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स्वामी रामअवध दास जी

लगभग सौ वर्ष पहले की बात है । भगवान् श्री राघवेंद्र के परम भक्त क्षेत्रसन्यासी स्वामी रामअवध दास जी वैरागी साधू थे । बरसों से मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचंद्र जी की राजधानी अयोध्यापुरी मे रहते थे । अहर्निश श्री सीताराम नाम का कीर्तन करना उनका सहज स्वभाव हो गया था । रात को कठिनता से केवल दो घंटे सोते । सरयू जी के तीरपर एक पेड़ के नीचे फ्लो । धूनी रात – दिन जलती रहती । बरसात के मौसम में भी कोई छाया नहीं करते थे ।

आश्चर्य तो यह कि मूसलधार वर्षा में भी उनकी धूनी ठंडी नहीं हाती थी । जब देखो तभी स्वामी जी के मुखारविन्द से बड़ मधुर स्वर में श्री सीताराम नाम की  ध्वनि सुनायी पडती । आसपास के सभी मनुष्य -जीव – जंतु तक सीताराम ध्वनि करना सीख गये थे । वहाँ के पक्षियों की बोली में श्री सीताराम की ध्वनि सुनायी पडती, वहाँ के कुत्ते – बिल्ली की बोली में श्री सीताराम स्वर आता, वहाँ के वृक्षों की खड़खड़ाहट में श्री सीताराम नाम सुनायी देता और वहाँ की पवित्र सरयू धारा श्री सीताराम गान करती । तमाम वातावरण सीताराममय हो गया था।

स्वामी जी कभी कभी सत्संग भी करते, कोई ख़ास अधिकारी आनेपर उस समय वे जिन तर्क युक्तियो और शास्त्रप्रमाणों को अपने अनुभव के समर्थन में रखते, उनसे पता लगता कि वे षड्दर्शन के बहुत बड़े पण्डित है, परंतु इन ज्ञान की बातो को छोड़कर भजन में लगे रहते । सत्संग भी व भजन का ही उपदेश करते और कहते की मनुष्य और कर ही क्या सकता है ?
भगवान् ने कृपा करके जीभ दी है; इससे उनका नाम रटता रहे तो बस, इसीसे प्रभु कृपा करके उसे अपने आश्रय मे ले लेते है । स्वामी जी वैष्णव साधु थे, पर किसी भी सम्प्रदाय और मत से उनका विरोध नहीं था । वे सब को अपने ही रामजी के विभिन्न स्वरूपो के उपासक मानकर उनसे प्रेम करते । खण्डन तो कभी किसीका करते ही नही । मधुर मुसकान उनके होठोपर सदा खेलती रहती । वृद्ध होनेपर भी उनके चेहरे पर जो तेज छाया रहता, उसे देखकर लोग चकित हो जाते ।

उन्होने एक बार अपन श्री मुख से अपने पृर्वजीवन का वृत्तान्त एक संत को सुनाया था । उन्होंने श्री अयोध्या जी के एक संत से उसको इस प्रकार कहा था । स्वामी श्री राम अवधदास जी जौनपुर के समीप के ब्राह्मण थे । इनका नाम था- रामलगन । पिता के इकलौते पुत्र थे । माता बडी साध्वी और भक्तिमति थी । माताने ही इन्हें श्री सीताराम कीर्तन सिखाया था और प्रतिदिन वह इन्हें भगवान् के चरित्रो की मधुर कथा सुनाया करती थी ।

एक बार जब ये आठ वर्ष के थे, तब रात को एक दिन कुछ डाकू इनके घर मे आ पहुंचे  । इनके पिता पंडित सत्यनारायण जी काशी मे पढे हुए विद्वान् थे । पुरोहिती का काम था । सम्पन्न घर था । जिस दिन डाकू आये, उस दिन इनके पिता घरपर नही थे । किसी यजमान के घर विवाह में गये हुए थे । घरपर इनकी मा थीं और ये थे । दोनों माता पुत्र घरके अंदर आँगन में सो रहे थे । गरमी के दीन थे, इसलिये सब किवाड खुले थे । एक ओर गौएँ खुली खडी थीं । जिस समय डाकू आये, उस समय इनकी माता इनको हनुमान जी के द्वारा लंका दहन की कथा सूना रही थी । इसी

