"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 48

48 आज  के  विचार

( प्रेम उपासना है,  वासना नही )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 48 !!



पर ये जगत,   प्रेम को वासना ही समझ बैठा है .......पर प्रेम  उपासना है ....प्रेम  साधना है ......प्रेम  चेतना की उच्चतम अवस्था है  ....प्रेम तप है .....प्रेम जप है .......प्रेम व्रत है ........प्रेम एक  शुद्ध और पवित्र भाव है ।

किस नें कह दिया तुमको  कि  प्रेम   शरीर के वासना की पूर्ति  है  ? 

नही .....प्रेम तो आत्मा की  तड़फ़ है ...........जब तक  उसे परमात्मा नही मिलता  तब तक  वह तड़फ़ बनी ही रहेगी .......और प्रेम  परमात्मा में ही जाकर रुकता है .........क्यों की प्रेम का लक्ष्य ही  वही है ..........नही तो  भटकते रहोगे ...........भटकन  जारी है ही   ।

हे गुरुदेव !      प्रेम का स्वरूप कैसा होना चाहिये  ? 

बड़े भाव से  हाथ जोड़कर  वज्रनाभ नें  महर्षि शाण्डिल्य से प्रश्न किया ।

हे वत्स वज्रनाभ !   प्रेम में स्वार्थ नही होना चाहिये ........निःस्वार्थ प्रेम  सबसे बड़ी साधना है........महर्षि  अच्छे से  समझानें लगे .......जप तप व्रत  जो भी करते हो ....करो ......पर   "प्रेम साधना" का सिद्धान्त एक   बात कहती  है.......आप जप करते हो ....तप करते हो ......साधना करते हो ....पर  क्या इन सब साधनाओं से आप स्वयं का सुख चाहते हो  ?  

अगर  चाहते हो ........तो फिर  वो " प्रेम साधना" नही है .......वो तुम्हारे "स्वसुख की साधना"  है .......इस स्वसुख की साधना से   तुम्हे  विनाशी पदार्थ ही मिलेगें   वो अविनाशी तत्व  तुम से दूर हो जाएगा  ।

"प्रेम साधना"  एक दिव्य साधना है........इसमें  स्वार्थ के लिये कोई स्थान नही है.......निःस्वार्थ ही  इसका साधन है  ।

किसी की भी सेवा करो ........तो   उससे कुछ मत चाहो ........अपनें सन्तान की भी सेवा करो ........तो ऐसे करो कि    इनसे कल को मुझे  बुढ़ापे में   सेवा  मिलेगी......ऐसा भी सोचो मत .......बस तुम्हे  सेवा करनी है .......देखो ! वज्रनाभ !    शास्त्र कहते हैं ....निःस्वार्थ की बहुत महिमा है ......और  स्वार्थ तो   राक्षसी स्वभाव है.....इसलिये  जो भी करो .......उसे   सेवा मानकर  ही करो ......निःस्वार्थ  होकर करो .....यही है प्रेम का  रूप......महर्षि नें समझाया ।

हे वज्रनाभ ! ऐसा निःस्वार्थ  प्रेम भाव  
श्रीराधा रानी में ही दिखाई देता है ।

जिन्होनें   अपनें सुख को कभी महत्व नही दिया ......सदैव महत्व देती रहीं  अपनें प्रियतम के सुख को......वो सुखी है  तो हम भी सुखी हैं ।

ये भाव !  "कृष्ण को जो अच्छा लगे"....अपनें आपको तो मिटा ही डाला है   श्रीराधा नें.......उनको जो अच्छा लगे !     

महर्षि  नें  श्रीराधा चरित्र को  ही  आगे बढ़ाया  ।

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आज कल  श्रीराधारानी  "मोर कुटी"  में ही  अपना समय बिता रही हैं   ।

बरसानें में  एक कुञ्ज में है ......जिसे मोर कुटी कहते हैं ........यहाँ  अनेक मोर  हर समय रहते हैं ......मोरों  से श्रीराधा  को बहुत लाड़ है ।

बहुत पहले कि बात है......अपनी सखियों के साथ ये मोर को देखनें  इसी कुञ्ज में आयी थीं.......पर  यहाँ कोई मोर नही मिले......तो  स्वयं  श्याम सुन्दर ही मोर बन आये थे......क्यों कि उनकी  श्रीराधा  बड़ी उदास हो गयीं थीं ......और कृष्ण   अपनी प्रिया कि उदासी कैसे देख लेते  !

