आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 68 )
दोष देहि जननी जड़ तेहिं...
( रामचरितमानस )
**कल से आगे का चरित्र -
मैं वैदेही !
माँ ! माँ !
मैने कैकेई माँ के शिविर में जाकर आवाज लगाई थी ।
कौन ?
कुछ देर बाद भीतर से आवाज आयी ।
माँ कैकेई नें चित्रकूट में अपना शिविर एकान्त में लगवाया था...कह कर ।
मैं आपकी पुत्रवधु सीता माँ ! मैनें जबाब दिया ।
आजा ! भीतर आजा ।
गम्भीर आवाज में बोलीं ।
मैं दवे पाँव भीतर गयी .........एक दीया टिमटिमा रहा था ।
मैने उनका मुख मण्डल देखा ..............कैसी रूपसी थीं ये ........
क्या रूप , क्या लावण्य था........इनको लेकर ही एक समय वानरराज बाली, महाराज चक्रवर्ती से भीड़ गया था ......इनका रूप ही ऐसा था ।
पर आज ..............!
हड्डियों का ढाँचा बन गयी थीं माँ कैकेई ..............
पीला मुखमण्डल हो गया था .......आवाज भी बड़ी धीमी थी .....।
मैने चरणों में प्रणाम किया उनके .................
तुरन्त उन्होनें अपनें चरण हटा लिए ............मत छूओ मुझ पापिनी के पैर ! गन्दे हो जायेंगे सीता ! तुम्हारे पवित्र हाथ ।
ऐसे न बोलो माँ ! मै वहीँ धरती पर ही बैठ गयी ...........
रहनें दे ............मैं तो वो नारी हूँ ..........मै तो वो अभागन नारी हूँ .....जो न अपनें पति की हो सकी .......न अपनें पुत्र की माँ ही बन सकी ।
नही नही ....आँसू नही थे उनके आँखों में ...........शायद सारे आँसू बह चुके थे .........और मैने सुना था जब से भरत नें माँ कहना छोड़ा है तब से अन्न की तो छोडो इन कैकेई नें जल भी नही पीया था ।
शून्य में तांक रही हैं बस.....या जलते हुए उस दीये को ही देख रही हैं ।
कुछ देर बाद मैने फिर उनके चरणों को पकड़ कर कुछ सेवा .........
कहा ना ! रहनें दे.......क्या करेगी इस पापिन कैकेई के पैर पकड़ कर ।
महाराज जनक की पुत्री है तू.........राम की पत्नी है तू .........फिर क्यों इस अभागन के पैर छूना चाहती है ।
माँ ! ऐसे मत बोलो ना ।
फिर मेरी और बड़े ध्यान से देखा था उन्होंने .............
तेरी बहन है ना माण्डवी ?
मैने सिर झुकाकर कहा .......हाँ माँ ।
आपकी पुत्रवधू माण्डवी !
नही नही .....मेरी क्या पुत्रवधू ?
क्यों ? ऐसा क्यों कह रही हैं आप ?
सीता ! जिसको पति ने त्याग दिया हो ......जिसे उसके पुत्र नें त्याग दिया हो .......उसका अब रहा कौन ?
मैं तो वो अभागन हूँ ........जिसे सबनें त्यागा है .............नही नही मै किसी को दोष नही दे रही ...........मै त्याग करनें योग्य ही हूँ ।
त्यागा मुझे सबनें .........पर .............सीता ! मेरे राम नें मुझे नही त्यागा ................वो अभी भी मुझे माँ कहता है ............किस मिट्टी का बना है वो पता नही ।
फिर कुछ देर उन्माद सा छा गया था उनमें ।
मुझे कहा भरत नें तू मेरी माँ नही .........जन्मते ही मुझे क्यों नही मार दिया ..........वर मांगते हुये तेरी जीभ क्यों नही गिरी ..........मै पुत्र नही ....खबरदार जो आज के बाद इस भरत को पुत्र कहा तो ।
सीता ! इससे पहले मेरे पति नें मुझे त्यागा ............कहा तू मेरी पत्नी नही है .........।
मैं अपनें आँसू पोंछे जा रही थी ...........पर माँ कैकेई के आँखों में आँसू नही .........शून्यता थी ...............उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक या दो बार ही मेरी और देखकर बात की होगी .............बाकी समय तो दीया के लौ में ..................।
मैं गयी थी अपनी पुत्रवधू माण्डवी के पास ...................पर उसनें भी मेरे लिए अपनें महल के द्वार नही खोले ..........मैं द्वार खटखटाती रही ...........मै कहती रही .......माण्डवी ! द्वार खोल ...........मैं कैकेई ।
बड़ी मुश्किल से द्वार खोला था उसनें.......पर द्वार खोलते ही बोली .......माँ ! आप यहाँ मत आओ .......नही तो मेरे जीवन प्राण श्रीभरत को लगेगा की मुझे ही महारानी बननें की इच्छा थी इसलिये ये सब मैने करवाया है ......माँ ! आप कृपा करो ......आज के बाद यहाँ मत आना ।
ठीक ही तो किया माण्डवी नें ....................है ना !
फिर एकाएक हँसनें लगीं कैकेई माँ ...........ठीक किया माण्डवी नें ............मै इसी लायक हूँ ............राजमाता बननें चली थी मैं ......... अपनें आप को राजमाता कहलवानें की बड़ी इच्छा थी मेरी .......और इसी इच्छा नें सब कुछ बर्बाद कर दिया ।
सब अच्छे हैं ..............मेरी जीजी कौशल्या ! वो तो राम की माँ हैं ...........उनके तो मैं चरण की धूल भी नही हूँ ..........मेरी बहन सुमित्रा ! उसके जैसा बुद्धिमान कौन होगा ........मेरी पुत्रवधू माण्डवी को समझाती रहती है वो ........कि कैकेई अच्छी है .................समय काल ही किसी से कुछ भी करवा देता है .................हाँ .........।
और मेरा पुत्र भरत ! आहा !
सीता ! भले ही कैकेई कुछ भी हो ......कितनी भी गिरी हुयी हो ..........पर भरत जैसा पुत्र इस कैकेई नें ही दिया है .......इस बात का गर्व है मुझे ............देखो ! कैसे आया है इस जंगल में ......अपनें बड़े भाई को सिंहासन देनें के लिये ..........है ना महान ?
अच्छा सीता ! तू सोचती होगी ...............इतना महान पुत्र इस निम्नस्तरा कैकेई के कोख से कैसे हो गया ........।
अरे ! कमल कीचड़ में ही खिलता है ! .......मेरा भरत कमल है पर ये कैकेई कीचड़ है ......कीचड़ ।
हँसती हैं कैकेई माँ .......उनकी हँसी मेरे हृदय को चीर रही थी ।
कुछ देर बाद ........सीता ! जा तू अब ..........रात हो गयी है ना !
मैं उठी .........माता ! आप भी सो जाइए अब ................।
कैकेई सोयेगी ? फिर हँसीं वो माता ..........मुझे कहाँ नींद है ?
पति की हत्यारन कभी सो सकती है ? अपनें परिवार को संकट में डालनें वाली कैकेई .......अपनें समाज को संकट में डालनें वाली कैकेई ....अपनें राष्ट्र को संकट में .........................
तू जा ! जा तू ............राम को आशीर्वाद देना ............तू भी खुश रह ......जा अब ............अब मत आना मेरे पास .........इस अभागन के पास अब मत आना ....................
मै उनके चरणों में प्रणाम करते हुए रो गयी थी ..................
जा अब ! जा .....राम तेरी वाट देख रहा होगा .......जा !
मुझे भेज दिया .................।
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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