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!!  श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 12  !!

( शाश्वत की कहानियाँ )

!!  श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 12  !!

तस्मात्परतरं देवि तदियानांसमर्चनम्....
( नारदपंचरात्र )

( साधकों !     "श्रीरामानुजाचार्य चरित्र" को लिखते हुए  शाश्वत  बीच बीच  में अपनी विशेष टिप्पणी भी लिखता जाता है  ।

वो टिप्पणी  बहुत गम्भीर  होती है.......और साधकोपयोगी  होती है ।

शाश्वत के कक्ष में  गया था कल मै ............वो बैठा हुआ था .........और उसके हाथ में "भक्तमाल" थी ........मुझ से कहता है........भक्तों की इन कहानियों को पढ़नें से  भी बहुत लाभ है  ।

वैसे हर ग्रन्थ का कुछ न कुछ उद्देश्य होता ही है ..........ऐसे ही भक्तमाल का उद्देश्य है ..........अन्तःकरण पवित्र हो ..............हृदय शुद्ध बने .......तभी तो भगवान आकर  उसमें बैठेगें ........।

भगवान से भी ज्यादा महत्व भगवान के भक्तों का है .............

फिर बड़ी गम्भीर मुस्कुराहट देते हुए कहता है  शाश्वत ......

"माल मूल हरि देत हैं ........पर , हरिजन हरि हीं देत"

श्री हरि तो पैसा देते हैं........धन सम्पत्ती देते हैं .......पर  हरिजन( सन्त ) तो  साक्षात् हरि को ही  लाकर तुम्हारी गोद में रख देंगें  ।

शाश्वत आज ज्यादा ही भाव में है  ।

प्रेम बढ़ेगा..........श्रद्धा बढेगी .......सर्वत्र हरि ही दिखाई देँगे ।

भक्तों की कथा कहानियाँ सुनो .......शायद वेदान्त के श्रवण से भी  वो चमत्कार नही होता .........जो चमत्कार  भक्तों की इन कहानियों को सुननें से,   पढ़नें से हो जाता है......हाँ  ये हैं  तो  कथा कहानियाँ  .......पर  अन्तःकरण को शुद्ध कर देगी .........।

शाश्वत कहता है.............इन भक्तों की  कथा कहानियों को सुनिए , पढ़िये  .....और  आप पायेंगें की आप में परिवर्तन आरहा है  ।

पक्की बात  कह रहा हूँ  मै शाश्वत ...............आपके नेत्र सजल न हो जाएँ तो कहना ...........इन कथाओं को   आप  विश्वास और श्रद्धा से सुनिए ...........आपका हृदय न पिघल जाए तो कहना  ।

आज भाव जगत में स्थित है शाश्वत  ।

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कल से आगे का प्रसंग .......

वो बड़ी श्रद्धा रखता था   वैष्णवता के प्रति .............

वो दीक्षा लेना चाहता था  बहुत पहले ही   श्रीरामानुजाचार्य जी से ।

पर उसको इच्छा थी  कि  मेरी पत्नी जब स्वयं कहेगी   मुझे भी दीक्षा लेनी है  ........तब  मै दीक्षा लूंगा  ।

पर उसकी पत्नी  भी तो  कम नही थी  श्रद्धा भक्ति में........शायद अपनें पति से ज्यादा ही थी ........एक दिन कह ही दिया......पतिदेव !  मेरी इच्छा है  कि   हम दोनों ही   आचार्य चरण श्री रामानुज से  दीक्षा लें ।

ये सुनते ही   वो  तो  अपनी पत्नी को ही उठाकर नाचनें लगा था  ।

देवी !    अच्छे कार्य में बहुत विघ्न आते हैं ........इसलिये  इस शुभ कार्य को जितनी जल्दी हो सके  हम करें  ।

और अच्छा हो कि  कल  ही हम लोग  स्वामी श्रीरामानुजाचार्य जी से दीक्षा लें लें.......दोनों दम्पतियों  नें ये बात  आचार्य चरण के सामनें रखी .........आचार्य चरण नें  इन दोनों दम्पतियों की श्रद्धा देखकर .....हाँ बोल दिया ............।

दीक्षा  लेनें वाले का दूसरा जन्म होता है .................श्री रामानुजाचार्य जी   दीक्षा देते हुए  उपदेश कर रहे थे  ।

