( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 13 !!
ततश्चाविरभूत साक्षात् श्रीरमाभगवत्परा...
( श्रीमद्भागवत )
कल से आगे का प्रसंग ........
दक्षिण भारत में काञ्चीपुर से कुछ मील दूर ही....."कूर आग्रहार" नामक एक राज्य था ।
उसके राजा थे कूरेश जी महाराज ।
राजा ब्राह्मण थे ...........पर अत्यधिक उदार थे ।
उनके राज्य में कोई गरीब नही था .......उनके राज्य में कोई भूखा नंगा नही था ......राजा प्रजावत्सल तो थे ही .......पर अत्यधिक धार्मिक भी थे ....आस्तिकता इनके जीवन में कूट कूट के भरी हुयी थी ।
नही नही ........राजा कूरेश जी की धर्म पत्नी भी पति के पद चिन्हों में ही चलनें वाली थीं ।
राजा कूरेश माँ लक्ष्मी जी के परमभक्त थे ।
इन्हीं की कृपा ही थी .....जो इनका राज्य अति सम्पन्न था ।
उन दिनों चोल राजवंश का दक्षिण भारत में बड़ा प्रभाव था .......
इस वंश के राजा नें शैव मत को ही विस्तार देनें का काम किया ।
वैसे शैव मत को विस्तार देना कोई गलत नही है......पर शैव मत के प्रचार में ये लोग वैष्णव मन्दिरों को और वैष्णवों को भी मार देते थे ।
वैसे चोल राजवंश नें अपनें राज्य का इतना विस्तार किया कि ....श्री लंका तक इनकी पहुँच थी ..........वैष्णवों में और शैवों में जो हिंसा हुयी है ......दक्षिण भारत में .....उस हिंसा फैलानें का कार्य इसी चोल राजवंश नें ही किया था .........आज कल इस वंश के राजा थे ....कोलुतुंग ।
वैसे राजा कूरेश जी तो इस चोल राजवंश की तुलना में बहुत छोटे राजा थे ........पर राजा कूरेश जी की सम्पत्ती और इनकी प्रजावत्सलता देखकर इस चोल राजवंश के भी कान खड़े हो गए थे ।
बड़े दुःखी रहते थे राजा कूरेश ...........इनके मन में एक ही बात का दुःख था कि .........बेचारे वैष्णव तो सदा से ही सरल और सहज हैं ........इनसे किसी का कुछ बिगड़नें वाला भी नही है ........फिर क्यों चोल राज वंश वैष्णवों को समाप्त करनें में तुला है ।
महादेव शिव का सम्मान आदर तो वैष्णव भी खूब करते ही हैं .....अपना आदि गुरु वैष्णव भी मानतें ही हैं महादेव शिव को .......फिर ये नए नवेले शैव बने लोग ......क्यों निरपराध वैष्णवों को मारने के लिए उतारूँ हैं । राजा कूरेश जी को बड़ा कष्ट होता ....जब वो ये सुनते ....कि वहाँ की हजारों वर्ष पुरानी विष्णु भगवान की मूर्ति तोड़ दी चौलवंश के राजा कोलुतुंग नें ......और उसमें महादेव शिव का मन्दिर बना दिया ............इतना ही नही .......हजारों वैष्णवों को मार करके समुद्र में फेंक दिया ..............।
राजा कूरेश जी का हृदय रो पड़ता था .......और वो नित्य अपनी आराध्या माँ लक्ष्मी जी की प्रार्थना किया करते थे ।
लक्ष्मी जी नें अपार धन दिया था .......राजा कूरेश जी को ।
पर इस राजा नें सम्पत्ती का उपयोग कभी भी अपनें लिए नही किया ।
सदैव प्रजा के लिए ही ................।
इसी बात से तो चोल नरेश कोलुतुंग की आँख की किरकिरी बन गए थे कूरेश जी ।
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पौष का महीना था ...........ये महीना लक्ष्मी जी का ही महीना माना जाता है .....और विशेष दक्षिण भारत में तो इसे ज्यादा ही मानते हैं ।
इस महिनें में विशेष पूजा करते थे राजा कूरेश माँ लक्ष्मी जी की ।
मात्र जल पीकर आराधना में लीन हो जाते थे राजा ।
एक दिन पूजा करते हुए .....राजा और रानी दोनों को हल्की सी झपकी आगयी ..............तभी -
हे राजन् ! मात्र मेरी पूजा करनें से तुम्हे वो नही प्राप्त होगा ...जिसको प्राप्त करनें के लिए ये मनुष्य जीवन तुम्हे मिला है ।
मूल तत्व हैं श्री नारायण .................मै तभी प्रसन्न होती हूँ .....जब मेरे स्वामी नारायण के साथ मुझे पूजा जाता है ।
जाओ ! वत्स ! मै तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ .............इसलिये तुम्हे कह रही हूँ .......श्री रंगम जाओ ! और वहाँ जाकर श्री रामानुजाचार्य जी से दीक्षा लेकर वैष्णव बन जाओ ........तभी तुम वैष्णवता का जन जन में प्रचार कर सकोगे ।
मेरी ये इच्छा है .....तुम अपनें हृदय में मेरे स्वरूप के साथ भगवान नारायण का स्वरूप भी रखो ......तभी हम दोनों पूर्ण होंगें ....तभी तुम्हारी आराधना भी पूर्ण होगी ।
जाओ वत्स ! जाओ .......कमल के आसन में विराजमान श्री माँ लक्ष्मी जी नें राजा कूरेश और उनकी पत्नी को ये आदेश दिया था ।
आँखें खोलीं राजा कूरेश नें ...........साथ में उनकी पत्नी नें भी ।
राजा नें अपनी पत्नी से पूछा ........देवी ! तुमनें क्या देखा ?
