!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 9 !!

( शाश्वत की कहानियाँ )

!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 9 !!

यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः....
( श्रीमद्भागवत )

(  साधकों !  कल बारिश हुयी थी ........शाश्वत और हम   नाव में ही बैठे  थे.......यमुना जी का  जल स्तर बढ़ गया था  ।

शाश्वत कहता है -    छलकर बलकर बुद्धिकर सन्तन के मुख देओ
                             हुण्डी के से दाम सौं  हरि जू सों गिन लेओ ।

नरसी मेहता जी नें   सन्तों को खिला दिया ......और  कह दिया कि  दाम  द्वारिका से ले लेना .......वहाँ सांवरियाँ सेठ है  ।

मै लिख देता हूँ ..........सांवरियाँ सेठ के नाम से पर्ची ......नरसी नें लिख दिया  ।

पर   ये  लोग जब  अपनी हुण्डी के लिए  द्वारिका में खोजनें लगे .....साँवरिया सेठ कहाँ हैं  !    तब  कान में कलम दवाये ........पगड़ी बाँधें .......चश्मा  नाक तक  लटकाये .........चिल्लाते हुए आरहे थे .....नरसी मेहता की हुण्डी कोई लाया है ?

तब  वहाँ के सेठों नें कहा .......हाँ ...हाँ   हम लाये हैं  !

पर  क्या तुम ही हो सांवरियाँ सेठ ? 

ठाकुर जी रो गए ..........सेठ मै  कहाँ   ........सेठ तो नरसी मेहता है ...
मै तो उसका मुनीम हूँ  ।

शाश्वत  रो गया.............आगे वो कुछ सुना नही पाया ।

करीब  20 मिनट के बाद में  शाश्वत कहता है ...............सन्तों की सेवा करो ........."यही हैं   जो  संसार में   सकारात्मक ऊर्जा का सन्तुलन बनाकर रखते हैं "  ।

शाश्वत !   श्री रामानुजाचार्य जी के आगे के चरित्र को सुनाओ ना ........

मैने कहा  ।

मैंने डायरी दी तो है ...........उसी से उतार लो ना  !

  शाश्वत नें कहा ।

उतार तो लूंगा ..........पर शाश्वत !   जब तुम सामनें बैठे हो .....तो तुम ही सुना दो ...........मै इस शान्त और प्रेमपूर्ण वातावरण में  लिख लूंगा  ।

साधकों !  शाश्वत नें   आगे का चरित्र जो सुनाया  श्री रामानुजाचार्य जी का ......वो विलक्षण था .............शाश्वत और मेरा रो रोकर बुरा हाल था ........बाद में तो  आँसू बहते जा रहे थे .........और  हम लोग आँसुओं को पोंछते हुए हँसते जा रहे थे .......।

चरित्र ही इतना भावपूर्ण सुनाया था शाश्वत नें.........चलिये आप भी  उस  "उच्चतम" भक्ति का आनन्द लीजिये...........

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कल के प्रसंग से आगे  -

"श्री शैल" नामक स्थान से.......एक गरीब ब्राह्मण  दम्पति  "श्री रंगम"  में आये थे .....नही नही .....ये लोग  मात्र श्री रँग नाथ भगवान के दर्शन के लिए  नही आये थे......ये आये थे   श्री स्वामी रामानुजाचार्य जी से दीक्षा लेनें ।

बहुत नाम सुना था ..........इन्होनें  स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी का  ।

संस्कारी दम्पति थे......पति तो भक्त था ही.....पर पत्नी भी  कम नही थी ......बल्कि कहें  पति से भी ज्यादा श्रद्धा और भक्ति    पत्नी में थी ।

पहले तो  श्री रामानुजाचार्य जी नें मना कर दिया .............पर  पत्नी नें अपनें नेत्रों से अश्रु बहाते हुए  इतना ही कहा था ......स्वामी जी !   हम गरीब हैं .........क्या इसलिए  हम आपके शिष्य नही बन सकते ?

