भक्त धनुर्दास


भक्ति मार्ग की तीन सबसे बड़ी बाधाए-कंचन कामिनी और कीर्ति हैं । कंचन अर्थात धन में आसक्ति कामिनी अर्थात स्त्री में आसक्ति और कीर्ति अर्थात प्रसिद्धि की लालसा ।
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जो इन तीनों से बचकर रहे वही परमपद का अधिकारी बना और जो इन तीनों में से किसी एक के भी चक्कर में पड़ता है वही लाख-चौरासी के जन्म-मरण चक्र में फंसकर नाना प्रकार के कष्ट भोगता है।
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अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व मद्रास में त्रिचनापल्ली के समीप वैष्णव तीर्थ उरूयर में धनुर्दास नाम का एक व्यक्ति रहता था ।
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वह मल्ल युद्ध का शौकीन था । बलिष्ठ देह का स्वामी धनुर्दास अपने बल पर अहंकार भी रखता था । कई कुश्तियां जीत चुका धनुर्दास अपने प्रतिद्वंद्वी को तब तक पछाड़ता और पटकता था जब तक वह प्राणों की भीख ही न मांगने लगता ।
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इसके अलावा धनुर्दास में एक और अद्भुत बात थी । वह हेमाम्बा नाम की एक अतिसुंदर गणिका पर मोहित था । उसने उसे प्रेयसी बनाकर अपने घर में रखा हुआ था ।
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धनुर्दास के बल के समक्ष बड़े-बड़े मल्ल सिर झुकाते थे और स्वयं धनुर्दास अपनी प्रेयसी के समक्ष सिर झुकाए रहता था । वह उस पर इतना मोहित था कि उसे हर क्षण अपने साथ रखता था ।
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मार्ग में हेमाम्बा चलती तो धनुर्दास उसके आगे उसकी तरफ मुंह किए उल्टा चलता । कहीं भी बैठता उसे अपने सामने बिठा लेता । निर्लज्जता की सीमा तक उसका यह व्यवहार शहर-भर में चर्चा का विषय था । परंतु उसे न लज्जा का भान था न लोक निंदा का ।
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एक बार श्रीरंगम मठ में वार्षिक त्योहार रंगक्षेत्र का आयोजन था । इस महोत्सव में दूर-दूर से लाखों श्रद्धालु आते थे । चैत्र माह में यह महोत्सव हो रहा था ।
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“प्रिये, मैंने सुना है कि श्रीरंगम मठ में महोत्सव हो रहा है ।” हेमाम्बा ने धनुर्दास से पुछा ।
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“हां प्रिये, वहा तो वर्ष में कई बार महोत्सव होता है ।” धनुदसि ने अनुराग से उसे देखकर कहा ।
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मैरा मन भी महोत्सव देखने को हो रहा है ।” ”अवश्य प्रिये चलो ।” धनुर्दास ने कई सेवक साथ लिए और हेमाम्बा के साथ अपनी विचित्र चाल से चलता हुआ महोत्सव स्थल की तरफ चल पड़ा ।
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उसके एक हाथ में छाता था जिसकी छाया में उसकी प्रेयसी चल रही थी और वह स्वय उसकी तरफ मुंह किए धूप में चल रहा था । चिलचिलाती धूप में पसीने से लथपथ धनुर्दास को अपनी सुध तक नहीं थी ।
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आते-जाते यात्री उसे देखकर हंस रहे थे । परतु उसे तनिक भी संकोच या लज्जा नहीं थी । वह इसी प्रकार चलता हुआ श्रीरंगम मठ के समीप आ पहुचा ।
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मठ के पीठाधीश श्री रामानुजजी ने जब उसका वह विचित्र आचरण देखा तो उन्हें आश्चर्य के साथ क्रोध भी आया ।
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”यह निर्लज्ज व्यक्ति कौन है जो इस प्रकार स्त्री के साथ आ रहा है ?” श्री रामानुजजी ने अपने एक शिष्य से पूछा।
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”इसका नाम धनुर्दास है । पहलवानी करता है ।” शिष्य ने बताया: ”यह स्त्री जो इसके विचित्र व्यवहार का कारण है एक गणिका है ।”
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“इस पहलवान से जाकर कहो कि तीसरे प्रहर वह हमसे आकर मिले ।” शिष्य ने धनुर्दास को स्वामी जी का आदेश जाकर सुनाया ।
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”मुझे… मुझे स्वामी जी ने बुलाया है ?” धनुदास भयभीत हो उठा: “क्यों ? मुझ जैसे साधारण आदमी से उन्हें क्या काम है ?”
