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वैदेही की आत्मकथा - भाग 74

आज  के  विचार 

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 74 )

सीता चरण चोंच हति भागा....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही ! 

ओह ! यही हैं  श्रीराम ?  

कौआ का रूप बनाकर आगया था चित्रकूट में  वो जयन्त .....और आकाश में मंडराने लगा था ।

अरे !  ये तो जितेन्द्रिय नही लग रहे ..............

कितना मुर्ख था वो  काक जयन्त ...........जगत पिता को विलासी समझ बैठा ........मुझे उस पर दया आरही थी  ।

कौआ का रूप बनाकर   हमारे ऊपर ही आगया था ...........

मेरी गोद में  मेरे श्रीराम  लेटे हुए थे ..........।

दिन में भी   विलासिता  !  

ये पत्नी हैं .............जयन्त  ऊपर मंडराते हुए यही सोच रहा था ।

पर पत्नी के साथ भी  दिन में विलासिता ?  

ये तो जितेन्द्रिय के लक्षण नही हैं ...........फिर मेघनाद को कैसे मार सकते हैं ये  !     मुझे हँसी आरही थी ....और उस पर दया  ।

वो उड़ रहा  था.............

ओह !     मैं शान्त बैठी थी...........पूर्ण शान्त ............अज्ञानी पर  क्रोध क्यों करूँ  ........पर   वो तो दुष्टता पर उतर आया  था ।

ऊपर उड़ता हुआ आया ..............और  अपनें   चोंच  से मेरे  दाहिनी वक्ष में  प्रहार करता    हुआ उड़ गया .........मैं शान्त बैठी रही .......बालक पर माँ क्रोध क्यों करे  ?

मेरे लिये वो बालक ही था .....और बालक अज्ञानी ही तो होता है ।

वो उड़ता हुआ  मन्दाकिनी के किनारे  एक वृक्ष की शाखा में जाकर बैठ गया था .........और हमें  देख रहा था  ।

मैं शान्त भाव से बैठी रही .............क्यों की मेरे श्रीराम  नेत्र बन्द करके लेटे थे ......उनके विश्राम में   मैं कोई बाधा नही डालना  चाहती थी  ।

पीड़ा   हो रही थी ......रक्त बहनें लगा था  मेरे वक्ष से .....पर मुझ भूमिजा के लिये  ये  पीड़ा सहना  बड़ी बात तो नही थी ।

मुझे पता नही चला ........मेरे वक्ष का रक्त बहते हुए  मेरे श्रीराम    के कपोल को छू गया था  ........।

क्या हुआ मैथिली !    मेरे  श्रीराम उठे.......चौंक गए .......मेरे वक्ष से  रक्त बह रहा था......रोष में लाल नेत्र हो गए कुछ ही क्षण में मेरे श्रीराम के  ।

इधर उधर देखा ..........सामनें दिखाई दिया  वो जयन्त काक के रूप में ......रक्त लगा हुआ था उसके मुँह में ....।

इधर उधर देखा ......धनुष आज  साथ में नही था ..............सामनें एक सींक पड़ी हुयी थी .........तुरन्त  मेरे श्रीराम नें   उस सींक को उठाया ........और कुछ मन्त्र पढ़ते  हुये ............उस सींक को ही   फेंक दिया........वो कौआ   घबड़ाया .........क्यों की मेरे श्रीराम नें "ब्रह्म शर" ही छोड़ दिया था......ब्रह्मास्त्र   छोड़ दिया था   मन्त्र पढ़कर ।

वो भागा ......................बड़ी तेजी से भागा ....................

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आपनें उस पर क्रोध क्यों किया  ?

मैं मन्दाकिनी में जाकर  अपनें देह में लगे रक्त को धो रही थी ।

तब मैने  अपनें श्रीराम नें कहा .......बड़े  सहज में कहा  ।

तुम्हारे वक्ष को कोई कैसे छु सकता है ! 

   मेरे श्रीराम का क्रोध शान्त कहाँ हुआ था .....

पर आपके अलावा कोई और भी   छू सकता है .......मैने  सलज्ज होकर कहा  ।

कौन ?   कौन छू सकता है............क्रोध में बोले थे  मेरे श्रीराम ।

मुझे अच्छा लग रहा था ..............उनका मेरे प्रति प्रेम ।

बालक ..............पुत्र   छू सकता है ना  ?

मैने हँसते हुए कहा .......और   उनके    ऊपर  अपनें बाहों का  हार  डाल दिया था ..........।

पर उसकी हिम्मत कैसे हुयी  !   उस इन्द्र के पुत्र की ..............

मेरे श्रीराम को बहुत कष्ट हुआ था ...........उस जयन्त के कारण ।

पर मेरा भी ध्यान उस जयन्त पर ही था ................कहाँ कहाँ भटक रहा होगा वो ...........कौन बचा पायेगा उसे  .........श्रीराम ने ब्रह्मास्त्र जो छोड़ा है   ।

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पिता जी !  पिता जी !  बचाइये मुझे ...........

देवराज की सभा में  पहुँच गया था  वो जयन्त 

...........तू काक के रूप में  ?   