आहा !   स्वामी जी का हृदय पिघल गया  .............

तुरन्त बुलाकर   कान में मन्त्र फूँक दिया ..........तप्त शंख और चक्र का चिन्ह प्रदान किया ..........और  नाम रखा वरदाचार्य !   उनकी पत्नी नारायणी .........।

बहुत आनन्दित थे आज ये दोनों दम्पति ............।

कुछ दिन  रहे  श्री रंगम में..........सेवा करते थे  स्वामी जी की .....

पर एक दिन स्वामी जी नें कहा..........आप लोग अपनें घर जाएँ ....और घर में  ही   परिवार के साथ रहकर  प्रेम से भजन करें ।

सदगुरु की आज्ञा.........साष्टांग प्रणाम करके ......वो लोग  जब अपनें  "श्रीशैल"  की ओर प्रस्थान करनें लगे.......तब  इन्होनें  आचार्य  चरण से  एक ही प्रार्थना की थी.......हे भगवन् ! हमारे यहाँ,  हमारे घर को  एक बार  अपनें चरण पधराकर  अवश्य पवित्र कीजियेगा ।

आऊंगा !      और मेरे साथ  मेरे सन्त भी आयेंगें ।

स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी  की वाणी सुनकर   ये दम्पति बहुत  आनन्दित हो गये,   और अपनें गाँव लौट  आये थे  ।

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चलो ! श्री शैल पर्वत की यात्रा की जाए  !

एकाएक स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी नें अपनें वैष्णव परिकर से कहा ।

"आचार्य चरण"  की आज्ञा हो .......और कोई मना कर दे !

सब लोग चल पड़े  थे  श्री शैल  की ओर  ।

पर श्री शैल में  हम लोग प्रसाद कहाँ  पायेंगें ? 

साथ के  वैष्णवों को  चिन्ता हुयी .....और चिन्ता अपनी नही ....अपनें गुरुदेव  की थी  ।

अपना शिष्य हैं ना ........वरदाचार्य  ........उसी के यहाँ जायेंगें ।

पर वो तो गरीब है .......और हमारे साथ इतनें वैष्णव सन्त हैं ?

एक नें ये प्रश्न भी कर दिया था ......पर  रामानुजाचार्य जी नें इस प्रश्न पर कोई ध्यान नही दिया  ।

श्री शैल  पहुंचकर......वरदाचार्य के यहाँ गए.....श्री रामानुजाचार्य जी ।

द्वार पर जाकर आवाज दी .................द्वार खुला था .........भीतर चले गए  स्वामी जी .........और घर के आँगन में जाकर बैठ गए  ।

वरदाचार्य !     कहाँ हो तुम ?  

ओह !  इतनी मीठी  आवाज ! ......ये तो मेरे गुरुदेव की है......पत्नी नारायणी  आनन्दित हो गयी.....घर में उसका पति वरदाचार्य नही था ।

पर वो बाहर आये कैसे ?  

वो तो भीतर नहा रही थी .........और उसका जो दूसरा कपड़ा था  वो बाहर सूख रहा था .......दो ही जोड़ी तो कपड़े थे  इसके पास ।

वरदाचार्य कहाँ है  ?

स्वामी जी नें बाहर से   फिर  पूछा ।

वो बस यहीं  आस पास में हैं  भगवन् !    
भीतर से नारायणी नें  बताया ।

स्वामी जी समझ गए.........स्नान कर रही है नारायणी  और   इसके पास  साडी  दो ही जोड़ी हैं ..दूसरी सूखी नही है.........ओह ! हृदय पिघल गया  स्वामी रामानुजाचार्य जी का ....इतनी गरीबी !  

अपना पीला उत्तरीय  स्वामी रामानुजाचार्य जी नें  भीतर फेंक दिया .......जिसे पहनकर वो  अब बाहर आगयी थी  ।

आसन ,  जल इत्यादि  सब दिया   नारायणी नें ............