पत्नी नें उत्तर दिया ........हमें वैष्णव बननें की आज्ञा दी है माँ नें.......
और वो वैष्णव भी श्री रंगम में विराजमान श्री रामानुजाचार्य जी से ।
राजा कूरेश उठकर नाचनें लगे .............आहा ! मै कहाँ अधम !
मै कहाँ पापी ! और माँ लक्ष्मी की करुणा देखो तो ! हमें सद् मार्ग दिखा दिया .........बड़े बड़े रुद्रादि देवों से वन्दिता माँ लक्ष्मी नें हमें समझाया ..........हमारा कल्याण किसमें है .... ये हमें बताया !
राजा कूरेश आनन्दित हो गए थे..................
उसी दिन सम्पूर्ण प्रजा को बुलवाकर जितनी सम्पत्ती थी अपनें राजकोष में .....सब कुछ बाँट दिया ।
पत्नी से भी बोले ........हम अब वैराग्य को धारण करनें के लिए जा रहे हैं .......इसलिये कुछ भी अपनें साथ न रखना ।
सम्पत्ती सब कुछ प्रजा में लुटा दी थी राजा नें ....जो वस्त्र पहनें थे उतनें ही पहन कर चल दिए .....राजा और रानी दोनों श्री रंगम की ओर ।
इसका हल्ला सम्पूर्ण दक्षिण भारत में हो गया था .......तभी तो चोल राजवंश का राजा इनसे और चिढ़नें लगा था ।
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मुझे डर लग रहा है ......पता नही स्वामिन् ! मुझे बहुत डर लग रहा है ।
पत्नी नें अपनें पति कूरेश जी से डरते हुए ये सब कहना शुरू किया ।
पर डरने की जरूरत क्या है ? हम लोग तो माँ लक्ष्मी की आज्ञा से ही आये हैं ना ........फिर जो भी करेंगीं माँ ही करेंगीं ना !
कहीं चोल राजवंश के सिपाही ? उसके सिपाही कहाँ ? उसके तो सिपाही भी दस्यु ही हैं .......पत्नी अभी भी डर रही है ।
कूरेश जी थोड़ी देर विचार करनें लगे .......फिर सहजता में बोले ......सच सच बताओ ......तुम्हारे पास कुछ सुवर्ण इत्यादि तो नही है ?
पत्नी नें कुछ उत्तर नही दिया ।
क्यों क्या हुआ रानी ? तुम्हारे पास में कुछ है क्या ?
क्यों की तुम्हे डर लग रहा है ........कुछ होता है तभी डर लगता है ।
जिसके पास कुछ नही होता .....उसे डर क्यों लगनें लगा ।
पत्नी नें बिना कुछ कहे ..........सुवर्ण का एक पात्र छुपाकर रख लिया था ..............उसे ही अपनें पति कूरेश जी को दे दिया ।
हँसते हुए बोले कूरेश जी ...........देखो ! मै कह ही रहा था ..........जिसके पास कुछ नही होता .....उसे डर ही नही होता ।
वो सुवर्ण का पात्र उठाकर कावेरी नदी में फेंक दिया कूरेश जी नें ।
अब तो डर खतम हो गया था रानी का ...........निश्चिन्त होकर श्री रंगम पहुँच गए ये दोनों पति पत्नी ।
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हे भगवन् ! मुझे दीक्षा दीजिये ................
