आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 162 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
मेरे पुत्र बड़े हो रहे थे ............
पृथ्वी के एकछत्र सम्राट श्रीराम के पुत्र वन में पल रहे थे........इन्हें राजसी वस्त्र कहाँ प्राप्त ! .....वल्कल पहनकर ही ये बड़े हो रहे थे ।
इनके मित्रों में राजकुमार नही थे........वेदपाठी थे, अरण्यवासी थे ।
हाँ पक्षी मेरे पुत्रों से बहुत प्रेम करते ........पशु तो मेरे पुत्रों का साथ हर समय देते ...........बन्दर अपनी गोद में लेकर एक से दूसरी डाल में कूदते .......वनराज सिंह की सवारी करना मेरे पुत्रों का सामान्य खेल था ........सिंहनी मेरे पुत्रों के लिये वात्सल्य उढ़ेल देती ........।
एक दिन मैं मूर्छित हो गयी ये देखकर कि मेरे पुत्रों को अपना दूध पिलानें के लिये कितनी आतुर थी वो सिंहनी ।
सिंह के दाँत गिनना ये तो शौक था मेरे पुत्रों का ।
अरण्य भी आशीर्वाद देता है ..............एकान्त अरण्यवासी को ।
ये आशीर्वाद खूब मिला मेरे बालकों को ।
कब बड़े हो गए मुझे पता ही नही चला ............कुश बड़े हैं और लव छोटे ......कुछ समय का ही अंतर है दोनों में .........।
11 वर्ष के हो गए थे देखते ही देखते......उपनयन संस्कार करवाया महर्षि नें......फिर तो अपनी पूरी विद्या मेरे बालकों पर ही उढ़ेल दी थी । ........गुरु को आज्ञाकारी शिष्य मिले तो गुरु आनन्दित हो जाता है .........श्रद्धा भरपूर थी मेरे पुत्रों में ।
चारों वेद मात्र एक माह में कंठस्थ कर लिया था ..............धनुर्विद्या की शिक्षा महर्षि नें पूरे मनोयोग से दी ।
मुझे कहा था महर्षि नें .........सर्वगुण सम्पन्न सर्वेश्वर श्रीराम से कम नही हैं ये बालक ................
ये श्रीराम कौन हैं ? हमारे राजा हैं ...........इस भारत वर्ष के सम्राट हैं .............कुश लव अपनें मित्र ब्रह्मचारी से पूछते .....तो उनको यही उत्तर मिलता ।
कहाँ रहते हैं ये राजा राम ? अयोध्या मैं ........पास में ही है ।
एक दिन मुझ से पूछ बैठे .......जब मैं उनको भोजन करा रही थी -
माँ ! ये राजा राम अयोध्या में रहते हैं ?
कुश नें पूछा था ।
मैं स्तब्ध हो गयी ये नाम सुनते ही ..........मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले .......मेरा शरीर काँपनें लगा ।
मेरे पुत्रों नें भोजन छोड़ दिया मेरे पास आगये .......मेरे आँसुओं को पोंछते हुए बोले ........अब से हम कुछ नही पूछेंगे आपसे माँ ! .........आप रो देती हैं कुछ भी पूछो .............हम आज से कुछ नही पूछेंगें .....अब तो मत रोइये !
मैने अपनें हृदय से चिपका लिया था उन्हें ................।
विद्या अध्ययन के लिये गम्भीर हो उठे थे महर्षि ।
मेरे बालकों को सम्पूर्ण व्याकरण ........शस्त्र विद्या .........शास्त्र अध्ययन.......इतना ही नही .......क्षत्रिय के लिए जो आवश्यक थे वो सब कुछ प्रदान किये महर्षि नें ........।
ब्रह्मास्त्र , वायव्यास्त्र, आग्न्यास्त्र , वरुणास्त्र , सबकुछ प्रदान किया मेरे पुत्रों को महर्षि नें...........।
मेरे पुत्रों की प्रशंसा करते थकते नही थे........."बहुत मेधा है इन बालको में......इन बालको की तुलना किसी से नही हो सकती ......ये बस अपनें श्रीराम के ही पुत्र हैं .....पर उनसे भी आगे हैं......क्यों की पुत्र पिता की आत्मा होती है । .....एक दिन कुटिया में आकर बोल रहे थे महर्षि .........फिर इधर उधर की बातें करते रहे.......मैं सुनती रही ।
फिर बोले - पुत्री वैदेही ! मैं एक बात कहनें आया हूँ ..........
हाँ कहिये महर्षि ! मैने मस्तक झुकाकर कहा ।
मैंने महाकाव्य लिखा है........वह महाकाव्य "रामायण" है..........मैं चाहता हूँ कुश लव उसे गायें ..........मैं रामायण का उनसे गायन कराना चाहता हूँ ......।
मैने महर्षि के मुख से ये सुनते ही प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा ......क्यों ?
क्यों की एक दिन अयोध्या के राजदरवार में राजा राम के सामनें इनको रामायण गाकर सुनाना है ........नही नही पुत्री वैदेही !
इसका नाम ही मात्र रामायण है ........सही में राम के चरित्र को नही मैने सीता के चरित्र को लिखा है .........तुम्हारे चरित्र को पुत्री !
पर क्यों महर्षि ? मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे ।
क्यों की मैं विश्व ब्रह्माण्ड को ये बताना चाहता हूँ कि राम से महान मेरी पुत्री है ......सीता है महान ।
देखो सीता का तप ! देखो इस वैदेही का व्रत ............देखो ! कैसे रह रही है ये जगन्माता जानकी ................
मैने यही सब लिखा है उस महाकाव्य में .......और मैं चाहता हूँ कि इसका गायन सीखें - कुश लव ।
माँ ! माँ ! दौड़ते हुये आगये थे उसी समय कुश और लव ।
जब कुटिया में बैठे देखा महर्षि को .......तो चरण छूनें के लिए झुके ।
नही .....बालकों नही ...........चरण हटा लिए थे महर्षि नें ।
माँ ! देखो ना ! सब ब्रह्मचारी तो छूते हैं इनके चरण .....बस हम दोनों से न चरण छूवाते हैं ........न सेवा का अवसर देते हैं .......शिकायत करनें लगे थे मुझ से ...........।
महर्षि ! आप इस सौभाग्य से क्यों वंचित करते हैं इन बालकों को .....
मैने शिकायत की ।
दौहित्र से अपनें पैर नही छुवाये जाते पुत्री !
महर्षि का वात्सल्य उमड़ पड़ा था ..........और अपनें पास में बिठाकर कुश लव के मस्तक में हाथ फेर रहे थे ।
बताओ ! संगीत सीखोगे ? महर्षि नें कुश लव से ही पूछा ।
हाँ ...........खुश होकर दोनों नें मेरी ओर देखा था ।
तो कल से तुम संगीत की शिक्षा भी लोगे मुझ से ।
माँ ! हम संगीत सीखेँगेँ.....फिर गायेंगें.......कोयल गाती है वैसे ही ।
हाँ वत्स ! कोयल से भी मीठा गाओगे तुम !
महर्षि नें आशीर्वाद दिया और चले गए थे ।
संगीत ..............माँ ! संगीत में आनन्द आएगा ...............
फिर बाहर भाग गए थे खेलनें..........मैं मुस्कुराते हुए देखती रही ।
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
0 Comments