आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 95 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
मैं अपनी पर्णकुटी के भीतर थी .........मेरे श्रीराम बाहर बैठे थे ...पास में ही लक्ष्मण अपनें किसी कार्य में व्यस्त थे ।
आर्य !
मैं किसी बात को लेकर बाहर आयी थी .....और अपनें श्रीराम को कुछ कहनें ही जा रही थी कि ..........
अद्भुत था वह "स्वर्णमृग" सुवर्ण का हिरण ............मै उसे देखती रह गयी .........उसका देह सोने का था ........और उसके कनकमय देह में कहीं कहीं पर चाँदी के विन्दु लगे थे ........वो धूप में चमक रहा था ..........उसके सींग सफेद किसी धातु के लग रहे थे ........उसके खुर नीलमणी के बनें थे .........क्या सुन्दर था वो हिरण !
मैं मन्त्रमुग्ध सी देखती रही ......देखती रही ...........उसके मुख का भाग काला था .........उसके होठ लाल थे ........।
वो उछलता हुआ हमारी कुटिया की ओर ही आरहा था ..........हाँ वो कहीं कहीं रुक जाता था और कोमल कोमल पत्तों को खा लेता ....फिर उछलता हुआ हमारी और बढ़ जाता .............।
आर्यपुत्र ! यहाँ आइये ............मैने अपनें श्रीराम का हाथ पकड़ा .....वो बैठे थे ..........वो किसी कार्य में संलग्न थे ..........पर मैने उस कार्य की अवहेलना करते हुए ......उनके हाथों को पकड़ लिया .....और उन्हें उठाया ......उठिये ना आप !
मेरे श्रीराम हँसे ..........क्या बात है वैदेही ! वो उठे ......वो स्वयं ही उठे थे ।
यहाँ आइये ! यहाँ आइये ! ..............मैं उन्हें लेकर इधर उधर देखनें लगी ..........वो हिरण चंचल था .....अत्यंत चंचल ..........वो चौकड़ी मारता हुआ कहीं खो गया था .......मैं उसे न देखकर उदास हो गयी ।
अरे ! क्या दिखा रही हो वैदेही ! बताओ तो ?
मेरे श्रीराम मेरी और बड़े ध्यान से देखते हुए बोले थे ।
आर्य पुत्र ! देखो ! देखो !
उधर से वो हिरण फिर आगया था ।
और इस बार तो मेरे पास ही आगया ............मैं खिलखिलाई .......मेरे पैरों को आकर सुँघनें लगा .........मैने जैसे ही उसे छूना चाहा .....वो फिर उछलता हुआ भाग गया ........मैं ताली बजाकर हँस पड़ी ।
आर्य ! मुझे ये हिरण चाहिये !
मेरे मुँह से ये सुनकर मेरे श्रीराम गम्भीर हो गए .......कुछ देर तक मेरे मुखमण्डल में देखते रहे...........मानों पूछ रहे हों .....क्यों चाहिए ये हिरण वैदेही ?
मैने कहा .......सुवर्ण का मृग आपनें देखा या सुना है ?
आर्य पुत्र ! ये सोनें का मृग है ! ........कितना सुन्दर है ।
मेरे मुख से ये सुनकर श्रीराम नें आश्चर्य से मेरी ओर फिर देखा .....मानों कह रहे हों .........वैदेही ! हम तो तपश्वी बनकर आये हैं इस वनवास में ...........उसके बाद भी तुम्हे इस सुवर्ण में सुन्दरता का दर्शन हो रहा है .......तो जाओ ! मैं तुम्हे ऐसी जगह भेज देता हूँ......जहाँ सोना ही सोना है .............।
आप कुछ तो कहिये .....आर्य ! आप मेरी इतनी छोटी इच्छा का भी आदर नही करेंगें !........मैं इस हिरण को पालूंगी .........अपनें साथ रखूंगी ..........और जब हम अयोध्या लौटेंगें ना तब मैं सबको दिखाउंगी .......ऐसा हिरण जगत में क्या ब्रह्माण्ड में भी नही मिलेगा ।
वैदेही ! देखो ये तो अत्यंत चंचल हिरण है ..............
मेरे श्रीराम नें जब देखा चौकड़ी मारता हुआ वो दूर भाग गया ......
"तो मार कर ले आइये आर्य ! ...मृगचर्म मैं अपनी सासू माँ को दूंगी".......मेरे मुँह से ये निकला ..............
इस बार मेरे श्रीराम नें मेरे मुख मण्डल को ऐसे देखा ......जैसे कह रहे हों ..........ये तुमनें ठीक नही कहा वैदेही !
मेरे श्रीराम के देखनें में उलाहना था ....मानों मेरे श्रीराम कह रहे हों -
देवी ! सृष्टि के सुन्दरतम प्राणीयों के चर्म , पंख आदि अपनें मनोरंजन के लिये पानें की वासना ......बहुत निष्ठुर वासना है ।
पर मैं बोले जा रही थी ..............इसको पकड़ कर लाइये या इसका चर्म लेकर आइये ..........मैनें स्पष्ट कहा ।
मैं उस समय अपनें स्वामी श्रीराम की दृष्टि समझनें की स्थिति में नही थी ...............मेरे मन में वो मृग ही छा गया था ।
ठीक है वैदेही ! बहुत सुस्त स्वर में बोले थे.... ...फिर कुटिया के भीतर गए .......अपना सारंग धनुष उठाया ....
भैया ! आप मत जाइए........भैया ! आपतो समझते हैं ना ! कि सुवर्ण का मृग कैसे हो सकता है.......ये कोई मायावी है .......कोई मायावी राक्षस है । लक्ष्मण चरण पकड़ कर विनती करनें लगे थे ।
आपतो जानते हैं ......चित्रकूट में एक राक्षस हिरण बनकर आया था .......उसनें बहुत उपद्रव किया.......पर आपनें उसे मारा नही था .....भगा दिया था .......भैया ! हो सकता हैं वही मायावी राक्षस फिर आगया हो......आप मत जाइए भैया ! लक्ष्मण के नेत्र सजल हो गए थे ।
लक्ष्मण ! मुझे जानें दो ..................अगर ये मायावी है .....राक्षस है तो इसको मेरे हाथों मरना ही होगा ......क्यों की हजारों ऋषियों का ये लोग भक्षण कर चुके हैं ...........पृथ्वी की शान्ति में यही सबसे बड़े बाधक हैं ...........इसलिये इन्हें मरना ही होगा ।
अरुण नेत्र हो गए थे मेरे श्रीराम के .......और उन्होंनें उस हिरण को देखा था ..........फिर लक्ष्मण की ओर देखते हुए बोले .........बहुत राक्षस हैं इस तरफ ........सावधान रहना अनुज ! वैदेही की सुरक्षा करना ......मैं अभी आता हूँ ..............इतना कहकर धनुष में बाण को लगाये .......मेरे श्रीराम दौड़े उस हिरण के पीछे .........
पर ये क्या .........हिरण तो दूर भाग गया ............उसका पीछा करते हुए मेरे श्रीराजीवनयन श्रीराम भी दूर चले गए थे मुझ से ।
शेष चरित्र कल ........
Harisharan
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