन्देश दिया ........
क्या पिनाक को तोड़ दिया मेरे राम नें ! ...............
उस रेशमी पीले वस्त्र में लिपटे पत्रिका को जब अवध नरेश नें पढ़ा .....
आनन्द के अश्रु बह चले थे अवध नरेश के ........।
पता है गुरु महाराज ! मेरे राम नें पिनाक तोड़ दिया .............और अब विदेहराज की पुत्री से उसका विवाह होनें वाला है .....कितनी नम्रता से निमन्त्रण दिया है .......निवेदन किया है मिथिलेश नें ।
अपनें गुरुदेव वशिष्ठ जी से ये सारी बातें कही अवध नरेश नें .........और उस सभा को वहीं विराम देकर .......और ये कहते हुए की आप सब लोग मिथिला चलनें की तैयारी करें .........।
पता है सिया जू ! अवध नरेश इतनें अच्छे हैं कि अपनें ही साथ अपनें निज महल में हमारे दूत को ले गए हैं ।
कौशल्या महारानी ! कहाँ हो ?
कैकेई ! आओ ना यहाँ !
सुमित्रा ! जरा बाहर तो आओ ।
अवध नरेश आनन्दित थे .................
क्या हुआ ? महाराज ! कुछ तो बताइये ...........क्या हुआ ?
अपनें अपनें कक्ष्र से बाहर आकर रानियों नें अवध नरेश से पूछा था ।
देखो ! मेरे राम का पत्र आया है ................
जैसे ही इतना सुना महरानी कैकेई नें ........वो तो पागलों की तरह दौड़ी महाराज के पास .....और पत्र को लेकर अपनें कक्ष में भागी .....
महाराज ! देखो ना .....पत्र लेकर कैकेई गयी .........अब आप ही बताइये क्या समाचार है ........कौशल्या जी नें महाराज से ही पूछा ।
"राम का विवाह हो रहा है"................पत्रिका को हाथ में लेकर उसे दिखाते हुए ..........उछल रही थी कैकेई ........मेरे राम का विवाह है ....
क्या सच ! मेरे राम का विवाह है ? कौशल्या जी नें पूछा था ।
तुम्हारे राम का नही ......मेरे राम का .......राम मेरा है ..........समझीं कौशल्या जीजी ! राम मेरा है ...........कैकेई अति आनन्दित थी .......
हाँ हाँ ......तुम्हारा ही है राम ...............
लो ! मेरा बेटा तो ये है .............आजा भरत ! आ ! कौसल्या जी नें आते हुये भरत को देखा .........अपनें पास बुलाया ........।
शान्त भरत कौसल्या जी की और देखते हुए बोले.....राज भवन में बात फैल गयी है की मेरे बड़े भैया श्रीराम की कोई पाती आई है ?
हाँ पुत्र ! "पिनाक" तोड़ दिया मेरे राम ने ..............और मिथिलेश की कुमारी जानकी से अब विवाह होनें जा रहा था .......मेरा राम दूल्हा बननें जा रहा है ।
नेत्रों से अश्रु बह चले थे भरत के .............आनन्द के कारण कुछ बोल ही नही पा रहे थे भरत ........शत्रुघ्न खड़े रहे ...........वो भी प्रसन्न्ता के कारण गदगद् थे ।
सिया जू ! विशेष सूचना के आधार पर ..............बरात चल पड़ी है अवध से .....................सखी चन्द्रकला नें जैसे ही मुझे ये बात बताई .....मै तो ख़ुशी के मारे उछल पड़ी थी ......और अपनी सखी चन्द्रकला को मैने अपनें हृदय से लगा लिया था ..........।
जीजी ! मुझे भी अपनें हृदय से लगाओ...........
उर्मिला खड़ी थी ......वही बोली.............
तुम्हे तो लक्ष्मण हृदय से लगायेंगें .............
जीजी ! देखो ना .....ये चन्द्रकला कुछ भी बोलती है ...............
अच्छा ! अच्छा आ...........मैने अपनी प्यारी छोटी बहन उर्मिला को अपनें हृदय से लगा लिया था ............
शेष चरित्र कल .............
Harishara
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