वैदेही की आत्मकथा - भाग 26

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 26 )

कुँवर कुँवरि कल भाँवरि देहीं ...
( रामचरितमानस )

*** कल से आगे का चरित्र -

मैं वैदेही  ! 

अब हमारी  भाँवरि होगी .......श्री रघुनन्दन  के  साथ  ।

आहा !  प्रेम सच में एक रहस्य  है .........अद्भुत रहस्यवाद है ये प्रेम ।

एक एक चित्र हृदय ही खींच रहा है ...........मुझे उस विवाह मण्डप पर बैठे  यही अनुभव हो रहा था ........कैसा बृहद शास्त्र है  ये  प्रेम .......एक जन्म क्या  अनन्त जन्मों तक पढ़ते रहो .....फिर भी  खतम नही होगा ।

कैसी विशाल  वारिधि .........जो  एक बार डूबा  सो डूबा .........।

यह सत्य लोक है ............इस  प्रेम से बड़ा  भला कोई सत्य है इस दुनिया में ............?    

मेरे  श्रीरघुनन्दन को  सत्यस्वरूप कहा जाता है ...............पर  क्या ये सत्य नही है .......कि मेरी जनकपुरी नें ही  इन्हें प्रेम का दर्शन कराया !

क्या प्रेम के बिना ये "सत्य स्वरूप" भी  पूर्ण हो पाते ...........?

श्रीरघुनन्दन   सत्य हैं  इसमें  किसी को कोई आपत्ति भी नही है ......पर उस सत्य को मिठास देनें का काम जनकपुर के प्रेम नें ही तो किया है ।

यह प्रेम बबंडर भी है .!

..........ये कहते हुए  मै नीचे सिर की हुयी  मुस्कुरा रही थी  ।

सब कुछ उड़ा ले जाता है ...........इस बबंडर के फेर में जो पड़ा ........उसका सब कुछ उड़ गया .....।

नाते, रिश्ते .....रिश्तेदार , नातेदार ........अजी ! माता पिता  भाई मित्र  सब ......सब कुछ उड़ा लेगा .........ये प्रेम का बबंडर  ।

छोड़ो मै भी  कहाँ इस "विवाह मण्डप" में  प्रेम की  परिभाषा करनें बैठ गयी ..............।

सिया जू ! उठिये  भाँवरि के लिए  !

.......मेरी सखियों नें  मुझे  दो तीन बार कहा था ......पर   मैने नही सुना ...........अजी ! कान थोड़े ही  सुनते हैं .......सुनती तो  "मै",   पर उस समय  "मै"  थी कहाँ .....?

मै तो  अपनें श्रीरघुनन्दन में ही समा चुकी थी ..........मै उन्हीं को सोच रही थी ..........मेरे मन में  वही थे ........अरे !  मेरा मन ही  श्रीरघुनन्दन का आकार ले चुका था .....।

सिया जू ! उठिये  ........

पर  "मै" थी कहाँ  ?  ........ऋषि शतानन्द  जी नें मेरी सखियों को इशारे में कहा..............आप लोग  उठाइये  ।

मुझे  सखियों नें उठाया........तब मुझे भान हुआ .........देह भान ।

प्रेम   देह भान  भी छुड़ा देता  है ........ये सोचते हुए  मै भीतर ही भीतर फिर मुस्कुरानें  लगी  थी  ।

मुझे कुछ पता नही था  क्या करना है ........मेरे तो मन मष्तिष्क चित्त और मेरे अहं में भी  श्रीरघुनंदन बस चुके थे ..........

अब  भाँवर पड़ेगी .............सिया जू  !         

मेरी सखियों नें   मुझे कहा ................मै उनकी बातें सुन रही थी  ।

मेरे सामनें खड़े थे  मेरे  प्राण धन .................

मैने उनकी और  देखा ...............नही नही  जानबूझ के नही  गलती से दीख गए ......उफ़  ।

साँवरा देह उनका ........नील मणि ..........मै उनको देखती रही .....