समय लगभग पंद्रह – सोलह डाकू सशस्त्र घर में घुस आये । उन्हें देखकर इनकी माँ डर गयी , पर इन्होंने कहा – माँ ! तू डर क्यो गयी ? देख, अभी हनुमान जी लंका जला रहे है । उनको पुकारती क्यों नहीं ? वे तेरे पुकारते ही हमारी मदद को आएंगे । इन्होंने बिलकुल निडर होकर यह बात कही परंतु माँ तो भयसे काँप रही थीं । उसे इस बात का विश्वास नहीं था कि सचमुच पुकारने से श्रीहनुमान जी मदद को आ जायेंगे । जब माँ कुछ नहीं बोली तब इन्होने स्वयं पुकारकर कहा -हनुमान जी ! ओ हनुमान जी !! हमारे घर में ये कौन लोग लाठी ले-लेकर आ गये हैं ! मेरी माँ डर रही है । आओं, जल्दी आओं, लंका बाद में जलाना ।

डाकू घर में घुसे ही थे की उसी क्षण सचमुन एक विशाल वानर कूदता -फाँदता आ रहा है; डाकू उसकी ओर लाठी तान ही रहे थे कि उसने आकर दो तीन डाकुओं को तो ऐसी चपत लगायी कि वे गिर पड़े । डाकुओ का सरदार आगे आया तो उसे गिराकर उसकी दाढी पकडकर इतनी जोस्से खींची कि वह चीख मारकर बेहोश हो गया । डाकुओं की लाठियां तनी ही गिर पडी । वानर को एक भी लाठी नहीं लगी । मारपीट की शोरगुल से आसपड़ोस के लोग आने लगे और लोगो से पीटने के भय से कुछ डाकू भागे । सरदार बेहोश था, उसे तीन-चार डाकुओं ने कंधेपर उठाया और आग निकले ।

बालक रामलगन जी और उसकी माँ बडे आश्चर्य से इस दृश्य को देख रहे थे । डाकुओं के भागनेपर वह वानर भी लापता हो गया । बालक हंसकर कह रहा था -देखा नहीं माँ ! हनुमान जी मेरी आवाज़ सुनते ही आ गये और बदमाशो को मार भगाया । माँ के भी आश्चर्य और हर्ष का पार नहीं था । गाँव वालो में यह घटना सुनी तो सब-के-सब आश्चर्य में डूब  गये ।रामलगन की माँ ने बताया कि इतना बडा और बलवान वानर उसने जीवन में कभी नहीं देखा था ।

दो-तीन दिन बाद पण्डित सत्यनारायण जी घर लौटे ।उन्होंने जब यह बात सूनी तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । डाकू घर से चले गये , यह आनंद तो था ही; सबसे बडा आनंद तो इस बात से हुआ कि स्वयं श्री हनुमान जी ने  पधरकर घर को पवित्र किया और` ब्राह्मणी तथा बालक को बचा लिया । वे भगवान् में श्रद्धा तो रखते ही थे, अब उनकी भक्ति और भी बढ़ गयी । उन्होंने यजमानों के यहां आना-जाना प्राय: बंद कर दिया था । दिनभर भजन-साधन मे रहने लगे । बालक रामलगन को व्याकरण उर कर्मकाण्ड पढ़ाने का काम उन्ही के गाँव के पंडित श्री विनायक जी के जिम्मे था ।

प्रात:काल तीन-चार घंटे पढ़ते  । बाकी समय माता-पिता के साथ वे भी भगवान् का भजन करते । भजन में इनका चित्त रमने लगा । जब इनकी उम्र बारह वर्ष की हुई तब तो ये घंटो भगवान् श्री रामचंद्र जी के ध्यान मे बेठने लगे । उस समय इनकी समाधि-सी लग जाती । नेत्रो से अश्रुओ की धारा बहती  । बह्यज्ञान नहीं रहता । समाधि टूटनेपर ये माता-पिता को बतलाते कि भगवान् श्री रामचंद्र जी श्री जनक नंदिनी जी तथा लखन लाल जी के साथ यहाँ बहुमूल्य राजसिंहासनपर विराज रहे थे । बालक की इस स्थिति से भाग्यवान माता-पिता को बड़ा सुख होता । वे अपने को बडा सौभाग्यशाली समझते । असल मे वे ही माता पिता धन्य है, जिनकी सन्तान भगवद्भक्त हो और जो अपनी संतान को भगवान् की सेवा में समर्पण कर सके।