चौंक गए थे ...............इन्द्र अपनें पुत्र को इस रूप में देखकर ...........

पीछे ब्रह्मास्त्र था ............देखा इन्द्र नें  ......उसे समझते हुए देर न लगी ....कि उसके पुत्र नें क्या  अपराध कर दिया है  ।

तू भगवान श्रीराम का अपराध कर बैठा ?    तू पागल है  ?

जा तू यहाँ से ...............नही तो   ये स्वर्ग जल जाएगा .....जा  !

पिता जी !  आप तो मुझे बचा   लीजिये.......कातर होकर बोला था वो ।

जयन्त !  तुम जाओ यहाँ से......हाँ ब्रह्मास्त्र को सम्भालनें वाले  ब्रह्मा हैं ......तुम वहाँ जाओ ....शायद कुछ उपाय निकल जाए  ।

भागा जयन्त ..................

ब्रह्म लोक में   पहुँचा  ........

हे विधाता !   मुझे बचाइये ..................

ब्रह्मा जी नें  देखा था जयन्त की ओर ..................उनको क्या फ़र्क पड़ता  ......दुनिया में   हर क्षण हजारों मरते रहते हैं .....और  जन्मते रहते हैं .......ब्रह्मा इतना ही बोले ............जाओ यहाँ से ।

जयन्त वहाँ से भी भागा ................गया कैलाश ।

ये तो अच्छा था  कि उस समय   समाधि में नही बैठे थे  महादेव ।

क्या बात  है  इन्द्र पुत्र !      

महादेव सहजता में बोले ।

श्रीराम का ये बाण  मुझे मार देगा .....जयन्त बोला  ।

आहा ! ये तो तेरा परम सौभाग्य होगा कि  तू श्रीराम के बाणों से शरीर छोड़ेगा .............तू मर जा  श्रीराम के बाणों से ........तेरी मुक्ति हो जायेगी पगले !           

महादेव के मुखारविन्द से ये सब सुनना   जयन्त को अच्छा तो नही लगा .....क्यों की उसको  प्रवचन नही सुनना था  ।

वो वहाँ से भी भागा  ।

नारायण नारायण नारायण !  

लो  सामनें आगये  देवर्षि नारद जी ............

पागल है तू जयन्त !     श्रीराम अगर तुझे  मारना चाहते  तो   तू बच सकता था अब तक..........देवर्षि नें समझाया  ।

मै क्या करूँ फिर ? 

तू जा !  जा जयन्त  !    तू उन्हीं दयानिधि श्री राघवेन्द्र सरकार के चरण पकड़ ...जा  ।

नही .....वो मुझे क्षमा नही करेंगें ...........जयन्त  समझ गया था कि उसका अपराध कितना बड़ा है  ।

पागल !   वो दयानिधि हैं ..........वो परम कृपालु हैं ............तू जा ! 

देवर्षि नें  जयन्त को भेज दिया ..............मेरे श्रीराम के पास ।

*******************************************************

आपको क्रोध नही करना चाहिये था 

..........मैने फिर छेड़ा  अपनें श्रीराम को  ।

क्यों नही करना  चाहिये !      मेरी और  देखकर कहा  श्रीराम नें ।

बालक अपराध करते ही हैं  नाथ  ! 

तभी आगया   वो काक जयन्त........और  सीधे चरणों में गिरा मेरे श्रीराम के  ।

बालक अपराध नही करेंगे  तो  कौन करेगा ?

मैने फिर  छेड़ा ............मुझे आज आनन्द आरहा था अपनें श्रीराम को छेड़नें में ..........।

प्रभो  !  मुझे क्षमा कर दो...........वो जयन्त  चिल्ला रहा था ।

आप पिता हैं ..........अब इससे अपराध हो ही गया ......कर दीजिये ना क्षमा  .........मैने मन्द मुस्कुराते हुये  कहा  ।

क्यों तुम कह रही हो........?      क्या तुमनें क्षमा कर दिया मैथिली ?

मैने तो  अपराध माना ही नही हैं नाथ !     ये तो बालक है .....अबोध बालक ..........क्या बालक माँ के साथ  कभी कुछ  चंचलता कर दे  तो  माँ उसे...........हे प्राण !      मै माँ हूँ .......इसलिये मैं तो  अपराध मानती ही नही ........।

अरे !   मेरे सामनें हाथ जोड़नें लगे थे मेरे श्रीराम .........महान हो आप मैथिली !..........महान हो ........मुझ से भी ज्यादा  ।

ऐसा मत कहिये .........मैने  उनके  हाथों को पकड़ कर चूम लिया था ।

ब्रह्मास्त्र की मर्यादा है ...................उसे  ऐसे नही खींचा जा सकता ।

काक जयन्त के    नेत्र में   बाण मार  दिया था ..............जिसके कारण उसका एक नेत्र चला गया ............

और जयन्त अब अपनें स्वरूप में ..............

सम्पूर्ण  काक  समाज का  ही एक नेत्र कर दिया था मेरे सत्य संकल्प श्रीराम नें.........।

वो  जयन्त बहुत देर तक  हाथ जोड़े खडा रहा...और प्रार्थना करता रहा ।

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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