सुनो ! नारायणी !   ये सब  मेरे साथ आये हुए हैं......इनको सीधा सामान दे दो......ये लोग बना लेंगें....दाल चावल .....घी  इत्यादि दे दो ।

स्वामी श्रीरामानुजाचार्य जी नें  नारायणी से कहा ।

हाँ ......हाँ ....भगवन् !    बस   अभी ये सब सामन लेकर आती हूँ ।

इतना कहकर वो बाहर जानें लगी  नारायणी ।

पर तुम जा कहाँ रही हो ?       घर में होगा ना !   दे दो  घर से  ।

स्वामी जी की बातें  सुनकर  नारायणी बोली .........नही .....मै अभी   बढ़िया बढ़िया  सीधा सामान लेकर आती हूँ .........बाजार से लेकर आती हूँ ............इतना कहकर  वो बाहर चली  गयी  ।

नेत्रों से अश्रु बहनें लगे   नारायणी के .......हे नारायण !  क्या करूँ मै ?

घर में कुछ नही है  ......और आज मेरे सदगुरु भगवान घर में पधारे  और उन्हें  मै कुछ दे नही पा रही हूँ  ।

क्या करूँ  ?     

तभी  सामनें  दिखाई दिया .........वो व्यापारी !      

ओह !  ये व्यापारी   फिर दिखाई दे गया  !     .....मुँह फेर लिया नारायणी नें उस  व्यापारी को देखते ही  ।

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अरे भई !   पण्डित जी !  कहाँ हो  ?

व्यापारी तो घर में ही घुस गया था आज ।

पण्डित जी नही हैं .........जाओ ! जब पण्डित जी आएं तब आना ।

नारायणी नें  तेज़ आवाज में कहा । 

अरे !   तुम जब  नाराज होती हो ....तब और भी सुन्दर लगती हो .........क्या रूप दिया है भगवान नें तुम्हे ...............!

व्यापारी छूनें के लिए उत्सुक हुआ  ।

नारायणी  चिल्लाकर बोली ......मुझे हाथ मत लगाना ......नही तो  मार दूंगी ............।

अरे हम तो मर ही गए हैं........सुनो ! नारायणी !    बहुत पैसा दूँगा ........बहुत पैसा .......बस एक बार  मेरे साथ .........

खबरदार  जो ऐसी गन्दी बात अपनी जबाँ से भी निकाली तो ..........।

अच्छा  नही निकालते ऐसी गन्दी बात ..........पर कब तक ऐसी फ़टी मैली साड़ी पहनती रहोगी .............मेरे साथ  आओ ..........

मेरे लिए  ये गन्दी साड़ी  ही अच्छी  है ........जा तू  ।

ठीक है    अभी तो जा रहा हूँ ..........पर मेरी बात याद रखना    कभी भी आवश्यकता पड़े धन की  तो  मेरे पास आजाना ।

  कभी भी  ............

नही पड़ेगी ......दुष्ट !    जा तू  ।    

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व्यापारी की दुकान  .............

उसकी ओर देखनें की इच्छा भी नही हुयी   नारायणी को ।

पर  तुरन्त व्यापारी की वो   बात याद आई ..............

"कभी धन की  आवश्यकता पड़े तो मेरे पास चली आना"

आवश्यकता तो है  ..............पर ये शरीर ?  

नारायणी हँसती है .......इस शरीर का क्या है ?

मर जाएगा ........फेंक दो  कुत्ते खा जायेंगें ....जला दो  तो राख है ......नदी में डाल दो  तो मछली और कछुए का भोजन ?

आहा !  इस शरीर के माध्यम से  अगर  सन्तों की सेवा हो सके ........तो इससे धन्यता और क्या होगी  ?  

मुस्कुराती हुयी गयी व्यापारी के पास ।

आओ नारायणी !  आओ !      

