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वैदेही की आत्मकथा - भाग 64

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 64 )

मन बुद्धि चित अह मिति बिसराई ....
( रामचरितमानस )

***कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही !

भरत !  बताओ ना  पिता जी कैसे हैं ? 

माता कैकेई कैसी हैं ? 

तुम इस समय वन में क्यों हो ? 

तुमनें बल्कल भी धारण किये हैं  , क्यों भरत  ?

कितनें प्रश्न थे मेरे श्रीराम के , भरत के प्रति ।

अपनें पास ही बिठाया था  भरत भैया को  श्रीराम नें ..........

भरत भैया को ऐसे देखते रहे  ..........जैसे युगों के बाद मिले हों ।

भरत भैया को छु रहे थे..........तू बहुत  दुर्बल लग रहा है .........ये कहते हुए  कमल नयन से अश्रु बह चले थे  ।

कुछ बोला नही जा रहा था  श्रीराम से .........स्वर भी स्पष्ट नही थे........दूर से  मैं तो तुझे पहचान ही नही पाया रे ।

भरत भैया के  बल्कल को छु रहे थे .......तू तो  राजा है  ......फिर ये सब क्यों  ?       बिलख उठे थे  ।

अच्छा !  पिता जी को तू किसके भरोसे छोड़ के आया है ?

वृद्ध हैं पिता जी .....उनकी  सेवा करना ही हमारा धर्म है भरत ! 

निषाद राज सिर झुकाकर  रोये जा रहे थे  ।

अच्छा बता  अयोध्या की प्रजा तुझसे प्रसन्न तो है ना  ? 

भरत ! बता   धर्म के आधार पर ही तू राज्य को चला रहा है ना ? 

फिर   अपनें आँसुओं को पोंछ लेते हैं  श्रीराम .............

मैं कैसी बातें कर रहा हूँ ..........मेरा भरत  भला  धर्म के मार्ग को छोड़ सकता है  ? 

अयोध्या की प्रजा तो धन्य मान रही होगी अपनें को  .।

ये सब बातें  सुनकर  भरत भैया  हिलकियों से  रो पड़े थे ........

मै तो  धर्म से च्युत हूँ  नाथ !   मैं तो अधम से भी अधम हूँ ........

आप स्वयं ही बताइये  क्या मै  राज्य पालन करनें  योग्य हूँ ? 

चरण पकड़ लिए थे भरत भैया नें  श्रीराम के ...........

रघुकुल में  सदैव  धर्मात्माओं का   ही राज्य रहा है .............उस कुल में  इस भरत को राज्य देना   ये  अन्याय है प्रजा के साथ ।

मै तो  मामा के घर था ...........मुझे  कुछ पता नही  कि  अयोध्या में क्या अनर्थ हो चुका है ...........मुझे तो  पिता जी   का शरीर मिला  वो भी अंत्येष्टि करनें के लिये  ।...........भरत के मुँह से इतना सुनते ही   मेरे प्रभु   रो पड़े ...........व्याकुल हो उठे ...........।

क्या  पिता जी का शरीर नही रहा ? 

मै स्वयं  गंगा यमुना बहानें लगी थी ..................मेरे साथ लक्ष्मण  भी रो रहे थे .......................ये क्या हो गया  !

हे नाथ !   अब आप चलिये अयोध्या    हमारे कुल में  परम्परा ही है की बड़े पुत्र को ही  राज्यगद्दी मिलती है .......आपका  अपना  राज्य है   उसे स्वीकार करिये  और हम  सबको  सुख प्रदान कीजिये  ।

मै भरत !       फिर हँसते हैं भरत भैया !     मुझे तो पिता जी नें  अपनें अंतिम दर्शन का अधिकारी भी नही समझा ...................ऐसे को राज्य न दीजिये नाथ  !  

पिता जी !   पिता जी !   