तो मोर बन आये थे  कृष्ण ही ।    बस उसी दिन से इस कुञ्ज का नाम मोर कुटी   रख दिया था  स्वयं  श्रीराधा रानी नें ही   ।

तो कुछ दिनों से   श्रीराधा  यहीं पर अपना समय बिता रही थीं .......सखियों को भी छोड़ दिया था   कुछेक दिन के लिये .....सखियाँ भी उदास  थीं ............श्याम सुन्दर भी  दुःखी थे की  कई दिन हो गए  श्रीजी हमसे मिलती ही नही हैं ..........सखियों से   खूब सिफारिश करवाई ............पर उस मोर कुटी में  किसी का  प्रवेश ही नही था ।

पर   आज !     आज   करुणामयी की कृपा बरसी ..........मोर कुटी  सखियों के लिये खोल दी गयी .............श्याम सुन्दर को भी  आनें की आज्ञा  थी ...........सब  खुश हो गए थे .............श्रीजी नें  इन दिनों अकेले  इस कुटी में रहकर  इस कुञ्ज को  कितना सजाया था .........

कुञ्ज खोल दिया गया .........सखियाँ    हर्षोल्लास करती हुयी  कुञ्ज में प्रवेश करनें लगीं.........साथ में   श्याम सुन्दर भी थे ..........श्याम सुन्दर को  प्रिया  अपनें साथ लेकर चलीं .............

ओह !  कितना सुन्दर सजाया था  मोर कुटी को  श्री जी  नें  ।

सरोवर को   जाग्रत किया था .......उसमें  हर रँग के कमल खिले थे ।

कौन से फूल थे  ऐसे  जो यहाँ न हों ................सुगन्ध  की लहर ही चल रही थी मोर कुटी में ...........सखियाँ  मुग्ध थीं  और  श्याम सुन्दर  भी चकित थे .....प्यारी !    कितना सुन्दर कुञ्ज है    ।

प्यारे !   एक और सुन्दरता दिखाऊं  इस कुञ्ज की  ?  

चहकते हुए  श्रीराधा रानी नें  श्याम से पूछा  ।

हाँ .....हाँ ...............आनन्दित हैं  श्याम सुन्दर तो  ।

रुको ............तभी   श्रीराधा रानी नें     जोर से आवाज लगाई .......

श्रीराधे !        राधे राधे ! 

      जैसे ही   स्वयं  श्रीराधा रानी नें अपना  नाम लिया ...........

बस  फिर क्या था ................कई मोरों का झुण्ड ......तोता.......मैना ........ये सब पक्षी   उड़ उड़ कर वहाँ आगये .............

देखो  प्यारे !    ये  कितना सुन्दर बोलता है ...............एक मोर को बुलाया  श्रीराधा रानी नें ..........बोल  मोर !  बोल ...........

मोर बोलता है ..............राधे !    राधे !  राधे !  

श्याम सुन्दर मुग्ध हो जाते हैं ............आहा ! कितना सुन्दर बोल रहा है ये ...................प्यारे !    इस शुक पक्षी को भी सुनो .......बोल  तोता ! 

तुरन्त तोता बोल उठा -  राधा !  राधा !  राधा !   

ताली बजानें लगे श्याम सुन्दर ............नेत्रों से प्रेमाश्रु बह चले  .......

प्यारी !   कितना सुन्दर बोलते हैं ये पक्षी .......कितना सुन्दर  कुञ्ज है ये तुम्हारा .............कितना सुन्दर नृत्य है  इन मोरों का ...........

पर ये क्या  !    पूरा का पूरा कुञ्ज .....पूरी की  पूरी मोर कुटी   

राधा ! राधा ! राधा ! नाम से गुँजित हो उठी थी ..........

क्यों की शताधिक मोर .....तोता ,   मैना , कोयल  सब  एक साथ  बोल रहे थे .........श्रीराधा का नाम सुनकर .......और   श्रीराधा के ही  द्वारा पोषित पालित  इन पक्षियों के मुख से   श्रीराधा नाम सुनकर ......श्याम सुन्दर  के आनन्द का  ठिकाना नही रहा .............वो  अपनें आपको भी विस्मृत कर  बैठे थे ........वो  श्रीराधा के ही अंग में  लुढ़क गए थे  ।

कुछ देर रहे  श्याम सुन्दर ...........फिर  साँझ होनें लगी ......तो  नन्दगाँव की ओर चल पड़े थे    ।

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आपको एक बात पूछें  ?       

सखियों में   मुँह लगी सखी  है   ललिता .........ये  श्रीराधा रानी से कुछ भी कह देती है ............।

हाँ हाँ ...पूछो ....क्या पूछना है .......  श्रीराधा रानी नें  कहा ।

हे स्वामिनी !     गलती हो तो क्षमा करना ............बस एक बात पूछनी है  कि   अभी श्याम सुन्दर आपके कुञ्ज में आकर गए .............पर हम सब सखियों को एक बात अखरी ........वही हमें पूछना है    ।

हाँ ....हाँ .....कहा ना  !     पूछो  !   श्रीजी नें फिर कहा  ।

आपनें इन मोरों को  तोतों को ......अन्य पक्षियों को  अपना ही नाम क्या रटवाया   ?   हे  हरिप्रिया  श्रीराधे !      आप प्रेम की अधिष्ठात्री देवी हैं ........फिर प्रेम ,   कैसे  अपनें प्रियतम को छोड़  अपना नाम रटाये  ?