गोत्र बदल जाता है.........."अच्युत" गोत्र हो जाता है   ।

और  जैसे  समगोत्री को  भाई कहते हैं .......ऐसे ही   इस वैष्णवता में भी  अच्युत गोत्री जितनें होते हैं .......उन सबको  अपना मानना पड़ता है ।

"ताप".......श्री रामानुजाचार्य जी,   शंख और चक्र की तप्त छाप  बाहुओं में  लगा रहे थे ......"अब तुम नारायण के हो गए"  आचार्य चरण नें कहा  ।

"मस्तक में  सुन्दर  तिलक" .............ये मन्दिर है  ..........ये जो तिलक है     ये श्री नारायण भगवान का मन्दिर है ........और मध्य में जो लाल   टीका है ..........वो भगवान का प्रतिक है .....तिलक लगा देते  हुए  श्री रामानुजाचार्य जी नें कहा  ।

'गले में तुलसी की माला" ..............ये  तुलसी की माला   इस बात का प्रमाण है  कि  तुम्हारे स्वामी नारायण हैं......तुम सिर्फ नारायण के हो ।

जैसे सुहागन स्त्री मंगलसूत्र या  पोत लगाती हैं ..........ऐसे ही वैष्णव भक्त  लोग तुलसी की माला लगाते हैं............ये कहते हुए  स्वामी श्री रामानुजाचार्य जी नें  गले में तुलसी की माला धारण कराई ।

"नाम".........जैसे  बालक का जन्म होता है .......तो   उसका समय पर नामकरण संस्कार होता है .....ऐसे ही वैष्णवों में   भी नाम रखनें की परम्परा है .......ताकि   उसे लगे कि ......जो बीत गयी वो तो दूसरे जन्म की बात है ..........ये जन्म तो मेरा नया हुआ है  ।

गुरुदेव !   मेरा नाम क्या रखोगे आप ?  

तुम्हारा नाम ?    आचार्य रामानुज सोचनें लगे ।

लालाचार्य.................।

सब लोग बोल पड़े .......लालाचार्य की .....जय जय जय ।

वत्स !       वैष्णवों को अपना भाई ही मानना .............रामानुजाचार्य जी नें उपदेश दिया  ।

भगवान का भजन कर रहे हो ......उस समय कोई भक्त  आजाये .....तो  उसे भगवान से भी ज्यादा मानना  ...... भजन छोड़ देना .....भक्त की सेवा करना  ।

भक्तों  का संग  खोज खोज कर करना ........उनका सतसंग करना ।

क्यों की  भगवान के भक्त  का संग    भगवतदर्शन से भी महान है ।

भगवान के भक्त .....भगवान से भी महान हैं   ।

ये तो  आपका  "अर्थवाद" हुआ   गुरुदेव  !

लालाचार्य नें कहा  ।

नही   "अर्थवाद" क्यों कह रहे हो .......यह सत्य है  ।

रामानुजाचार्य जी नें  समझाया  ।

देखो !  कंस नें भगवान श्री गोविन्द के दर्शन किये थे .........पर  उससे उसके मन की कलुषता तो खतम नही हुयी ना ?  

रामानुजाचार्य जी   फिर दूसरा उदाहरण देते हुए बोले ........भगवान राघवेन्द्र के  दर्शन  दशानन नें किये थे ना ....पर उसके मन की  कालिमा समाप्त नही हुयी  ।

पर  शास्त्रों में ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं ...........नारद जी के दर्शन से  वाल्मीकि  जो पूर्व में डाकू थे .........उनका हृदय परिवर्तन हुआ ना ?

रामानुजाचार्य वैष्णव भक्तों की महिमा गा रहे थे ......और मुग्ध थे  ।

हाथ जोड़कर  दोनों दम्पति  श्री रामानुजाचार्य जी के एक एक उपदेश को सुन रहे हैं  .....और सुन ही नही रहे थे ......हृदय में   उतार भी  रहे थे ।

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गुरुभाई !   जय श्रीमन्नारायण !     

