भक्त प्रेमनिधि जी....


एक भक्त  थे प्रेम निधि उन का नाम था..सब में भगवान है ऐसा समझ कर प्रीति पूर्वक भगवान को भोग लगाए..और वो प्रसाद सभी को बाँटा करते
यमुनाजी से जल लाकर..भगवान को स्नान कराते….
यमुना जी के जल से भगवान को जल पान कराता थे..
एक सुबह सुबह बहुत जल्दी उठे प्रेम निधि…मन मैं आया कि सुबह सुबह जल पर किसी पापी की, नीगुरे आदमी की नज़र पड़ने से पहेले मैं भगवान के लिए जल भर ले आऊँ ऐसा सोचा…
अंधेरे अंधेरे में ही चले गये..लेकिन रास्ता दिखता नही था..इतने में एक लड़का मशाल लेकर आ गया..और आगे चलने लगा..प्रेम निधि ने सोचा की ये लङका भी उधर ही चल रहा है ? ये लड़का जाता है उधर ही यमुना जी है..तो इस के पिछे पिछे मशाल का फ़ायदा उठाओ..नही तो कही चला जाएगा…फिर लौटते समय देखा जाएगा..
लेकिन ऐसा नही हुआ..मशाल लेकर लड़का यमुना तक ले आया..प्रेम निधि ने यमुना जी से जल भरा..ज़्यु ही चलने लगे तो एकाएक वह लड़का फिर  आ गया.. आगे आगे चलने लगा..अपनी कुटिया तक पहुँचा..तो सोचा की उस को पुछे की बेटा तू कहाँ से आया..
तो इतने में देखा की लड़का तो अंतर्धान हो गया! प्रेम निधि भगवान के प्रति प्रेम करते तो भगवान भी आवश्यकता पङनें  पर उन के लिए कभी किसी रूप में कभी किसी रूप में उन का मार्ग दर्शन करने आ जाते…
लेकिन उस समय यवनों का राज्य था..हिंदू साधुओं को नीचे दिखाना और अपने मज़हब का प्रचार करना ऐसी मानसिकता वाले लोग बादशाह के पास जा कर उन्हों ने राजा को भड़काया…की प्रेम निधि के पास औरते भी बहोत आती है…बच्चे, लड़कियां , माइयां सब आते है..इस का चाल चलन ठीक नही है..
प्रेम निधि का प्रभाव बढ़ता हुआ देख कर मुल्ला मौलवियों ने , राजा के पिठ्ठुओ ने राजा को भड़काया.. राजा उन की बातों में आ कर आदेश दिया की प्रेम निधि को हाजिर करो..
उस समय प्रेम निधि भगवान को जल पिलाने के भाव
से कुछ पात्र भर रहे थे…
सिपाहियों ने कहा , ‘चलो बादशाह सलामत बुला रहे ..चलो ..जल्दी करो…’ प्रेम निधि  ने कहा मुझे भगवान को जल पिला लेने दो परंतु सिपाही उन्हें जबरदस्ती पकड़ ले चले
तो भगवान को जल पिलाए बिना ही वो निकल गये..अब उन के मन में निरंतर यही खटका था की भगवान को भोग तो लगाया लेकिन जल तो नही पिलाया..ऐसा उन के मन में खटका था…
राजा के पास तो ले आए..राजा ने पुछा, ‘तुम क्यो सभी को आने देते हो?’
प्रेम निधि बोले, ‘सभी के रूप में मेरा परमात्मा है..किसी भी रूप में माई हो, भाई हो, बच्चे हो..जो भी सत्संग में आता है तो उन का पाप नाश हो जाता है..बुध्दी शुध्द होती है, मन पवित्र होता है..सब का भला होता है इसलिए मैं सब को आने देता हूँ सत्संग में..मैं कोई संन्यासी नही हूँ की स्रीयों को नही आने दूं…मेरा तो गृहस्थी जीवन है..भले ही मैं गृहस्थ हो भगवान के आश्रय में रहता हूं परंतु फिर  भी गृहस्थ परंपरा में ही तो मैं जी रहा हूँ..’
बादशाह ने कहा की, ‘तुम्हारी बात तो सच्ची लगती है..लेकिन तुम काफिर हो..जब तक तुण सही हो  तुम्हारायह परिचय नही मिलेगा तब तक तुम को जेल की कोठरी में बंद करने की इजाज़त देते है..’बंद कर दो इस को’
भक्त माल में कथा आगे कहेती है की प्रेम निधि तो जेल में बंद हो गये..लेकिन मन से जो आदमी गिरा है वो ही जेल में दुखी होता है..अंदर से जिस की समझ मरी है वो ज़रा ज़रा बात में दुखी होता है..जिस की समझ सही है वो दुख को तुरंत उखाड़ के फेंकने वाली बुध्दी जगा देता है..क्या हुआ? जो हुआ ठीक है..बीत
जाएगा..देखा जाएगा..ऐसा सोच कर वो दुख में दुखी नही होता…
प्रेम निधि को भगवान को जल पान कराना था..अब जेल में तो आ गया शरीर..लेकिन ठाकुर जी को जल पान कैसे कराए यहां जेल में बंद होने की चिंता बिल्कुल नहीं थी यहां तो भगवान को जल नहीं पिलाया यही दुख मन में था यही बेचैनी तड़पा रही थी?..
रात हुई… राजा को मोहमद पैगंबर साब स्वप्ने में दिखाई दिए.. बोले, ‘ बादशाह! अल्लाह को प्यास लगी है..’
‘मालिक हुकुम करो..अल्लाह कैसे पानी पियेंगे ?’
राजा ने पुछा. बोले, ‘जिस के हाथ से पानी पिए उस को तो तुम ने जेल में डाल रखा है..’
बादशाह सलामत की धड़कने बढ़ गयी…देखता है की अल्लाह ताला और मोहमाद साब बड़े नाराज़ दिखाई दे रहे…मैने जिस को जेल में बंद किया वो तो प्रेम निधि है. बस एकदम आंख खुल गई.जल्दी जल्दी प्रेम निधि को रिहा करवाया…
प्रेम निधि नहाए धोए..अब भगवान को जल पान कराते है.. राजा प्रेम निधि को देखता है…देखा की अल्लाह, मोहमद साब और प्रेम निधि के गुरु एक ही जगह पर विराज मान है!
फिर राजा को तो सत्संग का चसका लगा..ईश्वर, गुरु और मंत्र दिखते तीन है लेकिन यह तीनों एक ही सत्ता हैं..बादशाह सलामत हिंदुओं के प्रति जो नफ़रत की नज़रियाँ रखता था उस की नज़रिया बदल गयी…
प्रेम निधि महाराज का वो भक्त हो गया..सब की सूरत में परब्रम्ह परमात्मा है ..राजा साब प्रेम निधि महाराज को कुछ देते..ये ले लो..वो ले लो …तो बोले, हमें तो भगवान की रस मयी, आनंद मयी, ज्ञान मयी भक्ति चाहिए..और कुछ नही…
जो लोग संतों की निंदा करते वो उस भक्ति के रस को नही जानते..
"संत की निंदा ते बुरी सुनो जन कोई l
की इस में सब जन्म के सुकृत ही खोई ll"
जो भी सत्कर्म किया है अथवा सत्संग सुना है वो सारे पुण्य संत की निंदा करने से नष्ट होने लगते है..

संतो की जय भक्तों की जय.....
करुणानिधान प्रभु की जय...

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