सखियों नें  फिर कहा ..........फेरे लेनें हैं ............सिया जू !  फेरे लो  ।

मुझे क्या पता था .....मै तो  बाबरी हो गई थी  उन  साँवरे सजन को देखकर ही ............अब हँसी आती है ............

मैने  उन्हीं  साँवरे  सलोनें   पिया की ही  भाँवरि देनी शुरू कर दी   ।

उन्हीं को मध्य करके  मै घूमे जा रही थी ... .........

मेरी सखियाँ हँसनें लगीं ..............और बोली  आप क्या कर रही हैं .....देखिये  चारों ओर  लोग हँस रहे हैं .............

तब  मुझे  भान हुआ  ..............मै बहुत लजा गयी थी  ।

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भाँवरि पड़नें लगी ........................सखियों नें गीत गाना शुरू किया .....विप्रों नें  वेद मन्त्र उच्चारण  करनें शुरू कर दिए थे ..........

सब  लोग  पुष्प बरसानें लगे ...........देवों नें  दुन्दुभि बजानी शुरू कर दी थी ...........शहनाई की ध्वनि  विवाह का रँग घोल रही थी  ।

मेरे साथ की सखियाँ  आपमें बतिया रही है ........

सखी !   मेरे  मन में एक चोरी की बात आरही है ............

इस पीताम्बरी नें तो हृदय को उलझा दिया है ........क्या करूँ ? 

हट् !   ज्यादा मत बोल  ये तेरे जीजा जी लगते हैं.....दूसरी सखी बोली ।

तो मै  साली के नाते ही तो बोल रही हूँ ........सखी !  धन्य हैं  हम....... विवाह तो इनका  हमारी बहन सिया जू  से हुआ  है ......पर  रिश्ता तो इनका हमारे साथ भी जुड़ गया है ना  !    

पर कुछ भी कहो ............ये जो  पीताम्बरी  पहनने वाले हैं ना .....ये हमारे हृदय में बस गए  ........अब तो ऐसा लगता है  बस इन दोनों को ही निहारते रहें.......अपनी बहना  सिया जू के साथ  इन जीजा  को देखते रहें .......अरी !  जीवन सफल   हो गया हम लोगो का  ।

मेरी भाँवरि पड़ रही थी ...........चारों ओर सगुन ही सगुन दिखाई दे रहे थे ......पूरी प्रकृति आनन्दित थी .............

मैने वहाँ  देखा  भगवान शंकर को  और उनकी भवानी पार्वती  को.... ....हमारी  भाँवरि को पड़ते देख   भगवान शंकर   भाव समाधि में स्थित हो रहे थे ..........और उसी भाव समाधि में   उनके तीसरे नेत्र खुलनें जा रहे थे .......मैने देखा ........भगवती पार्वती नें  शंकर महादेव से प्रार्थना की थी ......आप कृपा करके   तीसरा नेत्र न खोलो .......नही तो   इस विवाह प्रसंग में अनर्थ हो जाएगा .............

तब  भगवान शंकर नें कहा था ......देवी !  "काम"  को  जब  ये तीसरा नेत्र देखता है .......तब  अनर्थ होता है....."राम" को देखनें पर  अनर्थ नही होता ........बल्कि  जीवन का अर्थ प्रकट होता है ........।

मतलब !    भगवती पार्वती नें पूछा था  ।

  काम को देखा जब,   तब तीसरे नेत्र ने आग बरसाना शुरू किया था ....पर यहाँ तो राम हैं ...........और मात्र राम नही है ....उनके साथ उनकी  अनादि  जीवनी , अनादि जीवन संगिनी ........ये  अनादि दम्पति हैं .....इनको देखकर तो ये तीसरे नेत्र  जल बरसाएंगे .........भाव के अश्रु गिरेंगे  .....आहा। !    