मेरे श्रीराम   व्याकुल हो  पुकार ही रहे थे ............बारम्बार  ।

इस  दुःख के अपार सागर से    सब को बाहर निकालना आवश्यक था .......इसलिये आगे  आये  निषाद राज  ।

नाथ !      गुरु  वशिष्ठ जी भी आये हैं .........माताएं आयी हैं ।

निषाद राज नें   हाथ जोड़कर निवेदन किया था  ।

ओह !  माताएं भी आयी हैं  ? 

श्रीराम  एकाएक उठकर खड़े हो गए  ।

हाँ  भगवन् !  माताएं भी आयी हैं  ...........।

शत्रुघ्न कुमार !  तुम  यहीं अपनी भाभी के पास रुको .......हम  आते हैं माताओं और गुरु महाराज को लेकर ...............इतना कहकर  लक्ष्मण भरत भैया और निषाद राज .............अन्य  सब  चल पड़े थे  ।

*****************************************************

भाभी माँ !   ये क्या हो गया  ?

शत्रुघ्न कुमार  रो गए ..............और ऐसे रोये मेरे सामनें   जैसे  अभी तक  वो  सब   दबा हुआ था अंदर ही अंदर......।

भाभी माँ !   अयोध्या  आज अनाथ की तरह हो गयी है ............

ये बात सुनाते हुए  शत्रुघ्न कुमार  बच्चे की तरह  क्रन्दन कर रहे थे ।

मैनें  सिर में हाथ रखा  ...........कुमार !    सब लिखा होता है भाई .......सम्भालो अपनें आपको ।

मैने अपनें आँसू पोंछे .........फिर  कुछ देर बाद मैने   कुमार से पूछा ।

श्रुतकीर्ति कैसी है  ?      ये पूछते हुए   मै भी रो पड़ी थी  ।

वो  हम सब में छोटी है .................वो इतनी राजनीति कूटनीति  कुछ नही समझती ............कुमार ! उसे सम्भालना ...........वो बच्ची है ।

शत्रुघ्न कुछ नही बोले .........बस  अश्रु ही बहाते रहे  ।

उर्मिला  कैसी है ?     मैने  फिर पूछा  ।

माण्डवी ?      

पता है   कुमार !   मुझे सबसे ज्यादा चिन्ता रहती है मांडवी की  .........

क्या होगा उसका ..............भरत भैया   राज्य को स्वीकार करेंगें नही .......प्राण नाथ  श्रीराम  वापस जायेंगें नही ..............

क्या होगा माण्डवी का  ?    

आपको प्रणाम कहा है   सबनें .....................

आँसुओं को पोंछते हुये कुमार नें कहा  ।

माण्डवी भाभी   आपके बारे में  बोलते हुये  मूर्छित ही हो गयी थीं......

जीजी  कभी  नंगे पांव नही चली हैं ...............उनके कोमल पाँव में  काँटे गढ़ते होंगे ..................।

उर्मिला भाभी तो सूखी आँखों से शून्य में तांकते हुए बोली थीं .........

जीजी को कहना .........हम हर पल उन्हें याद करती हैं.........हमारी याद दिला देना   !

और  श्रुतकीर्ति  तो  बस इतना ही बोली .......14 वर्ष  तो बहुत होते हैं.......कैसे बीतेगा ये समय .......जीजी !   जल्दी आओ ......हम सब  बहनें आपको बहुत याद करती हैं .............।

कुमार शत्रुघ्न ये सब कहते हुये रो रहे थे  ।

भाभी माँ !   आपको क्या लगता है ......प्रभु वापस जायेंगें ना  ?

कुमार के इस प्रश्न का मै क्या उत्तर देती .....................मै चुप रही ।

भाभी माँ !  चुप मत रहो ना ......बोलो ना ............अगर आर्य श्रीराम  अयोध्या नही गए ना ...........तो भरत भैया  जीवित नही रहेंगें  ।

ना !  ऐसे मत बोलो   कुमार !      मैने  शत्रुघ्न को चुप कराया ।

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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