वैदेही की आत्मकथा - भाग 25

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग  25 )

भव फन्द फेरनहार पुनि पुनि , स्नेह गाँठ जुरावहीं ...
( रामचरितमानस )

***********कल से आगे का चरित्र -

मै वैदेही  !

मेरी चुनरी के एक छोर से  श्रीरघुनंदन के पीले पटुका के कोर को बाँधा जा रहा हैं ...........नही  ये  वो विवाह की विधि है .........इसका सन्देश है  कि  दोनों  दूल्हा दुल्हिन  प्रेम के बन्धन में बन्धे रहें .........अथवा ये भी कह सकते हैं  कि   इस पुरानें प्रेम बन्धन को  लोक नियम की नवीन रीत से जोड़ा जा रहा था ..........मेरे जनकपुर धाम में  ।

बन्धन  अच्छा होता है ?    

नही .....बन्धन  कैसे अच्छा हो सकता है .....बन्धन तो कुरूप ही होता है .............पर   एक बन्धन है .........जो  सुन्दर है  ...............और इस बन्धन के आगे  हजारों मुक्ति भी तुच्छ सी लगनें लगती हैं  ।

अब  देखो ना !   एक भौंरा  जो बड़ी बड़ी लकड़ियों में भी  छेद कर देता है ...........वही जब कमल  में बन्द हो जाता है ........तो  बन्द ही रहता है ।

क्या  लकड़ी को छेड़नें वाला भौंरा  कमल में छेद नही कर सकता ? 

अजी !  ये प्रेम का बन्धन है ..........................

एक बार देखा था मैने विवाह के मण्डप में  अपनें रघुनन्दन को ........वह तो मेरी ओर ही देखे जा रहे थे ......अपलक ........मै लजा गयी थी .....फिर उसके बाद  मैने  अपनें श्री रघुनन्दन को देखनें को हिम्मत नही की ...........उस विवाह मण्डप में   ।

मेरे पीछे ही   मेरी सखियाँ बैठी हुयी हैं .....................वो कुछ न कुछ बोले जा रही हैं ........मेरा ध्यान उनके बातों की ओर भी जाता है ।

सखी !   देखो  देखो !  कैसे भौंरा कमल की ओर बढ़ रहा है.........पर पता नही है .......कमल की बन्धन में बंध गया  ये भौंरा  तो निकल नही पायेगा .......अपनी जान भले ही गंवा बैठे  ।

ये कहकर  ताली पीट कर हँसती हैं  सारी सखियाँ ...........

देखो !  कन्या दान में   हम लोग बहुत रो लिए  अब ये रोना धोना नही है .......ये गँठ जोड़  तो  आनन्द का प्रसंग है ..........इसलिये  इसमें कोई नही रोयेगा ..........मेरी प्यारी चन्द्रकला ही ये बात बोली थी  ।

पर तुम भौंरा किसे कह रही हो  ?        और कमल कौन है  ?

ये सखी थोड़ी भोली थी .........तो पीछे बैठी बैठी  पुछ रही है  ।

अरे !  भौंरा  यानि इन दूल्हा रघुनन्दन की आँखें ..........और कमल  हमारी सिया जू का मुख ..............अब बताओ  क्या फंसेंगें नही  ये श्री रघुनन्दन के  नयन रूपी  भौरें .....?   

जी अवश्य फंसेगें ............सखियाँ आज पूरे आनन्द के मूड़ में हैं  ।

पर इतना सब होते हुए भी  मेरे श्री रघुनन्दन  मुझे ही  एकटक देखे जा रहें हैं  .........................

पर इधर हमारे राजपुरोहित जी नें गँठ बन्धन की विधि प्रारम्भ कर दी ।

जयजयकार होनें लगे थे  चारों ओर से ................

मण्डप में विराजमान देवता लोग फूल बरसानें लगे थे ............मेरे और  श्रीरघुनंदन की कलाई में  आम के पत्ते का कँगन बाँधा गया था  ।

पण्डित लोग  वेद मन्त्र का उच्चारण लगातार करते ही जा रहे थे .......

मेरी चूनरी और पीला पटुका   श्रीरघुनन्दन का...दोनों को बाँधा गया था ।

चारों और आनन्द ही आनन्द छा गया था ................आहा !

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कहते तो हैं   जहाँ गाँठ होती है  वहाँ रस नही होता ...............जैसे गन्नें की गाँठ में रस नही होता .........सम्बंधों में गाँठ पड़ जाए .......तो रस खतम हो जाता है उस सम्बन्ध से ........पर  विचित्र है ये विवाह की रीत ...गाँठ पड़नें पर ही  रस माधुर्य का सृजन होता है .इसमें ..........

मेरी सखियाँ बतिया रही हैं ......................मै दुल्हन बनी सुन रही हूँ ......मेरे रघुनन्दन  अभी  भी मुझे ही देख रहे हैं ......अपलक  ।

सखी !   ये विवाह मण्डप की गाँठ है ...............और इस  गाँठ में यही नही बंध रहे .......हम सब  भी बंध रहे हैं ..........और जो  इनके साथ न बंधना चाहे .....उससे बड़ा अभागी और कौन होगा  !

ये तो ब्रह्म और आल्हादिनी  का "गँठजोड़" है .........हम जीव अनेकानेक जन्मों से भटक ही तो रहे हैं ............अब छोडो भी सखी !   अपनें आपको  इनके साथ बाँध लो ..............और  क्या चाहिए हमें  ?

अपनें आपको  बहुत उलझाया है हमनें .........सदियों से ...अनन्तकाल से .............अब और मत  उलझाओ  माया में ....मोह में .......राग और द्वेष में ....अहंकार में ........अब बस भी करो ...........

पर  आदत पड़ी हुयी है  उलझानें की ............वो आदत मात्र बातें बनानें से तो जानें से रहीं .......तो एक काम क्यों नही करती हो सखियों !

इसी  ब्रह्म और आल्हादिनी के गँठबन्धन में  अपने को उलझा दो ना !  ........बस   फिर  तुम्हे कुछ करना ही नही पड़ेगा ......।

मेरी ज्ञानी सखियाँ हैं ................बहुत बुद्धिमान हैं ..........वो सब आपस में बतिया रही हैं ..............

अच्छा एक सुनो तो  .............जो इस प्रेम  गँठ बन्धन के रहस्य को नही समझता .........वही  भव सागर में डूबता और उतरता रहता है .....या फिर  ज्ञानी होनें का अहंकार पालकर  खामखाँ  चला जाता है  ।

सखी !  इसी गँठ बन्धन के द्वारा ही तो   ये "अनादि दूल्हा दुल्हिन" हमारे हृदय में समा गए हैं .........अब  निकलनें नही देंगीं हम  ......।

हमें और  कुछ चाहिये भी नही ..........हमनें तो इतना भी नही  चाहा कि  रघुनन्दन हमें देखें .......नही  जी !   हमें ऐसी चाह है ही नही .......हमारी तो बस इतनी ही चाह है  कि   दोनों  दम्पति  प्रसन्न रहें .......खुश रहें .......हम तो इनको खुश देखकर ही   खुश हैं .............।

आहा !     कितनी ऊँचाई है .............प्रेम की ...........मेरी इन सखियों में ........मेरी सखियों के हृदय में ..........ये प्रेम सर्वोच्च है ..........।

एक सखी गाती है .....जब मेरा "गँठजोड़" हो रहा था  तब .........

"जहाँ गाँठ तहाँ रस नही, यही कहत सब कोय
मण्डप तर की गाँठ में, गाँठ पड़े रस होय ।

शेष चरित्र कल ...........

HarisharanL

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