"प्रभु की ओर"

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          जब भगवान् की लगन लग जाती है या भगवान् की ओर जीवन की गति हो जाती है तो जीवन दूसरी ओर जा ही नहीं सकता। यदि जाता है तो इसका यही अर्थ है कि जीवन की गति भगवान् की ओर नहीं है।
          एक बूढ़े महात्मा जंगल में रहते थे। उनके पास एक राजा संन्यास लेकर आये। बूढ़े महात्मा ने सोचा जरा इसकी परीक्षा की जाय। एक बार नये महात्मा क्षेत्र में रोटी लेकर आ रहे थे तो इन्होंने जरा कोहनी मार दी। इस पर रोटी गिर गयी, किन्तु उन्होंने बड़े प्रेमपूर्वक बिना किसी क्षोभ के रोटी उठा ली और चल दिये। फिर पीछे गये, धक्का दिया और रोटी फिर गिर गयी। इस बार नये महात्मा ने रोटी उठा ली पर जरा हँसे । पुनः आगे बढ़े फिर उन्होंने वैसा ही किया और रोटी गिरा दी। इस बार वे हँसे और खड़े हो गये। हाथ जोड़कर बोले-"महाराज ! आपने बड़ी कृपा की जो मेरी परीक्षा ली। मैं इतने बड़े राज्य का जब त्याग करके यहाँ आ गया हूँ तो इस रोटी वाली बात में मुझे कौन-सा क्षोभ होगा ?" महात्मा बोले- "इसीलिये रोटी गिराई है। तुम्हें अभी तक राज्य के त्याग की बात याद है। इतना बड़ा त्याग करके आ गये यह तुम अपने मन में याद रखते हो और यही सुनना भी चाहोगे कि कितना बड़ा त्यागी है। अगर, राज्य का महत्व तुम्हारे मन में बना हुआ है तो राज्य का त्याग कहाँ हुआ ? इस त्याग का भी त्याग कर दो तब ठीक है।"
          एक बार की बात है कि काशी में मणिकर्णिका घाट पर कुछ लोग बैठे थे। ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष को चाँदनी रात थी। कुछ के मन में बात आयी कि चाँदनी रात में नाव पर बैठकर के प्रयाग चलते हैं। वहाँ नाव भाडे पर लिया और उसमें सवार हो गये। काशी में भाँग घुटती है इस कारण बैठने वाले भी भाँग पिये थे और केवट भी। सब बैठ गये तो नाव चलने लगी। सभी सो गये। चलाते-चलाते सबेरा हो गया। सबेरे जब नशा उतरा तो देखा कि नाव वहीं मणिकर्णिका घाटपर ही पड़ी है। आगे गयी ही नहीं। एक ने केवट से पूछा कि क्या तुमने डाँड नहीं चलायी ? उसने कहा कि, "डाँड चलाते-चलाते हमारे हाथ थक गये।" फिर पूछा कि, "तुमने डाँड चलाया तो नाव गयी कैसे नहीं ?" बाद में देखा गया कि रस्सा खोला ही नहीं गया था। इसी प्रकार हम लोगों ने साधना की कहाँ ? जगत् का रस्सा बँधा ही है। रस्सा बाँधे रखकर कहते हैं कि भगवान् हमें मिले ही नहीं। अरे ! उधर तुम गये ही कहाँ ? रस्सा खोलो और भगवान् की ओर नाव ले जाओ फिर तुरन्त वहाँ पहुँचोगे।

                      "श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (श्रीभाईजी)
                                                           'सरस प्रसंग'

                         "जय जय श्री राधे"
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