रामलगन जी के माता- पिता सच्चे पुत्रस्नेही थे, वे अपने बालक को नर्क में न जाने देकर भगवान् के परमधाम का यात्री बनाने मे ही अपना सच्चा कर्तव्य पालन समझते थे; इसलिये उन्हाने पुत्र की भक्ति देखकर सुख माना तथा उसे और भी उत्साह दिलाया  । गाँव के तथा सम्बन्ध के लोग जब रामलगन के विवाह के लिये कहते, तब माता पिता उन्हें डराकर उत्तर देते – यह रामलगन हमारा पुत्र नहीं है, यह तो प्रभु श्री रामचन्द्र जी का है; विवाह करना न करना उन्ही के अधिकार में है । हम कुछ नहीं जानते !  उनकी ऐसी बाते सुनकर कुछ लोग चिढते , कुछ प्रसन्न होते और कुछ उनक्री मूर्खता समझते । जैसी जिसकी भावना होती, वह वैसी ही आलोचना करता ।

रामलगन जी की उम्र ज्यो ज्यो बढने लगी, त्यों-ही-त्यों उनका भगवत्प्रेम भी बढने लगा । एक बार रामनवमी के मेले पर रामलगन जी ने श्री अयोध्या जी जानेकी इच्छा प्रकट की । पंडित सत्यनारायण जी और उनकी पत्नी ने सोचा – अब श्री अयोध्या जी में ही रहा जाय तो सब तरह से अच्छा है । शेष जीवन वही बीते । रामलगन भी वहीं पास रहे । इससे इसकी भी भक्ति बढ़ेगी और हमलोगो का भी जीवन सुधरेगा । ऐसा निश्चय करके पत्नी की सलाह से पण्डित सत्यनारायण जी ने घर का सारा सामान तथा अधिकांश खेत-जमीन वगैरह दान कर दिया । इतनी-सी जमीन रखी, जिससे अन्न वस्त्र का काम चलता रहे ।

एक कास्तकार को खेत दे दिया और हर साल उससे अमुक हिस्सेका अन्न लेने की शर्त करके सब लोग श्री अयोध्या जी चले गये । इस समय रामलगन जी की उम्र साढ़े पंद्रह वर्ष की यही । माता , पिता और पुत्र तीनो अवध वासी बनकर भगवान् श्रीसीताराम जी का अनन्य भजन करने लगे । पुरे चार वर्ष के बाद पिता माता का देहान्त हो गया । दोनो का एक ही दिन ठीक रामनवमी के दिन शरीर छुटा । दोनों ही अन्तसमयतक सचेत थे और भजन मे निरत थे । शरीर छूटने के कुछ ही समय दोनों को भगचान् श्री रामचन्द्र जी का ने साक्षात् दर्शन देकर कृतार्थ किया । श्री रामलगन जी की उम्र उस समय साढे उन्नीस साल की थी । माता पिता की श्रद्धा क्रिया भलीभाँति सम्पन्न करने के बाद इन्होंने अवध के एक भजनानन्दी संत से दीक्षा ले ली। तबसे इनका नाम स्वामी रामअवधदास हुआ ।

स्वामी जी मे उत्कट वैराग्य था । ये अपने पास कुछ भी संग्रह नहीं रखते थे । योगक्षेम का निर्वाह श्रीसीताराम जी अपने आप करते थे । इन्होंने न कोई कुटिया बनवायी, न चेला बनाया और न किसी अन्य आडम्बर मे रहे । दिन रात कीर्तन करना और भगवान् के ध्यानइ मस्त रहते, यही इनका एकमात्र कार्य था ।  इन्हे जीवन मे बहुत बार श्री हनुमान जी ने प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे । भगवान् श्री रामचन्द्र जी के भी इनको सात बार दर्शन हुए । अन्तकाल में श्री रामचंद्र जी की गोद में सिर रखकर इन्होने शरीर छोडा । लोगो को विश्वास था कि ये बहुत उच्च श्रेणी के संत है । ये बहुत ही गृप्त रूप से रहा करते थे और बहुत गुप्त रूप से भजन भी किया करते थे।

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