गुरुभाई !     आज  हमारे घर पधारो ना !    कुछ प्रसाद ग्रहण करलो हमारे ठाकुर जी का  ।

गुरुभाई !    अरे ! आपके चोट लग गयी  मै दवाई  खरीदकर ले आता हूँ ।

लालाचार्य   जी   जिसके गले में तुलसी की माला देखते .......लालाचार्य जी जिसके  मस्तक में तिलक देखते ............उसके चरणों में  तुरन्त प्रणाम करते .......चाहे  बिलकुल अनजान ही क्यों न हो वो  ।

उसे "भाई" ही कहते....चाहे  वो कितनी ही छोटी जात का क्यों न हो ।

एक बार  लालाचार्य जी की पत्नी   कावेरी  नदी में जल भरनें गयी थी ।

तभी  उसकी सहेलियों नें   मजाक करते हुए कहा ......."ले तेरे देवर की लाश यहाँ पड़ी है" ........बहते बहते  आगया था     कोई  शव ......।

पर मजाक इसलिये किया  उन स्त्रियों नें ........कि  वह जो लाश थी ......वो किसी वैष्णव भक्त  की थी  ।

उस लाश के गले में तुलसी की माला थी .........और बाहु में तप्त शंख चक्र की छाप थी   ।

देख !  तेरा देवर मर गया ..........इतना कहकर  स्त्रियां हँसनें लगीं .....क्यों  की   इनके पति  हर वैष्णव सन्त को    "भाई"  ही कहते थे ।

पति का भाई देवर या जेठ ही कहलाता है ......।

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कहाँ हैं  मेरे भाई ........?       बताओ कहाँ हैं   ?

लालाचार्य  को जैसे ही  पत्नी नें कावेरी से आकर ये बात बताई ......कि किसी वैष्णव का मृत शरीर कावेरी में बहता हुआ आया है  ।

ये सुनते ही  लालाचार्य जी दौड़े  ।

मेरा भाई मर गया  ?  ........कहाँ है मेरे भाई का शरीर ?

सब लोग चकित होकर देख रहे हैं ...........ये पगला गया है क्या ?

पता नही जी !  जब से इसनें दीक्षा ली है ......तब से  ये हर वैष्णव को अपना भाई ही कहता है ..........चाहे वो किसी भी जात का हो ।

कोई कहता ............अब  ये जात पात कहाँ मानता है ..........ये तो  गोत्र भी पूछो  तो कहता है   मेरा गोत्र तो "अच्युत" है ..........।

कल की ही  तो  बात थी .........उस दलित नें तुलसी की माला क्या पहन ली ...........उसे अपना भाई कहकर   अपनें चौके में बिठाकर भोजन करा रहा था ये  लालाचार्य  ।

सब लोग   इस   कौतुक को देखनें  कावेरी नदी  के पास चले आये थे ।

और  कुछ न कुछ चर्चा हो ही रही थी ........समाज के लोगों द्वारा  ।

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उस लाश को गोद में रखकर रोनें लगे थे  लालाचार्य जी ।

देखनें वाले देखते रहे ..........किसी नें कुछ कहा  तो किसी नें कुछ ।

किसी नें तो यहाँ तक भी कह दिया ..............कि    ये रामानुजाचार्य जब से कांचीपुरी से आये हैं  श्री रगन्नाथ भगवान के पास.....  तब से  जाति पाति का भेद मिटा दिया है ......ये गलत है  ।

अब देखो  इस लालाचार्य को ही .......अच्छा कुल , अच्छे खानदान का ब्राह्मण ..........पर  देखो !    अपना गोत्र ,  छोड़ दिया ........और  अच्युत गोत्र कहता हुआ  चलता है  ।

एक नें कहा .......देखो !     अब ये लाश किसकी है  ? 

पर  ये लालाचार्य अपना नाटक करेगा  ।

नही  नाटक नही हो सकता ये..........कुछ भी मत बोलो तुम लोग  !

एक  अच्छे सज्जन नें आकर सबको डाँटा  ।

क्या कर रहे हो लालाचार्य ?      उन्हीं सज्जन  ने आगे बढ़कर  पूछा ।

मै  अपनें भाई के शव  को घर ले जाऊँगा ......वहाँ से   फिर  श्मशान घाट में ...........।

तुम पागल हो गए हो ........अरे ! मरे मुर्दे को  वैसे भी घर में नही ले जाते ........अब तुम इस अनजान को ......पता नही किस जात का है !

