अद्धभुत संत श्री रामदास जी बाबा का जीवन चरित्र जिनके साथ ठाकुर जी रात को भागे.........


श्री द्वारकापुरी के समीप ही डाकोर नाम का एक गाँव है,वहा श्री रामदासजी नाम के भक्त रहते थे। वे ही एक मात्र अंकिचन भक्त थे जिनके घर पर संत सेवा होती थी

वे प्रत्येक एकादशी को द्वारका जाकर श्री रणछोड़जीके मंदिर में जागरण कीर्तन करते थे। औऱ आने जाने में सारा समय निकल जाता
वे तुलसी का गमला सिर पर रख चलते और वहाँ पहुँचते-पहुँचते तुलसी जी मे मंजरी आ जाती कीर्तन करते करते चलते

अब इनका शरीर वृद्ध हो गया,तब ठाकुरजी ने कहा अब आपको द्वारिका नही आना चाहिए,
हम तो सर्वत्र ही व्यापक हैं वही से मेरा स्मरण करके जागरण कर लिया करो  तो इन्होने ने कहा ठीक है आपको आज्ञा तो देवी देवता भी नहीं टाल सकतें लेकिन क्या करे जैसे जैसे समय आता हैं ।

ह्रदय ख़ुद ही आपके चरणों मे पहुचने के लिए व्याकुल हो उठता  हैं औऱ मैं समझ ही नही पता औऱ ये सुनकर ठाकुर जी के नेत्र भर आये  तो ठाकुर जी ने कहा भक्त जी जो दशा आपकी हैं वो दशा हमारी हैं हम भी एक-एक पल-पल युग-युग की भांति बिताते हैं मेरे भक्त कब आवेंगे। जैसे तुम्हें हमारा वियोग सहन नही होता हमें भी सहन नही होता।

  तो ठाकुर जी बोले  इस बार जब आओ तो बैलगाड़ी लेकर आना क्योंकि तुम्हारा कष्ट मुझसे सहन नही होता मैं तुम्हारी बैलगाड़ी में बैठ कर तुम्हारे घर चलूँगा तो बाबा बोले..
कैसे चलोगे पुजारी पंडा रोकेंगे नही

तो "ठाकुर जी -बोले वो तो शयन आरती कर चले गए अपने अपने घर वहा तो केवल आप ओर हम होते हैं
बाबा बोले पुजारी मन्दिर में ताला लगा कर चले जाते है आप कैसे बाहर निकलेंगे

तो ठाकुर जी बोले देखो प्यार में सबकुछ करना पड़ता हैं हमारा ह्रदय से प्यार है तुम्हारे साथ

इसलिए पीछे खिड़की के पास गाडी को खड़ा कर देना औऱ मैं अंदर से खिड़की को तोड़ दूँगा औऱ तुम गाड़ी पर खड़े हो जाना
तुम मुझे गोद में भरकर उठा ले जाना और गाडी में पधराकर शीघ्र ही चल देना।
भक्त रामदासजी ने वैसा ही किया.

जागरण करने के लिए गाडीपर चढ़कर आये।सभी लोगो ने समझा की भक्त जी अब वृद्ध हो गए है ।अतः गाड़ीपर चढ़कर आये है।

एकादशी की रातको जागरण हुआ ,द्वादशी की आधी रातको वे खिड़की के मार्गसे मंदिरमे गए।श्री ठाकुरजीके श्रीविग्रह पर से सभी आभूषण उतारकर वही मंदिरमे रख दिए।

इनको तो भगवानसे सच्चा प्रेम था ,आभूषणोंसे क्या प्रयोजन ?

श्री रणछोडजी को गाड़ीमें पधराकर चल दिए।
प्रातः काल जब पुजारियोंने देखा तो मंदिर सूना उजड़ा पड़ा है।लोग समझ गए की श्री रामदासजी गाड़ी लाये थे,वही ले गए।

पुजारियोंने पीछा किया।उन्हें आते देखकर श्री रामदासजीने कहा की अब कौन उपाय करना चाहिए ?

भगवानने कहा -मुझे बावली में पधरा दो।भक्तने ऐसा ही किया और सुखपूर्वक गाडी हांक दी ।

पुजारियोंने रामदासजी को पकड़ा और खूब मार लगायी।इनके शरीरमे बहुत-से-घाव हो गए।

भक्तजी को मार-पीटकर पुजारी लोगोंने गाड़ीमे तथा गाडीके चारो ओर भगवानको ढूँढने लगे,पर वे कही नहीं मिले।

तब सब पछताकर बोले की इस भक्तको हमने बेकार ही मारा। इसी बीच उनमेसे एक बोल उठा-मैंने इस रामदास को इस ओर से आते देखा,इस ओर यह गया था।

चलो वहां देखे।सभी लोगोने जाकर बावलीमें देखा तो भगवान मिल गए।उसका जल खूनसे लाल हो गया था।भगवनने कहा- तुम लोगोने जो मेरे भक्तको मारा है।

उस चोट को मैंने अपने शरीरपर लिया है ,इसीसे मेरे शरीरसे खून बह रहा है,अब मै तुम लोगों के साथ कदापि नहीं जाऊंगा।

यह कहकर श्री ठाकुरजीने उन्हें दूसरी मूर्ति एक स्थानमे थी,सो बता दी और कहा की उसे ले जाकर मंदिरमे पधराओ, अपनी जीविका के लिए इस मूर्ति के बराबर सोना ले लो और वापस जाओ।

पुजारी लोभवश राजी हो गए और बोले-तौल दीजिये।रामदासजी के घरपर आकर भगवानने कहा-रामदास,तराजू बांधकर तौल दो।रामदासजी की पत्नी के कान मे एक सोनेकी बाली थी,

उसीमे उन्होंने भगवानको तौल दिया और पुजारियों को दे दिया। पुजारी अत्यंत लज्जित होकर अपने घर को चल दिए।
श्री रणछोडजी रामदासजी के घरमें ही विराजे.

इस प्रसंगमे भक्तिका प्रकट प्रताप कहा गया है। भक्तके शरीरपर पड़ी चोट प्रभुने अपने उपर ले लिया,तब उनका ‘आयुध-क्षत’ नाम हुआ। भगवान् ने भक्त् से अपनी एकरूपता दिखानेके लिए ही चोट सही, अन्यथा उन्हें भला कौन मार सकता है ?

भगवान को ही डाकू की तरह लूट लाने से उस गाँव का नाम डाकौर हुआ , भक्त  रामदास के वंशज स्वयं को भगवान के डाकू कहलाने में अपना गौरव मानते है । आज भी श्री रणछोड़ भगवान को पट्टी बाँधी जाती है। धन्य है भक्त श्री रामदासजी।

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