आपनें ऐसा क्यों किया ?    प्रेम तो पिय के लिए ही समर्पित होता है ना ? 

फिर उस प्रेम में ......."हम" कहाँ है  ?     फिर हमारा नाम  क्यों ?  

कृष्ण नाम  क्यों नही बुलवाया .......राधा नाम क्यों  बुलवाया  आपनें .......हे  प्रेम की देवी !       अपराध हो तो क्षमा करना ...... पर हमें  इसका समाधान चाहिये .........श्रीराधा रानी से  ललिता सखी नें ही ये प्रश्न किया  था ।

छोडो ना !        मैं क्या  जानूँ   प्रेम  !  

  मुझ में तो प्रेम  की एक छींट भी नही है .......श्रीराधा रानी नें कहा ।

ना !    आप हम लोगों को बहका नही सकतीं.......आपको उत्तर देना ही पड़ेगा.........हम सब की प्रार्थना है......सब सखियों नें  ही अब हाथ जोड़ लिए  थे  ।

अच्छा !  सुनो !         प्रेम को समझ पाना इतना सरल नही है सखियों !

आहा !  प्रेम की देवी  आज प्रेम पर  बोल रही थीं    ।

श्रीराधा रानी नें कहा -    हे सखियों !     कृष्ण नाम से मुझे  बहुत सुख मिलता है ...............कृष्ण नाम  सुनकर  ........कृष्ण नाम कहकर मुझे जितना सुख मिलता है ........उसका मैं वर्णन तक नही कर सकती  ।

पर  हे सखियों  !       राधा नाम सुनकर  मेरे प्यारे को बड़ा सुख मिलता है ..........राधे  राधे .....इस नाम को  सुनते ही   मेरे प्यारे श्याम को इतना आनन्द  मिलता है ......मैने देखा है .........वो    अद्भुत रस में डूब जाते हैं ............उनके हृदय का  आनन्द हिलोरें लेता रहता है.....वो उसी में डूबे रहते हैं ................

श्रीराधा रानी नें कहा -  सखियों !   प्रेम  का अर्थ  अपना सुख तलाशना नही है ...........हमें  अपनें सुख को नही देखना ............श्रीजी नें स्पष्ट किया  -  सखियों !   प्रेम का अर्थ है........मेरे प्रिय को सुख मिले .......मेरे प्रियतम सुखी हों .............और मेरे प्रियतम सुखी होगये ....तो  दुनिया में  किस दुःख की ताकत है  जो हमें  दुःखी कर जाए ........हम तो  प्रियतम के सुख में सुखी हैं .........उन्हें  जो अच्छा  लगता है .....वही हम करेंगीं ..............हे सखियों !      मैं  स्वसुख देख सकती थी ......और स्वसुख देखते हुए .......उन पक्षियों के मुख से  "कृष्ण"  नाम का उच्चारण करवा सकती थी ...........मुझे  अपार सुख और आनन्द मिलता  जब मेरे प्रियतम के नाम से मेरा कुञ्ज गुँजित हो उठता ........पर ।

पर सखी !   हमें अपना ही सुख तो नही देखना है ना !  

हमारी तो साधना ही यह है ...........वे सुखी रहें ........उन्हें  अच्छा लगे ...उन्हें  आनन्द मिले ............हमारा क्या है  ?   हम तो मिट चुकी हैं कबकी ............हमनें तो अपना आस्तित्व ही मिटा डाला है  अपनें प्रियतम के चरणों में .........सखी !     देखा नही  !  जब मेरे कुञ्ज के ये पक्षी  मेरा नाम ले रहे थे .......राधे !  राधे !   राधा !  राधा !    कर रहे थे  तब मेरे प्यारे कितनें गदगद् हो रहे थे  ओह !    हमें और क्या चाहिये !  हमें तो मिल गया  मोक्ष !  हमें तो मिल गयी मुक्ति ..........हमें तो  इतनें में ही  मिल गया  सर्वस्व .....क्यों की  हमारा प्रियतम प्रसन्न हो गया ना !

श्रीजी की बातें सुनकर  सखियाँ  प्रेम के अश्रु बहानें लगीं थीं ..........

और श्रीराधा रानी के चरणों में गिर गयीं....धन्य  धन्य हो श्री हरिप्रिया  ।

 क्या  प्रेम है !  वज्रनाभ !     

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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