बहुत खुश हुआ  व्यापारी  ।

धन चाहिए  सेठ  !   कुछ धन चाहिए था ।

नारायणी नें जाकर कहा  ।

धन ?  कितना धन चाहिए  ?     

बस .......हजार रूपये   ।

ले लो ................लो हजार ..............

ले लिए नारायणी नें हजार रूपये ...............

कब आओगी ?    

आज रात को ही आऊँगी   ।

अगर नही आई तो  ?   सेठ नें पूछा ।

ब्राह्मणी हूँ ......सेठ !  जो कहती हूँ  करती हूँ  ।

नारायणी   इतना कहकर चली गयी  ।

बाजार से  राशन का पूरा सामान लेकर  नारायणी घर में पहुंची है  ।

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वरदाचार्य   आगये थे घर में ..............वो  बहुत आनन्दित थे ।

अपनें सदगुरु रामानुजाचार्य को   अपनें घर में पधारे , देखकर ।

सामान लेकर पहुंची पत्नी नारायणी  ।

इतना सामान  ?  

भोजन बनानें की  तैयारियां शुरू हो गयीं थीं ।

पर  अकेले में वरदाचार्य लेगये  अपनी पत्नी नारायणी को ....

नारायणी !    इतना पैसा कहाँ से आया  ? 

और तुम्हारे पास तो कोई गहनें भी नही हैं ....फिर क्या बेचा तुमनें ?

ये शरीर बेचा  !    नारायणी नें  गर्व से कहा ।

हाँ पतिदेव !  ये शरीर बेचा .........उस व्यापारी नें इस शरीर की कीमत लगा दी थी ............पर  ये किस काम आता ये शरीर ?     आज  इतनें रूपये मिल गए हैं .............इस शरीर के ........बस एक रात के !

उस धन से सेवा हो रही है सन्तों की.............सन्त लोग  प्रसाद पायेंगें ..........इस शरीर का क्या है  पतिदेव  !    


रो गए वरदाचार्य........और अपनें हृदय से लगा लिया  नारायणी को ...धन्य हो तुम ......धन्य है तुम्हारी गुरु  सेवा   ।

अच्छा ! चलो अब तैयार हो जाओ ...............

पर पतिदेव !  यहाँ   गुरुदेव  का भोजन प्रसाद ? 

नारायणी नें कहा  ।

सन्त लोग स्वयं ही बना रहे हैं ................पर  तुमने वचन दिया है ना उस व्यापारी को .............झूठ बोलना ठीक नही है नारायणी !

चलो  तैयार हो जाओ  !

स्नान करती है नारायणी .....अच्छी सी एक साडी पहनाई स्वयं पति ने ........पैरों में महावार तो लगा लो ..........।

तभी  बाहर बारिश शुरू हो गई थी  ।

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द्वार खोलो ..........द्वार खोलो  ! 

नारायणी नें  व्यापारी के दरवाजे में पहुँच कर ...........आवाज लगाई ।

खुला है..........आजाओ भीतर  ।

व्यापारी नें कहा  ।

दरवाजा खुला ही था ........व्यापारी तो  प्रतीक्षा में ही था,  नारायणी के आने की  प्रतीक्षा  ।

वो  नारायणी  भीतर गयीं  .............

दिव्य तेज़ से भरा हुआ मुख मण्डल ..............नारायणी को देखते ही वो सेठ तो उठ गया  ।

वो बड़ी चली जा रही हैं सेठ के पास ।

चमकता हुआ चेहरा ..................आँखें,   मानों   चीरकर  हृदय की सारी बातें पढ़ रही हों ..........आगयी मै .........बोल अब क्या करेगा ?

एकाएक  नारायणी के उस दिव्य तेज़ को देखकर सेठ डर गया ।

ऊपर से लेकर नीचे तक  एक नजर डाली  सेठ नें  ।

आपके पैरों में महावर .....?    

