( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 5 !!
सोहम् विपाकावसरे मुकुन्द क्रंदामि सम्प्रगतिस्तवाग्रे ।
( श्री यामुनाचार्य )
कल के प्रसंग से आगे -
"तुम हमारे कुल के नही हो"
ईर्श्या चरम पर पहुँच गयी थी शिक्षक यादव प्रकाश की ..........
रामानुज के प्रति इनकी ईर्श्या बढ़ती ही जा रही थी ।
इतना सब होनें के बाद भी.......यादव प्रकाश नें रामानुज को मारनें का प्रयास भी किया .........फिर भी साधू हृदय रामानुज इसके यहाँ चले आते थे ...........इनके मन में द्वेष के लिए कोई स्थान ही नही था ।
पर आज यादव प्रकाश नें बोल दिया ...........रामानुज ! तुम हमारे कुल के नही हो .......इसलिये कल से यहाँ मत आया करो !
"ये हमारे कुल का है"..........आवाज में दिव्यता थी .........आवाज गम्भीर थी ............पीछे मुड़ कर देखा ........तो एक दिव्य महात्मा खड़े हैं ............गले में तुलसी और कमल की माला ...........मस्तक में उर्ध्वपुण्ड्र ..........एक आभा मण्डल उनके साथ चल रहा था ।
आप यामुनाचार्य जी हैं ?
आनन्द से उछल पड़े थे रामानुज ...............
हाँ ....इस शरीर का नाम यामुनाचार्य है ............
पर मै तो कांचीपुरी में भगवान वरदराज ( विष्णु भगवान ) के दर्शन करनें आया था .......पर मैने यहाँ आकर तुम्हारा नाम बहुत सुना ।
कांचीपुरी का राजा भी मुझे मन्दिर में ही मिला था .........उसनें भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ बताया ।
यामुनाचार्य जी रामानुज को बड़े प्रेम से सारी बातें बता रहे थे ।
तुम यहाँ क्यों हो ? तुम इस यादव प्रकाश के पास क्यों आते हो !
सही कहा इसनें .....तुम इसके कुल के नही हो .......तुम इसके कुल के हो भी नही सकते ..........तुम मेरे कुल के हो !
यामुनाचार्य जी नें छाती ठोक कर कहा ।
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यामुनाचार्य जी !
हाँ .............श्री रंगनाथ भगवान के परमभक्त ।
परमविद्वान ............और परम विनम्र ..........ये दोनों चीजें कम ही देखनें में आती हैं ........पर यामुनाचार्य जी में ये दोनों ही गुण थे ।
कहते हैं ........इनके पिता अपनी पैतृक सम्पत्ती इनके नाम करनें जा रहे थे .......यामुनाचार्य जी को साथ में लेकर ।
मार्ग में पड़ा .............भगवान रंगनाथ का मन्दिर ।
पिता जी ! मै दर्शन करके आऊँ ! यामुनाचार्य जी नें पिता जी से कहा - ज्यादा समय नही लगाउँगा ..........पिता जी ! बस दर्शन करके आही जाऊँगा ।
अच्छा ! जाओ ! जल्दी आना ............अपनी सम्पत्ती मुझे तुम्हारे नाम करनी है .................पिता जी इतना कहकर वहीं बैठ गए ।
यामुनाचार्य जी भगवान के दर्शन करनें गए ...............
बचपन से ही इन्हें श्री रंगनाथ भगवान से प्रेम था ......
श्री रंगनाथ भगवान इनके हृदय में आकर इनसे बातें करते थे ।
आज जब श्री रंगनाथ के दर्शन करनें गए रामानुज.......तब उदास मुख मण्डल दीखा भगवान का ।
नाथ ! आप उदास क्यों हो ?
कहीं मेरे कारण तो नही ? कहीं मेरे जैसे का मुख देखकर तो नही ?
