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श्री लाखा जी


श्री लाखा जी मारवाड़ के वानरवंशी थे, इनकी जाति के लोग राज दरबार में नृत्य – गानकर आजीविका चलाते है।
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वानरवंशी अथवा वानर जाति को मारवाड़ में डोम जाति भी कहा जाता है, इस जाति के लोग राजाओ के दरबार में नृत्य गान वाद्य बजाने का कार्य करके अपनी आजीविका चलते थे।
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यह जाती कत्थक जाती के समकक्ष है ये नित्य साधुओ की सेवा करते थे। एक समय बड़ा भारी अकाल पडा, लोग भूखों मरने लगे।
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श्री लाखा जी वेषनिष्ठ संत थे, संतो के वेषमात्र का आदर करते थेे। तब तुलसी कण्ठीमाला और तिलक धारण करके बहुत से लोग (नास्तिक आस्तिक) इनके यहां अन्न खाने के लिए आने लगे।
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इन सबका भरण पोषण कहाँ से कैसे और कहाँ तक हो ? अन्ततोगत्वा बहुत सोच-विचारकर इन्होने यह निश्चय किया की इस स्थान को छोडकर कही अन्यत्र चलकर रहें।
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इनके इस निश्वय को जानकर भगवान् ने इनसे स्वप्न मे कहा – लाखाजी ! ध्यान देकर सुनो, अन्यत्र जाने का विचार न करो।
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हमने एक उपाय कर दिया है, तदनुसार तुम्हारे पास एक गाड़ी भर गेहूँ आयेंगे और एक भैस आयेगी। जब गाड़ी भर गेहूँ आ जाय, तब उन्हें कोठी मे भर देना और उसके ऊपर के मुख को बन्द का देना।
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उसमे से निकालने के लिये नीचे का मुंह खोल देना। उससे आवश्यकतानुसार अधिक से अधिक गेहूँ निकलेंगे। उन्हें पीसकर रोटियाँ बनवाना और भैंस के दूध को जमा करके मथ लेना।
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जो घी निकले उससे रोटियो को चुपड़ देना और छाछ के साथ सबको भोजन कराते रहना। इतना सुनने के बाद श्री लाखाजी की आखें खुल गयीं।
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उन्होने स्वप्न मे प्राप्त भगवान् की आज्ञा अपनी धर्मपत्नी को सुनायी और कहा कि यह तो हमारे मन की भावती बात हो गयी। स्थान छोडकर कही दूसरी जगह जाने की आवश्यक्ता नहीं है।
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प्रात :काल होते ही गेहूँ भरी गाड़ी और भैंस आ गयी।
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इन्होने भगवान् की आज्ञा के अनुसार उसी रीति से साधु – संतो की सेवा की अनेक प्रकार से उन्हें प्रसन्न किया।
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गेहूँ भरी गाड़ी और भैस श्री लाखा जी के घर कैसे आयी, उसका वर्णन इस प्रकार है
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श्री लाखाजी के निवास स्थान से कुछ दूर पर एक गाँव में सभा हुई और उसमें यह निश्चय हुआ कि गाँव में किसी भी परिवार का अपना जो एक भाई धनहीन हो गया है या जिसकी आर्थिक परिस्थिति कमजोर है,
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उसके लिये चन्दा किया जाय और धन का संग्रह करके उसकी सहायता की जाय।
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इस प्रस्ताव के मान्य हो जाने के बाद एक सज्जन व्यक्ति ने उठकर सभा मे कहा कि हम लोगो ने स्वार्थ के भार को तो चुका दिया परंतु इससे पारलौकिक लाभ सम्भव नहीं है।
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परमार्थ के लिये तो संतो की सेवा करना उचित है। अर्थात परिवार के सदस्य की मदद करके हमने व्यवहार का भार तो चूका दिया परंतु संतो की सेवा से लोक-परलोक दोनों सुधर जाते है।
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यहां पास में ही संत सेवी महात्मा श्री लाखा जी का घर है। उनकी कुछ सेवा-सहायता कीजिये, जिससे हम लोग भवसागर को पार कर सके।
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यह सुनकर सब लाज-संकोच से दब गये और उन्होंने उगाही करके पचास मन गेहूँ एकत्र किये। ग्रामसभा के प्रधान ने दूध देती हुई अपनी (बीस सेर दूध देनेवाली) एक भैंस गेहूँभरी गाड़ी के साथ भेज दी।
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एक दिन श्री लाखा जी ने भक्तो के नाम की सुमिरनी माला तैयार की और उस माला को भगवान् श्री जगन्नाथ को अर्पण करने का निश्चय किया।
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श्री लाखाजी अपने निवास स्थान मारवाड़ देश से चले। इन्होंने हृदय में प्रतिज्ञा की कि मैं साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए लगभग सात सौ कोस दूर श्री जगन्नाथ पुरी को जाऊंगा और श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करके यह भक्तो की माला उन्हें अर्पण करूँगा।
