आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 161 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
उस रात्रि कोई नही सोये थे .......महर्षि से लेकर ब्रह्मचारी बालक .....तपश्विनी तो ढोल बजाती रही थीं ......प्रकृति भी जागी थी ।
देवों नें पुष्प बरसाए थे ....गन्धर्वो नें आल्हादित होकर नृत्य किया था ।
हाँ सोये थे तो बस तीन जन ......दो मेरे नवजात शिशु और मैं ।
शत्रुघ्न कुमार मुझ से मिल न सके ...........उन्हें शीघ्र ही मथुरा जाना था ........क्यों की वहाँ की प्रजा का कोई राजा भी तो नही था ।
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"कुश" नाम रखा मेरे बड़े बालक का .....महर्षि वाल्मीकि नें ही ।
और "लव" .....छोटे का नाम लव...। .......मन्त्रों के साथ नामकरण संस्कार भी पूर्ण हुआ .................।
कुश का रँग मेरे श्री राम से मिलता है .................हल्का सांवला रँग है.....बाकी सबकुछ कुश अपनें पिता पर ही पूर्ण गया है
मुस्कुराता भी है तो वैसे ही ...........अपनें पिता श्रीराम की तरह ।
पर लव का रँग गौर है ..........मेरी तरह........आश्रम की तपश्विनी कहती हैं.........आपकी तरह ही है ये लव तो......तपे हुये सुवर्ण की तरह.........मैं इन दोनों बालको को देखती हूँ तो दुःख भी होता है .......क्या इन्हें पिता का सुख मिलेगा ? इनके पिता कब इनके सिर में हाथ रखेंगें .........ये सोचकर मेरा हृदय रो पड़ता ।
धीरे धीरे बड़े होते जा रहे थे मेरे दोनों बालक ........पर जिद्दी हैं ।
मेरी मानते ही नही.......फिर सोचनें लग जाती कि इनके पिता भी तो जिद्दी ही .......अपनी जिद्द पूरी होनी ही चाहिये , पिता की तरह ।
लकड़ी के कितनें खिलौनें बनाकर रख दी हैं इन तापसीओं नें .........पर ये बालक हैं मेरे कि .......धनुष ही चाहिये इन्हें ......तलवार से ही खेलना है ...........कितनी जल्दी चलनें लग गए थे ..............डरते नही हैं .........मुझे तो - ये डरते नही हैं इसी का "डर" लगा रहता है ।
अब मैने तपश्विनीयों से कह दिया है .........आपलोगों को अब मैं कष्ट नही दूंगी.........मैं भी कर सकती हूँ अब अपना कार्य .........मैं भोजन बनाउंगी ।
पर माननें वाली कहाँ थीं ये तापसी नारियाँ........पर मेरे मन में आता ये सब तो अपनी साधना से सिद्धि प्राप्त करनें के लिये यहाँ हैं .........फिर मेरे कारण विघ्न क्यों पड़े इनकी साधना में !
भोजन बनाना मैने शुरू कर दिया था .......लकड़ियाँ बीननें जाती थी ....तो मेरा पल्लू पकड़े मेरे नन्हे मुन्हें मेरे पीछे पीछे चलते रहते.......
वन में बालकों को खेलनें के लिये छोड़ देती........उस समय मैं कन्द मूल साग इत्यादि तोड़ती ........मेरे बालक खेलते ..........मैं अपना काम भी करती पर दृष्टि मेरी बालकों पर ही रहती ।
एक दिन -
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खो गए मेरे बालक ............
मैं घबड़ाई ........मैं इधर उधर दौड़नें लगी थी.........मैं पागल सी हो गयी .......कहाँ गए ? इधर ही तो खेल रहे थे ।
माँ ! माँ! लव की आवाज मैनें सुनी ........मुझे पुकार रहा था .....पर पुकार में चहक थी ..........मैं उसी शब्द ध्वनि की ओर बढ़ती गयी ।
गंगा के किनारे ...बालू के कुछ टीले थे........वहीं मेरे बालक ।
कुश ! लव ! ............मैं चिल्लाती हुयी वहाँ पहुंची............
पर वहाँ का जो दृश्य मैने देखा तो मूर्छित होते होते बची मैं ।
कुश नें अपनें हाथों में दो बड़े बड़े अजगर पकड़ लिए थे........और लव ताली बजा रहा था......वो अजगर छटपटा रहा था........क्यों की कुश नें उसकी गर्दन ही पकड़ ली थी......और कस कर पकड़ी थी.......मैं दौड़ी........मेरे मुँह से इतना ही निकला......कितना दुःख दोगे मुझे - ए निष्ठुर के बच्चों !
तुम्हारे पिता नें दुःख दिया ........कम से कम तुम तो ................
दौड़कर कुश के हाथ से अजगर को छीन - फेंक दिया गंगा में मैने ।
एक एक थप्पड़ दिया दोनों के गालों में मैने....पर रोते भी नही हैं ये ।
रोती तो मैं चली उनदोनो का हाथ पकड़कर ...........कुटिया में लाकर पटक दिया उन दोनों को..........।
और स्वयं बैठ कर रोनें लगी ..........खूब रोई मैं ।
तब कुश और लव मेरे पास आये ..........माँ ! माँ ! अपनें नन्हे नन्हे हाथों से मेरे आँसुओं को पोंछनें लगे थे ।
मैने रोते हुए उनको अपनें हृदय से लगा लिया ........
क्यों दुःख देते हो अपनें पिता की तरह ..........क्यों ?
अब नही ..........माँ ! अब नही........तोतली बोली मैं बोलते रहे .........और कान पकड़नें लगे.........
मैने उन दोनों को दूध पिलाया .......फिर सो गए.......मैं भी लेट गयी... ........कुश लव के सिर में हाथ फेरते हुए ।
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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