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”मुझे क्या पता । वैसे तुम साधारण आदमी कहा हो तुम्हारा कृत्य तो समस्त मद्रास में चर्चा का विषय है ।” शिष्य ने कहा: “तीसरे पहर स्वामी जी के दर्शन कर लेना मैं चला ।” शिष्य चला गया ।
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धनुर्दास मन में विचार करने लगा कि : “अवश्य आचार्य जी ने मेरे निर्लज्ज व्यवहार को देख लिया है । उन्हे मठक्षेत्र में ऐसी निर्लज्जता करने वाले पर क्रोध ही आएगा । यह धार्मिक स्थान है और मैं यहा ऐसी निर्लज्जता कर रहा था ।
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अब उनके सामने जाता हूं तो जाने क्या दंड मिले । न जाऊ तो यह उनकी अवज्ञा होगी जिसका फल दुखदायी हो सकता है ।” और अंतत : उसने मठ पर जाना स्वीकार कर लिया ।
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भोजन के पश्चात वह मठ पर पहुचा । स्वामी जी ने उसके आने की सूचना पाकर उसे अपने पास बुला लिया । धनुर्दास ने डरते-डरते गुरु महाराज को प्रणाम किया ।
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”आओ धनुर्दास हम तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे ।” स्वामी जी ने कहा ।
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”स्वामी जी मुझ अधम को…।”
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”हम तुम्हारे उस व्यवहार का कारण जानना चाहते हैं जो हर ओर तुम्हारी प्रसिद्धि और निंदा का कारण बन रहा है ।” स्वामीजी ने पूछा ।
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”स्वामीजी मैं उस स्त्री के रूप-सौंदर्य का दास बन गया हूँ । उसे देखे बिना मुझे चैन नहीं पड़ता । उसके मुख में कुछ ऐसा आकर्षण है जो मुझे हर समय उसके दर्शन की इच्छा रहती है । आप मुझे कोई भी आज्ञा करें परतु उसका साथ न छुड़ाए ।”
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”अर्थात तुम्हें उससे भी मनोहारी छवि दिखाई दे तो तुम उसके प्रति भी आसक्त हो जाओगे । सौंदर्य के उपासक जो ठहरे ।”
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”संभवत: ऐसा हो ।” धनुर्दास ने स्वीकार किया ।
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”यदि हम तुम्हें उस स्त्री से भी अधिक सुदर मनोहारी सूरत दिखा दें तो क्या करोगे ?”
