"साधना के विघ्न"

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          भगवान् के अनुसंधान में चलने वालों से दो बातें स्वाभाविक रूप से छूट जाती हैं-१-भय और २-प्रलोभन । ये अगर बने रहते हैं तो चल नहीं पाते हैं, रुक जाते हैं। भगवान् के मार्ग में चलने वालों के सामने ये दो विघ्र आते हैं। ध्रुव निश्चय से चले। माँ नहीं जानती थी कि मेरे इस प्रकार ही कहने से यह बच्चा चल देगा, परंतु उसके अंदर सच्ची लगन थी। क्षत्रिय बालक था, मन में एक जोश आ गया बस, भगवान को प्राप्त करना है। मार्ग में नारदजी ने देखा और विचार किया कि अगर अधिकारी हो तो मन्त्र देना चाहिये। नारदजी का यही काम है। नारदजी ने कहा- बेटा ध्रुव ! कहाँ जा रहे हो ? उसने कहा भगवान् से मिलने। नारदजी ने फिर कहा- भगवानसे मिलने ! जानते हो भगवान् कहाँ हैं ? कैसे हैं ? वह बोला कि माँ ने बताया है कि कमल के पत्ते-जैसे भगवान् के विशाल नेत्र हैं और वे मधुवन में रहते हैं। मैं वहीं जा रहा हूँ। नारदजी ने कहा कि क्यों जा रहे हो ? तब ध्रुव ने सारा वृत्तान्त बता दिया।
          नारदजी ने उसे समझाया कि बेटा ! वापस चलो, मैं तुम्हारे पिताजी के पास चलता हूँ उनसे कहकर तुम्हें राज्य दिलवा देता हूँ। उसने कहा कि मुझे भगवान् से लेना है, आपसे नहीं लेना है। मुझे भगवान् से मिलना है। वह तनिक भी प्रलोभन में नहीं आया। तब नारदजी ने उसे भय दिखाया और कहा, बेटा ! जंगल में माँ नहीं होगी, अजगर होंगे, बाघ हैं, सुअर हैं, न जाने कितने जानवर हैं। भूत-प्रेत हैं। बड़ा बीहड़ वन है। खाने-पीने को नहीं है। दु:ख पाओगे, घबड़ाओगे, रोओगे, तब आओगे। उसने कहा यह सब कुछ नहीं, भगवान् तो हैं वहाँ पर, मैं जाऊँगा। नारदजी ने कहा कि एक बार फिर सोच लो। ध्रुव ने कहा कि मैंने सोच लिया है। मैं अवश्य जाऊँगा। नारदजी ने सोचा कि यह न भय में आने वाला है न प्रलोभन में। यह सच्चा साधक है। उन्होंने कहा कि तुम जाकर द्वादशाक्षरमन्त्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का जप करो। ध्रुव ने ऐसा ही किया और उस छोटे से बच्चे ने छ: माह में ही भगवान् को पा लिया।
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                      - श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (श्रीभाईजी)
                                                           'सरस प्रसंग'

                           "जय जय श्री राधे"
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