कूरेश जी केवल राजा ही नही थे......ये विद्वान भी थे ......बहुत विद्वान ।
रामानुजाचार्य जी के चरणों में प्रणाम करते हुए ये बोले थे .......
क्वाहं कृतघ्नः पापिष्ठो दुर्मनाः परवंचकः
क्वासौं लक्ष्मीः जगन्माता ब्रह्म रुद्रादि वन्दिताः ।।
अब तो मुझे पूरा विश्वास हो गया है .......हे भगवन् ! कि मेरे ऊपर भगवान नें कृपा ही की है .......नही तो मै क्या हूँ ।
मै तो आपके पास भी आने लायक नही था भगवन् ! मै कहाँ विषय में लीन रहनें वाला तुच्छ प्राणी .........कपटी , नीच ...........ऐसे को भी माँ लक्ष्मी जी नें आपके पास भेज दिया ...........अब तो हे नाथ ! आपही इस तुच्छ दीन हीन का कल्याण कीजिये ........।
इतना कहते हुए ...........जैसे ही अश्रु बहनें लगे कूरेश जी के ।
उठे श्री रामानुजाचार्य जी .....और अपनें हृदय से लगा लिया कूरेश जी को ................।
अधिकारी जानकर श्री रामानुजाचार्य जी नें श्री वैष्णवी दीक्षा दे दी .....कूरेश जी को और उनकी धर्म पत्नी को ।
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राजमहल में रहनें वाले राजा रानी .....आज भिक्षा माँग कर खाते हैं ।
श्रीरामानुजाचार्य जी नें ही भिक्षा माँगनें की आज्ञा दी थी ........ताकि अंहकार कभी फन न उठा सके ।
पर 5 दिन से कूरेश जी भिक्षा माँगनें नही गए .......बीमार पड़ गए थे ।
पत्नी सेवा में लगी हुयी थीं ..............।
मुख से बस कूरेश जी के ........नारायण नारायण नारायण !
कोई साँस व्यर्थ नही जानें देना चाहते थे ।
भूख की कहाँ चिन्ता थी उन्हें......चिन्ता थी तो इसी बात की कि भजन नही हो रहा ......हे नाथ ! आपका भजन नही हो रहा .....कृपा करो ...... मेरे नाथ ! मन को बस अपनें भजन में ही लगा दो ........।
पत्नी से ये सब देखा नही जा रहा था......पीनें के लिए मात्र जल था इनकी कुटिया में.......और निरन्तर भगवन्नाम ...का जप ।
भूख से भी शारीरिक अस्वस्थता आही जाती है ......मेरे पति को इस समय भोजन चाहिये........क्या करूँ ? पत्नी सोच रही थीं ....
कि तभी......मन में आया .....क्यों न श्री रंगनाथ भगवान से ही माँगू !
पर क्या वो देंगें ? पत्नी नें फिर विचार किया ।
क्यों नही देंगें ...? मेरे पति नें इनके लिए अपना राज्य छोड़ा है ।
कितना विशाल वैभव था .............हजारों दास दासियां थीं ......इनका कितना कोमल शरीर ! पर आज ?
रो गयी वो कूरेश जी की पत्नी ।
हे श्रीरंगनाथ ! तुम्हारे लिए इन्होनें सब कुछ छोड़ा है .......पर तुम क्या इन्हें भोजन भी नही दे सकते ?
रो रही है ..............कूरेश जी की पत्नी ।
हे लक्ष्मी रमण ! तुम्हारे लिए इन्होनें एक क्षण भी नही लगाया ......सब कुछ त्यागनें में.......पर आप इनके साथ क्या कर रहे हो ये ?
आँसू गिरनें लगे कूरेश जी के ऊपर ।
ज्वर इतना बढ़ गया था कूरेश जी का ........कि मूर्छित ही हो गए थे ।
पत्नी से ये सब देखा नही गया.........उनका लाल चेहरा हो गया था ।
जल ..जल ...जल........ज्वर में बोल रहे थे ....पानी के लिए ।
हाँ .मै जल लाती हूँ ........बाहर गयी ...........पत्नी अपनें आँसुओं को पोंछती हुयी ......बाहर से जल लेकर आई .........
पर जैसे ही जल लेकर आई ........चौंक गयी .........उसके हाथ में जो जल का पात्र था वो धरती में गिर गया था ।
छप्पन भोग की थाली वहाँ पर रखी हुयी थी ।
अरे ! ये क्या ? फिर ख़ुशी के आँसू बह गए थे पत्नी के ।
आपनें मेरी प्रार्थना सुन ली ....रँगनाथ ! .........जय हो ...जय हो ।
इतना कहती हुयी .............वो थाली की प्रसादी लेकर कूरेश जी को खिलानें लगी ......पर कूरेश जी नें भी जैसे ही एक कौर खाया प्रसाद का ......उनके शरीर में जो रोग था ......वो सब खतम ही हो गया ।
पूर्ण स्वस्थ हो गए थे कूरेश जी ।
उठकर बैठ गए ....................