नेत्रों से झरझर आँसू बहनें लगे थे ...............।
सब भूल गए .........बाहर पिता जी इन्तजार में हैं ................उन्हें अपनी सम्पत्ती मुझे देनी है ......सब भूल गए .......बस आँखों के सामनें हैं ........भगवान श्री रँग नाथ ।
यामुनाचार्य ! तुम मुझे चाहते हो या धन सम्पत्ती ?
हृदयवासी श्री रंगनाथ भगवान यामुनाचार्य से सम्वाद करनें लगे थे ।
नही नाथ ! अखिल ब्रहमाण्ड की सम्पत्ती भी तुम्हारे इन चरणों में न्यौछावर है । फिर मेरे पिता की सम्पत्ती का मुझे क्या मोह ?
तो आजाओ ना ! मेरे ही पास.........आजाओ ना ! यामुनाचार्य !
नेत्रों से अश्रुझरी लग गयी यामुनाचार्य जी के ।
सब कुछ भूल गए ...................
बाहर यामुनाचार्य जी के पिता नें जब देखा पुत्र आया नही .......तब अपनें पुत्र को खोजनें भीतर मन्दिर में गए .........
मन्दिर में जब दशा देखी ...............अपनें पुत्र यामुनाचार्य की .......
रो रहे हैं ..............हिलकियाँ बंध गयीं हैं ...........और गा रहे हैं ।
न धर्म निष्ठो स्मि न चास्मवेदी, न भक्तिमास्त्वच्चरणारविंदं ..
अकिंचनों नान्य गतिः शरण्यं त्वत्पादमूलं शरणं प्रपधे ।
हे प्रभो ! न तो मै धर्म निष्ठ हूँ .......न मै आत्मज्ञानी हूँ ....न मेरी आपके चरणों में भक्ति है .......बस नाथ ! मै केवल आपका हूँ .........आपके सिवा मेरा और कोई नही है ।
मै पापी हूँ .......मै अपराधी हूँ .............मेरे द्वारा कितनें निन्दित कर्म हुए हैं ....जिसका कोई हिसाब नही है नाथ !
यामुनाचार्य जी रोते हुए भाव जगत में पहुँच कर ये सब कह रहे थे ।
तभी एक व्यक्ति जो मन्दिर में खड़ा था ........वो बोल गया .....ये सही कह रहे हैं ....ये पापी है........इसनें गलत काम किया है .....अगर नही किया होता तो कोई ऐसे थोड़े ही बोलता !
यामुनाचार्य जी नें उस व्यक्ति को देखा ..........फिर उसका हाथ पकड़कर ले गए भगवान श्री रंगनाथ के सामनें ........नाथ ! मै पापी हूँ ....मै अपराधी हूँ ..........इसका प्रमाण भी मेरे पास है .....देखो ! ये भी कह रहे हैं ........कि मै अनेक जन्मों का पापी हूँ ......अब तो मुझे अपना लो ...........पतित हूँ .........बन जाओ ना तुम पतित पावन ।
तभी मन्दिर में एकाएक प्रकाश छा गया ..........भगवान श्री रंगनाथ प्रकट हो गए ....और यामुनाचार्य जी को अपनें हृदय से लगा लिया ।
यामुनाचार्य जी के पिता जी नें जब ये दृश्य देखा ......तो वह समझ गए .....अब ये हमारे काम का नही रहा ..............।
उसके बाद वो अपनें घर नही गए ........अपना सम्पूर्ण जीवन भगवान रंगनाथ के चरणों में चढ़ा दिया था ।
सम्पूर्ण तमिल समाज बड़े सम्मान से यामुनाचार्य जी का नाम लेता था ............सब लोग इन्हें "आलवन्दार" कहते थे ......तमिल में आलवन्दार कहते हैं ........"जिसनें संसार पर विजय पा लिया" ।
रामानुज जब से कांचीपुरी आये थे ....तभी से यहाँ के सन्तों के मुख से यामुनाचार्य जी की भक्ति ......उनकी निष्ठा ....उनका श्री रंगनाथ के प्रति प्रेम ............ये सुनते ही रहते थे ।
और मन ही मन में यामुनाचार्य जी को इन्होनें अपना गुरु भी मान लिया था ।
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मुझे आप अपना शिष्य स्वीकार करें !