भगवान शंकर  भाव समाधि में डूब गए थे.......उनका तीसरा नेत्र भी खुल गया था ......पर  उस तीसरे नेत्र से  अग्नि नही .....प्रेमाश्रु बह रहे थे ।

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भाँवरि पड़नें लगी .............चारों ओर से जयजयकार होनें लगे  ।

"हरे हरे"  की ध्वनि  चहुँ और से आरही थी ............।

हये !    सखी !     मेरा मन तो  इन साँवरे और गौर वर्ण वाले दोनों जोड़ियों पर अटक गया है ......उफ़  क्या करूँ  ।

मेरी सखियाँ  और अन्य नारियाँ  भी कुछ न कुछ बोल रही हैं ........और गीत गाती जा रही हैं ..........।

हमारे  चौरासी लाख योनि के  भँवर से  छुटकारा   दिलानें वाली है  ये हमारे सिया राम जू की  भाँवर की  विधि......इसे साधारण मत समझो ।

अब देखो तो प्रेम की महिमा .............................

ये थोड़ी ज्ञानी सखी है मेरी ...........पर  ये भी  अब प्रेम की ही भाषा बोलनें लगी थी ................

ये  राम हैं ..............जगत को नचाते हैं ...........ये विश्व् ब्रह्माण्ड इनके पीछे पीछे है ............पर देखो तो  अब   ये पूर्ण ब्रह्म  हमारी सिया जू के पीछे चल रहे हैं ...............दुनिया को नचानें वाले ये .......पर  हमारी  जनकपुर नगरी  इन  ब्रह्म को भी नचानें का दम  रखती है  ।

मेरी सखियाँ  इस तरह  आनन्द ले रही हैं .......बतिया बतिया के  ।

मेरे प्यारे  रघुनन्दन  का सुखद स्पर्श जब मुझे मिलता....भाँवरि में ......आगे पीछे होते समय .......तो  उफ़ !   

क्या   प्रेम  विद्युत है  ?  

अजी !  विद्युत से भी ज्यादा  तरंगें  हैं  इस प्रेम की ..............

हाँ  सच कह रही हूँ  मै वैदेही .............मेरे श्री रघुनन्दन  जब जब मुझे छूते थे ..........मतलब  छुव जाती थी  मै ............भाँवरि के समय  आगे पीछे होते समय ......अब  मै इससे ज्यादा समझा नही पाऊँगी  ।

उफ़ !   वो  छुवन ! .........वो  भाँवरि .................

प्रेम  सच में  रहस्यपूर्ण है ..........इसपर कोई लिख नही सकता.........

और हाँ  एक और चमत्कार सुनाऊँ ..............प्रेम में पग पग में चमत्कार होते हैं .........आपको पता है  ? 

जब हम  भाँवरि ले रहे  थे ..........तब  चारों ओर  हम ही हम थे .........क्यों की मणि के  खम्भे थे ......उन मणियों के खम्भो में  हजारों रूप  से  हम ही दीख रहे  थे  ...................

ये था तो प्रतिविंव ...........खम्भो में  पड़ता हुआ   विम्व ..........पर  प्रेम का चमत्कार ये था इसमें   कि  ये सब  सच लग रहे थे ............विम्व भी सच ही लग रहा था ............ये बात कोई समझेगा ?    

छोडो  प्रेम समझनें का विषय ही कहाँ है .............

 हाँ एक सखी का गीत गुनगुनानें में आरहा है .............

""माथे मौर केसरिया जामा, ज़ुल्फ़ ज़ंजीर में फांसे  जिया...
आज दूल्हा बनें हैं  सिया के पिया !

धन्य भाग मिथिलेश ललि के, जिन जिन भुज भरी भेंट लिया...
आज दूल्हा बनें हैं सिया के पिया !

दम्पति अली इन युगल रूप में, तन मन धन सब वारि दिया ....
आज दूल्हा बनें हैं, सिया के पिया ! ""

शेष चरित्र कल ...........

Harisharan

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