कुछ और लोग भी आगये .......वो  रोकना चाह रहे थे  ।

जात ?    लालाचार्य चौंके ...........ये अच्युत गोत्रीय है  ।

इनके  बाहु में  शंख चक्र के छाप हैं ..........गले में तुलसी की माला है ।

ये मेरा भाई है ...............मै इसका  अंतिम  संस्कार कराऊंगा .......और बड़े धूमधाम से कराऊंगा ........।

अजी ! छोडो .....तुम भी किसे समझा रहे हो .............कर लालाचार्य !  जो करना है कर .........पर अब  अपनें समाज से  तू कोई अपेक्षा मत रखना .............ये याद रहे  ।

सब चले गए  अपनें अपनें घर की ओर ।

पर लालाचार्य की  निष्ठा ..............दाहसंस्कार किया ............उस अनजान शव का ............फिर क्रिया में स्वयं बैठे ।

तेरहवीं  में   एक विशाल भोज रखा ................जिसमें सबको  बुलाया गया था .......पर कोई नही आया  ।

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दम्पति बाहर खड़े हैं............खीर पूआ , पूड़ी सब्जी .........सब बनकर तैयार है ..........समय भी हो गया है  भण्डारे का ....।

पर  कोई नही आरहा  ।

लालाचार्य की पत्नी नें कहा ......आपनें बुलाया नही था क्या  समाज के लोगों को  ?   

देवी !  मैने  सबके घर घर में जाकर कहा .............निमन्त्रण दिया ।

बाहर खड़े हैं.........दम्पति ......लोगों के आनें का इन्तजार कर रहे हैं  ....पर  कोई नही आरहा  ।

अरे !    रामय्यर !    आओ ना .......आज  मैनें अपनें भाई की तेरहवीं मनाई है ...........उसी का भण्डारा रखा है ..........तुमको भी तो  निमन्त्रण दिया था ना .......आजा ओ !

वो पड़ोसी रामय्यर बोला ...........अरे !  मै  शुद्ध ब्राह्मण हूँ .......ऐसे वैसे थोड़े ही खाऊंगा ......और  तुम तो नदी में बहती लाश उठाकर ले आये हो ......पता नही किस जात का था  वो .............छी !

पागल है क्या  ?     मत आ तू ........पर  मेरे भाई को ऐसे मत बोल ।

लालाचार्य नाराज हो गए ..........तू होगा  शुद्र !     और जो  नारायण का भक्त नही ......सही मायनें में  तो वही शुद्र है  ।

किस किस से लड़ते रहोगे आप !   अब चलिये    स्वयं ही प्रसाद पा लेते हैं ..........हमारे यहाँ  कोई नही आएगा   ।

पर    मै आज  टूट गया ........देवी !    क्या गुरु की आज्ञा का पालन अक्षरशः  नही करनी  चाहिए  ? 

मै जा रहा हूँ ..............अपनें सदगुरु के पास ।

तेज़ चाल से चलते हुए   लालाचार्य   श्री रामानुजाचार्य जी के पास गए.......।

भगवन् !   बताइये  मैने क्या गलत किया ? 

आपनें ही तो कहा था ना ...............हर वैष्णव भक्त  भाई है  तुम्हारा ।

हर अच्युत गोत्रीय  भाई है तुम्हारा .........।

रोते हुए    लालाचार्य नें अपनी सारी घटना सुना दी ............

रामानुजाचार्य जी नें  जैसे ही -  ये  अज्ञात शव को   मात्र  शंख चक्र अंकित देखकर ..........गले में तुलसी की माला देखकर ........उसे भाई मान लिया .....और उसका सम्पूर्ण संस्कार भी करा दिया   और उसके लिये विशाल भण्डारा भी रखा !........आहा !  ये जानकर आनन्दित हो उठे थे  रामानुजाचार्य जी ।

रामानुजाचार्य जी  नें  उठकर गले से लगाया .....लालाचार्य को ...और कहा .........धन्य हो तुम,   तुम्हारी कितनी ऊँची स्थिति है .....आहा ! ....पर  क्यों रो रहे हो  ?