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”फिर तो मैं उस स्त्री का परित्याग कर सकता हूं ।”
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”परित्याग उचित नहीं । वह कभी गणिका अवश्य होगी परंतु अब वह तुम्हारी पत्नी की तरह है । तुमने उसका परित्याग किया तो वह पुन: अपने पाप कर्म करने लगेगी ।
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उसे तुम पत्नीवत् रखो । बस उसके रूप पर इतने मोहित न हो जाओ । यदि ऐसा कर सको तो संध्या को आरती के समय आ जाना ।”
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”जो आज्ञा स्वामीजी!” धनुर्दास ने कहा और जाने की आज्ञा ली । उसे स्वामी जी का स्नेहवत व्यवहार बड़ा आत्मीय लगा । घर आकर उसने हेमाम्बा से सब बातें कहीं ।
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”स्वामी जी सच ही कहते हैं । ऐसी आसक्ति लोक निंदा का कारण बनती है ।” हेमाम्बा ने कहा । ”पहले कभी तो तुमने ऐसा नहीं कहा ।” ”मुझे तो भय लगता था कि कहीं मेरे ऐसा कहने पर तुम मेरा त्याग न कर दो । जाने किस जन्म के पुण्य के बदले तो मैं अपने पापी जीवन से छूटकर तुम्हारी शरण में आई हूं ।”
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”तो मुझे स्वामीजी के पास जाना चाहिए ।”
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”अवश्य ! क्या पता उद्धार का समय आ गया हो ।”
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धनुर्दास संध्या के समय मठ पहुंचा । स्वामी जी आरती करने को तैयार थे । उन्होंने धनुर्दास को अपने समीप खड़ा कर लिया ।
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”अपने चित्त को शुद्ध करके भगवान को स्मरण करो ।” स्वामी ने कहा । उस ने ऐसा ही किया ।
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”हे दयामय सर्वेश्वर घट-घट के वासी ।” स्वामी जी ने अपनी प्रार्थना में कहा: ”इस इन्मुख प्राणी को अपने सौंदर्य का दर्शन देकर अपने चरणों में इसकी वृत्ति को लगाओ ।”
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उसी क्षण, क्षण-भर के लिए धनुर्दास को मूर्ति में सजीवता का आभास हुआ और उसने सौंदर्य की ऐसी मनोहारी झांकी देखी कि उसे उस स्वरूप में समस्त सृष्टि का सौंदर्य दिखाई दे गया । अगले ही क्षण वह बांकी झांकी लुप्त हो गई ।
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धनुर्दास तो जैसे पागल हो गया । वह स्वामी जी के चरणों से लिपट कर रो पड़ा । ”स्वामी जी ! मुझे पुन: वह झांकी दिखाइए । आप जो कहेंगे मैं वही करूंगा । यदि आप कहें तो मैं अपना सर्वस्व त्याग दूंगा परतु वह मनमोहिनी सूरत मुझे एक बार और दिखला दें ।” वह रोते हुए बोला ।
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हृदय से सभी आसक्ति नष्ट हो चुकी थी । सात्विकता ने अपना प्रभाव दिखाया । हेमाम्बा की स्मृति तक मिट गई । विचारों ने कहा कि उसने अभी तक अपने जीवन का यातनापूर्ण नर्क ही भोगा है ।
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”धनुर्दास अपनी भक्ति को शिखर मंडल पर ले जाने का अभ्यास करो । जो झांकी मेरे तप के प्रभाव से देखी उसे अपनी भक्ति के प्रभाव से देखो । अब घर जाओ ।”
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धनुर्दास की समझ में आ गया कि स्वामी जी ने क्या कहा है । वह घर आया। अब हेमाम्बा उसे आकर्षित नहीं कर रही थी। उसने उसे सब वृत्तात बताया।
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कुछ दिनों बाद वे दोनों ही रामानुजजी के शिष्य बन गए। दोनों का आचरण आदर्श हो गया । धीरे-धीरे धनुर्दास ने स्वयं को इतना पवित्र कर लिया कि वह स्वामी जी के विश्वस्त सेवकों में गिना जाने लगा ।
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स्वामीजी वृद्धावस्था में धनुर्दास के कंधो का सहारा लेकर चलते तो मठ के अन्य शिष्य धनुर्दास से जलने लगे ।
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परंतु जिसे स्वामी रामानुजजी जैसे महान संत और महागुरु का सान्निध्य प्राप्त हो और जिस पर भगवान की करुण दृष्टि पड़ चुकी हो उसे किसी का क्या भय ! किसमें इतना साहस कि प्रभुत्व के परम भक्त के परम शिष्य का कोई अहित कर सके ।
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हेमाम्बा भी ऐसे भगवद्भक्त का साथ पा कर इस संसार सागर से पार उतर गई। आज भी भक्त धनुर्दास का नाम वेष्णवों में बड़े आदर से लिया जाता है।
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          जय जय श्री राधे
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