चारों ओर देखा .....सुवर्ण की थाली ? इसमें पकवान मिठाई हैं ?
कूरेश जी की आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं ............देवी ! ये तो भगवान श्री रँग नाथ जी की भोग थाली है ....यहाँ कैसे आई ?
पत्नी सिर झुकाकर बैठी रही .........कुछ न बोली ।
बोलो ! क्या बात है ....ये थाली यहाँ कैसे आई ?
पत्नी नें पति की ओर देखा ...........नेत्रों से झरझर आँसू बहनें लगे ........
हे पतिदेव ! आपका ज्वर बढ़ता जा रहा था ........आपनें पाँच दिन से कुछ खाया नही था....तो मैने भगवान श्री रंग नाथ को ही कह दिया ।
क्या कहा ? बोलो क्या कहाँ तुमनें भगवान श्री रंगनाथ से.......कूरेश जी नें पूछा ।
हिलकियाँ बंध गयी थीं पत्नी की .........मैने कहा .........हे नाथ ! मेरे पति नें आपके लिए क्या नही किया .........और आप भोजन तक नही दे रहे हो ......कैसे जगत पति हो आप ?
अब बारी थी कूरेश जी के रोनें की.........
ये क्या कह दिया देवी ! तुमनें ?
मेरे इस शरीर के कारण .....तुम मेरे अत्यंत कोमल भगवान श्री रंगनाथ को कष्ट दोगी ?
ये शरीर तो रहे ...जाए ......क्या मतलब ? मिट्टी , पानी , प्रकाश, अग्नि और आकाश से बना हुआ है .......ये शरीर ।
इसके लिए तुम मेरे भगवान को कष्ट दोगी ?
आहा ! मेरे भगवान को कितना कष्ट हुआ होगा ........मेरे लिए ये थाली मन्दिर से स्वयं लेकर आये भगवान.....बस इतना कहते हुए रोते जा रहे हैं कूरेश जी ।
तभी एकाएक उठकर खड़े हो गए....और कावेरी नदी के पास जानें लगे ।
कहाँ जा रहे हैं आप ? बताइये ना कहाँ जा रहे हैं आप ? पत्नी नें पूछा ।
कावेरी नदी में ..........कूरेश जी ने कहा ।
पर क्यों ? पत्नी नें बिलखते हुए फिर पूछा ।
मै इस शरीर को अब नही रखूंगा......क्यों की इस शरीर के कारण ही तो तुमनें मेरे भगवान को कष्ट दिया ना ! देवी ! मै इस शरीर को नही रखूंगा ।
नही .......आप ऐसा नही कर सकते.....आप ऐसा नही करेंगें ।
रोती हुयी दौड़ी कूरेश जी की पत्नी श्री रामानुजाचार्य जी के पास ।
दौड़े दौड़े आचार्य चरण भी आये......और कावेरी में कूदते हुए कूरेश जी को पकड़ लिया श्री रामानुजाचार्य जी नें ।
पागल हो गए हो क्या ! क्या कर रहे थे तुम कूरेश ?
रामानुजाचार्य जी नें पूछा ।
तब सारी घटना बता दी कूरेश जी नें.....कि मेरी पत्नी नें भगवान रंगनाथ को भला बुरा कहा ........उसके कारण श्री रंगनाथ भगवान को अपनी थाली मुझे देनी पड़ी .....।
रामानुजाचार्य जी नें अपनें हृदय से लगा लिया था कूरेश जी को ।
तब कूरेश जी नें पत्नी से कहा ........तुमनें गलत किया है ।
नही कोई गलत नही किया तुम्हारी पत्नी नें ........रामानुजाचार्य जी नें समझाया ......क्या द्रोपदी गलत थी .? क्या गजेन्द्र गलत था ?
सकाम भक्ति गलत ही है ऐसा नही मानना चाहिए .........हाँ निष्काम की बहुत महिमा है ......पर सकाम की भी कम महिमा नही है ।
पर आजके बाद तुम भगवान को कष्ट नही दोगी !
कूरेश जी नें अपनी पत्नी से कहा ।
चरणों में गिरते हुए पत्नी बस आँसू बहा रही थी ..............
शेष चर्चा कल ..........
Harisharan
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