साष्टांग प्रणाम करते हुए यामुनाचार्य जी से रामानुज ने कहा था ।
भगवान नारायण अनन्त दयार्णव हैं .......कोई अधिकारी अपनें अधिकार से वंचित रह जाए यह उनके राज्य में सम्भव कहाँ है रामानुज ?
यामुनाचार्य जी नें कहा .........योग्य गुरु की प्राप्ति तुम्हे समय आनें पर हो जायेगी .........योग्य अधिकारी को गुरु खोजना नही पड़ता ....गुरु स्वयं खोजता हुआ चला आता है .......देखो ! मै आगया ना !
इतना कहकर मुस्कुराते हुए यामुनाचार्य जी चल दिए ।
देखते रहे रामानुज........यामुनाचार्य जी को ................
पर इन्होनें तो मुझे दीक्षा नही दी ?
मन ही मन में अपनें आपको कोसनें लगे रामानुज ........सदगुरु ऐसे ही दीक्षा थोड़े ही देते हैं .....अपनी प्यास भी तो दिखानी चाहिए थी ना !
मन ही मन दुःखी हो गए थे रामानुज .......फिर विचार किया .......चलो ! एक बार इन्हीं के गाँव में जाऊँगा ..........और वहाँ जाकर इनसे दीक्षा लूंगा ......और भगवान श्री रंगनाथ के दर्शन भी कर लूंगा .......
हे रंगनाथ भगवान ! अब बस यही इच्छा है मेरी ! मुझे सदगुरु के रूप में श्री यामुनाचार्य जी ही मिलें ।।
आप तो सबकी इच्छा पूरी करते हो ना ! मेरी इतनी इच्छा पूरी कर दो !
रामानुज की ये इच्छा शान्त नही हुयी .........बल्कि दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी ।
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आप ही हैं रामानुज !
"महापूर्ण" मेरा नाम है ........मै यामुनाचार्य जी का शिष्य हूँ ......उन्होंने ही मुझे भेजा है आपके पास ....आपको उन्होंने बुलवाया है ।
एक ही साँस में सारी बात कह दी, यामुनाचार्य जी के इन शिष्य नें ।
ख़ुशी के मारे नाच उठे रामानुज ................
ओह ! मेरा इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा .........मुझे मेरे सदगुरु नें बुलवाया है ......।
बिना पादुका पहनें ही चल पड़े रामानुज अपनें गुरु यामुनाचार्य जी के पास .................।
दो दिन लगे थे......पर मार्ग में रामानुज केवल केवल अपने गुरु की ही चर्चा सुनते रहे .....और भाव सिन्धु में डूबते और उबरते रहे थे ।
महापूर्ण नामक यामुनाचार्य जी के जो शिष्य थे .......वो सारी बातें बताते ............कैसे भगवान रंगनाथ उनसे बातें करते हैं ......कैसे रंगनाथ भगवान उनके दिए गए भोग को स्वीकार करते हैं ।
जब श्री रंगनाथ भगवान की आरती होती है .....तब कैसे नृत्य करते हैं ।
नही नही ....ऐसा मत सोचना रामानुज ! कि.......ये विद्वान नही हैं ....तुम कहीं सोचो ......भावुक मात्र हैं ...........।
नही ............बहुत उद्भट विद्वान हैं ...........शास्त्रार्थ में अनेकानेक विद्वानों को पराजित किया है हमारे सदगुरु देव नें .......।
बड़े ध्यान से ...तन्मय होकर यामुनाचार्य जी के बारे में रामानुज सुनते रहे ........और ये सोच कर उन्हें बारम्बार रोमांच भी हो रहा था कि ....मुझे दीक्षा देंगें .........मै "श्री वैष्णवी" दीक्षा लूंगा ........मेरे कान में उनके मन्त्र, मेरे प्राणों में जाकर एक हो जायेंगें ।
ऐसे विचार करते हुए रामानुज नें दो दिन की यात्रा सहजता में ही पूरी कर ली .......पर जब पहुँचे यामुनाचार्य जी के पास ...........