बाहर तो बारिश हो रही है ना  ?       सेठ नें पूछा   ।

हाँ ....बाहर बारिश हो रही है........  नारायणी नें भी  उत्तर दिया  ।

फिर आपके पैरों की महावर  छूटी नही ?    

नही ..........मेरे पति मुझे  अपनें कन्धे में  बैठाकर लाये हैं  ।

नारायणी नें  स्पष्टता के साथ कहा ।

क्या !    चौंक गया  वो   सेठ  ।

अब कहाँ है  तुम्हारे पति  ?  

बाहर हैं ........नारायणी  नें कहा ।

दौड़ते हुए  बाहर आया वो व्यापारी ............

और जैसे ही देखा ..............आँखें बन्दकर के बैठे हैं ........ध्यान कर रहे हैं ............मुख से  "नारायण नारायण नारायण" निकल रहा है ।

पैरों में गिर गया   वो व्यापारी नारायणी के  ।

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माँ !   मुझ से बहुत बड़ा अपराध हो गया ......मुझे क्षमा करें ।

नारायणी के पैरों में गिरा हुआ है वो सेठ .......और रो रहा है ।

माँ ?     ये क्या कह रहे हो  तुम ?

नारायणी नें सेठ की ओर देखा  ।

हाँ .............इससे बड़ा अपराध और पाप क्या होगा  कि माँ के ऊपर कोई बुरी दृष्टि डाले ............आप तो  भक्ति की अवतार हैं ........

बताइये ना !  मेरे इस पाप का प्रायश्चित कैसे होगा  ?

सेठ को पश्चाताप होने लगा  था  ।

हे सेठ !  भगवतभक्ति से बड़ा और कोई साधन नही है .........भक्ति करो ......भक्ति ही  सरल और सुगम साधन है ......जो हमारे समस्त पापों का नाश करते हुए  ....... हमें भगवान की और उन्मुख कर देता है ।

नारायणी नें  सेठ को समझाया ।

मुझे भक्ति करनी है ..............सेठ का हृदय परिवर्तन हो चुका था ।

तो चलो हमारे साथ ..........हमारे यहाँ  भगवान श्री रामानुजाचार्य जी पधारे हैं ......उन्हीं से दीक्षा लो ........और भक्ति करो ।

सेठ को लेकर   नारायणी और उनके पति वरदाचार्य   स्वामी रामानुजाचार्य जी के पास .....अपनें घर में आये ।

अरे ! तुम दोनों कहाँ गए थे ...............हमनें प्रतीक्षा की .........खूब की ....फिर  हम लोगों नें   प्रसाद पा लिया  ।

स्वामी रामानुजाचार्य जी नें कहा  ।

ठीक किया भगवन् !     हमको तो आपका जूठन मिले  हम उसी में धन्य हैं ......ये हमारा सौभाग्य है......

नारायणी नें  अति आनन्दित होते हुए......स्वामी जी के पत्तल में से   उनकी प्रसादी लेकर  नारायणी नें अपनें पति को दिया ....और स्वयं उसको ग्रहण किया  ।

सेठ  नें  हाथ जोड़कर जब  स्वामी जी से  प्रसाद की याचना की    .....तब स्वामी जी नें इतना ही कहा था.....किसी के प्रति भी बुरी दृष्टि डालना ....ये नर्क के द्वार  को  खोलता है.......।

पर नारायणी  भक्ता है......इसनें  तुम्हे भी भक्त बना दिया .....।

सब स्तब्ध थे ........स्वामी रामानुजाचार्य जी को सब पता था ।

लो ग्रहण करो प्रसाद     सेठ ! ...................

और जब उस सेठ नें  स्वामी रामानुजाचार्य जी के प्रसाद को ग्रहण किया ........तब तो  उसका रोम रोम पुलकित हो उठा था ।

उसके अनन्त जन्मों के पापों का  भी क्षय हो गया था ।

शेष प्रसंग कल ..........

Harisharan

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