कोई ब्राह्मण नही आरहा  मेरे भण्डारे में  ................लालाचार्य नें अपनी तकलीफ बताई  ।

क्यों आनें चाहियें  ये अवैष्णव  ब्राह्मण  ?   रामानुजाचार्य जी  नें कहा ।

जाओ लालाचार्य !    परमभागवत परम भक्त तुम्हारे भण्डारे में आरहे हैं ......जाओ घर में ........और उनका स्वागत करो  ।

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ध्रुव जी !   प्रल्हाद जी !    अम्बरीष जी !    हे नारद जी !  

हे शुकदेव जी ! ........

आँखें बन्दकर बैठे हैं     श्री हनुमान जी ........और  भगवान श्री राम की आज्ञा से ......इन सब परमवैष्णवों का आव्हान कर रहे हैं ।

कुछ ही क्षणों  में .........ये सब  परम  भागवत  सामनें खड़े थे  ।

हनुमान जी !   आपनें हम सबको क्यों याद किया  ? 

हमारे भाई की तेरहवी है ..........वहाँ  भण्डारा में चलना है  ।

मुस्कुराते हुये श्री हनुमान जी नें कहा  ।

पर कहाँ  है  तेरहवीं ?   ....और वो भी   हमारे भाई की  ?

कौतुकी नारद जी आगे आये ......और उन्होनें ही ये सब जानकारी ली ।

"श्री रंगम"  जाना है .......................

हनुमान जी नें  सबको कहा ............और पाँच मिनट भी मुश्किल से लगे होंगें ...............श्री रँगम् के आकाश से   दिव्य दिव्य  महापुरुष धरती पर उतर रहे थे  ।

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बड़े प्रेम से जयकारा लगा .............भण्डारे में  हनुमान जी से लेकर .....नारद जी से लेकर .......प्रल्हाद , ध्रुव ,  शुकदेव ,  व्यास देव .....और भी अनेकानेक  दिव्य महापुरुष  भण्डारे में बैठे हैं   ।

लालाचार्य और उनकी पत्नी  दोनों ही  बहुत प्रसन्न हैं    ।

भाग्य खुल गए थे   इन दोनों के ......जो   भक्त के प्रति निष्ठा  का ये चमत्कार हो गया था  कि  श्री हनुमान जी से लेकर नारद जी ........सब महाभागवत  आगए  थे  यहाँ ।

गाँव वालों को सुचना मिली .......कि   भण्डारा तो शुरू हो गया  लालाचार्य के यहाँ  !

क्या  !  सब चौंक गए थे  ।

कौन आया है  उसके यहाँ खानें ?

जो छुप कर देख आये थे ......उन्होनें बताया .......अरे !  बड़े बड़े देवता आये हैं ...........हमनें स्वयं  अपनी आँखों से देखा ..........आकाश से उतरे थे  वो लोग ............क्या रूप है उनका  ।

अब तो  सब लोग   लालाचार्य के यहाँ आनें लगे .................

दिव्यता से भर गया  था  .............घर   लालाचार्य का ।

चलते चलते ......हनुमान जी नें  लालाचार्य को  इतना ही कहा ......निष्ठा होनी चाहिए ..... दृढ निष्ठा होनी  चाहिये  .....।

हे भाई !    तुम्हारी निष्ठा पक्की थी ....इसलिए तो  मै हनुमान , ये नारद जी , ये  शुकदेव जी , ये ध्रुव जी .............तुम्हारे यहाँ प्रसाद  लेने आये ........इससे बड़ा भाग्य और तुम्हारा क्या होगा  ?

इतना कहकर  हनुमान जी अपनें साथ सबको लेकर आकाश मार्ग से चले गए .........।

दम्पति आनन्द से नाच रहे थे ...........देवताओं नें पुष्प वर्षा की ।

समाज  नें  आकर  लालाचार्य से प्रार्थना की थी .....कि    जिस पत्तल में  इन महापुरुषों नें खाया है ....उसमें  जो प्रसादी हो  वो हमें दे दो ।

पर   कुछ नही था ...........उन पत्तलों में   ।

लालाचार्य  के आनन्द का ठिकाना नही था आज ।

स्वामी रामानुजाचार्य जी  भी  आये ......और उन्होनें आकर  लालाचार्य के निष्ठा की भूरि भूरि प्रशंसा की थी  ।

शेष प्रसंग कल ........

Harisharan

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