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अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार श्री लाखा जी साष्टांग दण्डवत करते हुए श्रीजगन्नाथ धाम के समीप पहुंचे।
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प्रेम पारखी प्रभु ने इन्हें लिवा लाने के लिये पण्डो (पुजारियों ) के हाथ पालकी भेजी ।
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पण्डे रास्ते में पूछने लगे, यहां भक्त लाखा जी कौन है ? शीघ्र बताओ ? लाखा जी अपना नाम सुनकर उनके पास आये।
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पण्डो ने पालकी पर सवार होने की प्रार्थना की परंतु लाखाजी ने हाथ जोडकर उनसे कहा-
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महाराज ! मै भला पालकी पर चढकर कैसे चल सकता हूं, यह सेवा अपराध है। मैं साष्टांग दण्डवत् प्रणाम् करता हुआ ही जाकर श्री जगन्नाथ जी के दर्शन करूँगा – मेरी यही प्रतिज्ञा है। उसका पालन करूँगा।
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पण्डे लोग बोले -भगवान ने बड़े प्रेमभाव पूरर्वक आज्ञा दी है, अत: उसका पालन कीजिये।
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जब श्री लाखा जी नहीं माने, तब पण्डो ने पुन: कहा कि प्रभु ने आज्ञा दी है कि लाखा जी जो मेरे लिये भक्तों के नाम की सुमिरनी माला बनाकर लाये हैं, शीघ्र आकर अब मुझे पहनाइये।
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भगवान् भक्तो की माला धारण करने के लिए लालायित है, और इंतज़ार नहीं कर सकते अतः आपको शीघ्र लाने को कहा है।
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यह सुनकर श्रीलाखा जी से सोचा की भक्तो की माला के बारे में तो मैंने किसी से बताया ही नहीं।
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अब उन्होने पूर्ण विश्वास कर लिया कि सचमुच पालकी पर चढ़कर जाने की आज्ञा दी है।
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श्री लाखाजी भगवान् के अनुपम भक्तवात्सल्य को स्मरण करके प्रभु की प्रसन्नता के लिये पालकी पर चढते हुए बोले, अब मैं जान गया कि श्री जगन्नाथ जी मेरे लिए पालकी भेजकर मेरी महिमा बढाना चाहते है।
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श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में पहुंचकर प्रभु की मनोहर झांकी का दर्शन कर श्रीलाखा जी ने अपने तन मन और प्राणो को श्रीचरणो मे न्यौछावर कर दिया।
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भगवान् को भक्तो के नाम की माला धारण करवाई जिससे प्रभु अत्यंत प्रसन्न हो गए।
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श्री लाखा जी की एक कन्या थी जिसका नाम गंगाबाई था। वह विवाह के योग्य हो गयी थी, परंतु श्री लाखा जी उसका विवाह नहीं करते थे।
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वे अपने मन मे सोचते थे कि मेरे पास जो भी धन है अथवा आता है, वह सब भगवान् और भक्तो का है, उन्ही की सेवा के लिये है।
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उसे कन्या के विवाह मे कैसे लगाऊँ ?
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श्री जगन्नाथ जी ने श्री लाखा जी से कहा कि तुम अपनी लड़की का विवाह करने के लिये मुझ से धन ले लो और उसका विवाह कर दो।
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परंतु श्री लाखा जी के मन मे यह बात ठीक नहीं जँची।
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पुरी में कुछ दिन निवास करने के उपरान्त श्री लाखा जी अपने घर के लिये चल दिये। प्रभु से विदा मांगने इस संकोच से नहीं गये कि प्रभु कुछ देंगे।
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चलते समय श्री लाखा जी को भगवान् का विरह व्याप गया। व्याकुलतावश आँखो से आंसुओं का प्रवाह चलने लगा।
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उसी क्षण श्री जगन्नाथ जी ने अपने एक भक्त राजा को स्वप्न मे लाखा जी को धन देने की आज्ञा सुनायी।
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उसने रास्ते में चौकीदार बैठा दिये और श्री लाखा जी के आने पर उनसे प्रार्थना करते हुए कहा कि स्वप्न में मुझे भगवान् का आदेश हुआ है। अत: अब आप अधिक हठ न कीजिये, धन ले लीजिये।
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ऐसा कहकर उसने हुण्डी लिख दी। श्री लाखा जी ने उसे ले लिया। इस प्रकार श्रीलाखा जी एक हजार रुपये की हुण्डी लेकर अपने घर को आये,
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उन्होने उनमें से एक सौ रुपये कन्या के विवाह में लगाये और शेष ( ९०० रूपए ) धन से संतो को निमंत्रण देकर उन्हें भोजन कराया। उनका अनेक प्रकार से सत्कार किया।

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