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भारी भीड़ उमड़ी हुयी थी ........यामुनाचार्य जी की कुटिया में ।
इतनी भीड़ क्यों है ? रामानुज नें पूछा ।
जब उन्हें इसका उत्तर मिला ................
धड़ाम से धरती पर गिर पड़े थे रामानुज ।
आँखों से अश्रु प्रवाह चल पड़ा था........रामानुज के लिए तो मानों ये जगत शून्य ही हो गया ।
यामुनाचार्य जी नें अपना शरीर त्याग दिया था ।
रंगनाथ भगवान के पास जब यामुनाचार्य जी का पार्थिव शरीर लाया गया .......तब रामानुज नें रंगनाथ भगवान के सामनें खड़े होकर भगवान को ही खूब भला बुरा कहा ............।
मैने क्या माँगा था अपनें जीवन में प्रभो ! ....बस यही ना ....कि आलवन्दार श्री यामुनाचार्य जी से मुझे दीक्षा मिले ........पर आपनें मेरी इतनी सी इच्छा भी पूरी नही की ।
भक्ति से पवित्र हुए उन यामुनाचार्य जी के शरीर को जब सजल नेत्रों से
......रामानुज नें देखा ..........तो चौंक गए ।
ये क्या यामुनाचार्य जी की तीन उँगलियाँ मुड़ी हुयी हैं ।
कोई इस रहस्य को नही समझ पाया ........अनेकों को तो ये रहस्य भी नही लगा. ......पर रामानुज नें समझ लिया ।
यामुनाचार्य जी के पार्थिव शरीर के पास खड़े होकर ......रामानुज नें उद्गोषणा की ..................
मै भगवत्भक्ति का प्रचार करूँगा ..............भगवान नारायण की करुणा से ..... जगत को परिचित कराऊंगा .........।
इतना कहते ही ......एक मुड़ी हुयी ऊँगली सीधी हो गयी ।
मै ब्रह्मसूत्र का भाष्य करूँगा ..........और वो भी भक्ति परक भाष्य ।
क्यों की मेरे सदगुरु यामुनाचार्य जी की इच्छा यही थी ।
दूसरी ऊँगली सीधी हो गयी ......यामुनाचार्य जी के पार्थिव देह की ।
तमिल में बहुत भक्ति ग्रन्थों की रचना हुयी है .......पर मै उन्हें संस्कृत में अनुवादित करके ..........जनजन तक पहुंचाउंगा ।
इतना कहते ही ...तीसरी भी ऊँगली सीधी हो गयी यामुनाचार्य जी की ।
तभी जनसमूह जो उमड़ा था यामुनाचार्य जी की अंतिम यात्रा में .....उन सबनें ............यामुनाचार्य जी के साथ साथ रामानुज की भी जयजयकार की .......फूल बरसाए ..............।
विधि पूर्वक अंत्येष्टि की गयी ....यामुनाचार्य जी के देह की ।
रामानुज पूरी अंत्येष्टि में साथ ही रहे .........बारम्बार आँसू पोंछते हुए देखे जा रहे थे रामानुज ........................।
ना ! अपनें कांचीपुरी लौटते समय ........श्री रंगनाथ भगवान के दर्शन नही किये रामानुज नें .........यामुनाचार्य जी के शिष्यों नें कहा भी ......श्री रंगनाथ भगवान के दर्शन तो कर लो ........।
तब रामानुज का एक ही उत्तर था ..........मै ऐसे निष्ठुर भगवान के दर्शन नही करना चाहता ...........हिलकियों से रोते हुए बोले थे रामानुज ....
मेरी इतनी इच्छा पूरी नही की गयी इनसे ?
रामानुज का प्रेम, गुरु के प्रति अपूर्व था...........इस प्रेम से श्री रंगनाथ भगवान को भला क्या आपत्ति हो सकती थी ...........।
शेष प्रसंग कल .............
Harisharan
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