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साधकों को यह मानना चाहिये कि हमारे ही भगवान् अनन्त रूपों में अनन्त नामों में सर्वत्र प्रकट हैं। अपना इष्ट जैसा है, जो कुछ है, वही सर्वोत्तम है। उसी में श्रद्धा-विश्वास रखकर व्यक्ति उसको लक्ष्य मानते हुए चलता रहेगा तो भगवान् उसे प्राप्त हो जायेंगे।
सर गुरुदास बनर्जी, कलकत्ता हाईकोर्ट में जज थे। वे विद्वान्, वृद्ध ब्राह्मण गङ्गा-स्नान को जाया करते थे। गङ्गा नहाने जज नहीं जाता है, जज तो हाईकोर्ट जाता है। वहाँ तो ब्राह्मणदेवता सभक्ति गङ्गा में अवगाहन करने जाते हैं। एक शिवरात्रि के दिन लोटा हाथ में लिये, पीताम्बरी पहने, रामनामी ओढे, त्रिपुण्डु लगाये सर गुरुदास बनर्जी नहाकर लौट रहे थे। एक बुढ़िया ब्राह्मणी ने देखा कि पण्डितजी महाराज गङ्गा नहाकर आ रहे हैं। आज शिवरात्रि है और मन्दिर पास ही है तो पण्डितजी पूजा करवा दें, ऐसा सोचकर उसने कहा-पण्डितजी ! पण्डितजी !! जरा बात सुनो। बोले- क्या मैया ! वह बोली-आज शिवरात्रि है, जरा चल के पूजा करवा दो। वे चले गये पूजा कराने। उस समय वे ब्राह्मण थे। उन्होंने विधिवत् पूजा करवा दी तो वह दो पैसे देने लगी। इस पर गुरुदासजी ने कहा-'मैया, तुम्हारे आशीर्वाद से मेरे पास बहुत पैसे हैं। इसे ले लो।' बुढ़िया ने कहा-'तू करता क्या है ?' बोले- ‘मैया ! मैं हाईकोर्ट में नौकर हूँ। फिर उसने कहा-'तू कोर्टवाला हाकिम है, तेरा नाम क्या है ?' बोले-'गुरुदास बनर्जी।' बुढ़िया डर गयी, बोली-'हाय, गुरुदास बाबू हैं आप।' उन्होंने कहा-'नहीं मैया, मैं इस समय पण्डित हूँ, गुरुदास बनर्जी जज नहीं।'
इसी प्रकार भगवान् के भी अनेक रूप हैं-वे धनुर्धर भी हैं, वे वनवेषधारी भी हैं, वे दूल्हा भी हैं, राजा भी हैं, वे वृन्दावन के छैला भी हैं और कुरुक्षेत्र के सारथि तथा महाकाल भी हैं। वे जैसे है, जो कुछ हैं वह सब आपको बता देंगे जब आप उनके साथ घुल-मिल जायँगे, उनकी अन्तरङ्गता प्राप्त कर लेंगे। इसके लिये निष्ठावान्, श्रद्धावान् होना अत्यावश्यक है। आदर्श श्रद्धावान् के सम्बन्ध में सर गुरुदास बनर्जी के जीवन की एक अन्य घटना का उल्लेख समीचीन होगा।
एक दिन सर गुरुदास बनर्जी हाईकोर्ट में बहस सुन रहे थे। उस जमाने में सभी बैरिस्टर अंग्रेज थे। किसी मुकदमे में पक्ष-प्रतिपक्ष की दलीलें दी जा रही थीं। इतने में उन्होंने देखा एक बुढ़िया गंदे, भीगे कपड़े पहने कोर्ट में आयी। सिपाही ने जरा रोका उसे, पर इनकी नजर पड़ गयी। इन्होंने बहस सुनते-सुनते कोर्ट बंद कर दिया। सभी बड़े चकित हुए कि क्या हो गया ? हाईकोर्ट में जजों के आने-जाने का रास्ता पीछे से होता है, परंतु वे कोर्ट बंद करके सामने से जा उसी जज की पोशाक में उस बुढिया को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और उसके चरणों की धूल लेकर सिर में लगायी। सभी चकित हो गये-यह क्या है ? सर गुरुदासजी के आँखों में आँसू आ गये। बुढ़िया तो गद्गद हो गयी और बोली-'बेटा गुरुआ ! सुखी रह।' गुरुदासजी ने बताया-यह मेरी धाय माँ है। इन्होंने मुझे पाला है। मुझे इनके आज दर्शन हो गये तो मैं इनके चरणों में गिर पड़ा। उनकी ऐसी श्रद्धा देखकर सभी लोग चकित हो गये।
सर गुरुदास बनर्जी बहुत ही निष्ठावान् थे। उनकी निष्ठा के बारे में एक घटना प्रसिद्ध है कि एक बार वे लार्ड कर्जन के साथ कलकत्ता से दिल्ली जा रहे थे, स्पेशल ट्रेन से। लार्ड कर्जन उस समय वायसराय थे और कलकत्ता में रहते थे। प्रयाग से कुछ पहले ही लार्ड कर्जनने सर गुरुदास से पूछा कि आपने खाना खाया कि नहीं ? उन्होंने कहा खाता कैसे, अभी स्नान नहीं किया। लार्ड कर्जन के पुन: कारण पूछने पर इन्होंने कहा कि कहीं स्नान की सुविधा होगी तो स्नान करके भोजन बनायेंगे, भगवान् को भोग लगायेंगे तब खायेंगे। सर गुरुदास के पुत्र भी साथ में थे। कर्जन ने फिर पूछा कि आपके पुत्रोंने खाया कि नहीं तो उन्होंने कहा कि यह पूछने की कौन-सी बात हैं ? मैं नहीं खाता तो मेरा बेटा कैसे खाता ? कर्जन ने उसी समय आज्ञा दी कि इलाहाबाद पहुँचने पर जब तक सर गुरुदास खा-पीकर न लौटें तब तक ट्रेन वहीं रहे। गाडी का समय परिवर्तन कर दिया गया। सर गुरुदास उतरे, त्रिवेणी जाकर बाप-बेटे ने स्नान किया, भोजन बनाया और भगवान का भोग लगाकर खाने के पश्चात लौटकर आये। आज के जमाने में लोग सर गुरुदास को दकियानूसी कहें, परंतु लार्ड कर्जन ने उनकी हँसी नहीं की बल्कि नोट लिखा और सर गुरुदास के निष्ठा को प्रशंसा की। ऐसी निष्ठा होनी चाहिये।
अतः जिस प्रकार सर गुरुदास हाईकोर्ट में जज हैं, उस धाय को प्रणाम करते हुए उसके बेटे हैं, ब्राह्मणी को शिवरात्रि की पूजा कराते समय पण्डितजी हैं, इसी प्रकार भगवान् भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होते हैं। किसी एक रूप को पकड़कर उसमें निष्ठा रखकर साधक बढ़ता रहे। यह चेष्टा, चिन्ता न करे कि भगवान् कैसे हैं ? क्योंकि बिना पहुँचे जानेंगे नहीं और जानने के बाद सवाल रहेगा नहीं, साधनपथ पर चलना शुरू कर दे और साध्य को चिन्ता न करे।
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- श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (श्रीभाईजी)
'सरस प्रसंग'
"जय जय श्री राधे"
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