आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 22 )
देखत राम बिआहु अनूपा ....
( रामचरितमानस )
****कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
सबको नचा रहा है कामदेव .......है ना सिया जू ! पर श्रीरघुनन्दन राम जब आज दूल्हा बनें तब श्रीराम नें कामदेव को नचाया ।
क्या अद्भुत बात बोली थी मेरी सखी ।
श्रीरघुनन्दन राम का घोडा स्वयं कामदेव बना था .......ये कहना है मेरी सखियों का ।
मुझे हँसी आती है ........विदेह नगरी में मात्र यहाँ के राजा ही विदेह नही हैं ........सब विदेह हैं ...........सब ज्ञानी हैं .............
पर अब ज्ञानी कोई नही रहा किशोरी जू !
हँसती है मेरी सखी चन्द्रकला ।
दूल्हा रूप श्री रघुनन्दन के रूप सुधा का जिसनें पान कर लिया .....वो भला ज्ञानी रहेगा ? ............वो तो प्रेम की वारुणी पीकर अपनें होश खो बैठा है .........।
सिया जू ! यहाँ सब होश खो बैठे हैं ..........अब बताओ होश खो देनें वाला भी भला कहीं ज्ञानी होता है !
अब तो सब प्रेमी हो गए हैं .............................
चलो ! बरात मण्डप पर आगयी है ...............पद्मा नामकी सखी नें आकर चन्द्रकला को कहा ।
सिया जू ! मै जाती हूँ .................और वहाँ की सारी बातें आकर आपको बताती हूँ .............अब आपको भी तो चलना पड़ेगा .......पर अभी तो बहुत विधि हैं ............समय लगेगा ।
ये कहते हुए चन्द्रकला चली गयी ............।
मै इन्तजार में बैठी थी कब मेरी सखी आएगी ......और मुझे वहाँ के बारे में बताएगी .......क्या हो रहा होगा वहाँ जीजी !
छोटी सी उर्मिला नें आकर मुझे पूछा ..........
पर मै भी उत्तर देनें की स्थिति में नही थी ...........।
******************************************************
बहुत देर में आई चन्द्रकला ...........सारी विधि करवा के आई थी ।
अब मेरे विवाह मण्डप में जानें की बारी थी .............
पर मैने उससे कम समय में ही सब कुछ पूछ लिया था ...........मेरे साथ साथ मेरी बहनें भी कान लगाकर सुन रही थीं ।
सिया जू ! स्वागत के द्वार पर भीड़ लगी थी ..........महाराज विदेहराज ......महारानी सुनयना ........महाराज के भाई .....आपके काका ...काकी .......सब खड़े थे ।
अब उतरिये चक्रवर्ती महाराज हाथी से ..................
ये बात थोड़े विनोद में ..............और विनम्रता से कहा था महाराज जनक जी ने ......महाराज दशरथ जी से ।
अच्छा ! यहाँ से पैदल चलना है .............ये कहते हुये महाराज दशरथ जी हाथी से उतरे थे ..............
फिर , फिर क्या हुआ चन्द्रकला ? मैने पूछा ।
समधी जी का पूजन किया गया .........महाराज विदेह के द्वारा ।
चन्दन रोरी अक्षत फूलों की सुन्दर माला ...............और सुगन्धित द्रव समधी दशरथ जी के ऊपर छींटा गया ।
सुन्दर उच्च आसन था दशरथ जी का ..............उसमें विराजे ।
गारी देनें लगी थीं सब नारियां ............और पता है सिया जू ! हमारी गारी सुनकर चक्रवर्ती महाराज बहुत प्रसन्न हुए ..........और मुँह में पान खाते हुये मसनद अपनी पीठ में लगाते हुये.....बोले .......आपको जो जो कहना है कहिये .........हमें बुरा नही लगेगा ...........
और दशरथ जी गाली सुननें लगे थे ........गुरु वशिष्ठ जी को उच्च आसन में विराजमान कराया ..........अन्य अवध के सब विशिष्ठ जन सम्मानित होकर बैठे .......सब प्रसन्न हैं सिया जू !
तब हम सब सखियाँ पहुंची श्री रघुनन्दन के घोड़े के पास ..........मैने ही आगे बढ़कर कहा ..........अब उतरिये !
क्यों ? क्यों उतरें ? हम मण्डप में इसी घोड़े में बैठकर जायेंगें !
ये बात कही थी .............उर्मिला के होंने वाले नें ............ये कहकर उर्मिला की और देखा था चन्द्रकला नें ............
जीजी ! देखो ना ! मुझे फिर छेड़ रही हैं । ...उर्मिला बच्ची ही तो थी ।
लक्ष्मण जी से मैने कहा ..........वाह ! आप तो दो महिनें पहले ही यहाँ डेरा डालकर बैठे हो ..........और दो महिनें पहले जब आप आये थे .....तब तो आप के पास हाथी थे घोड़े थे .......उसी में बैठकर आप आये थे ना !
नही सखी ! हम तो पैदल आये थे .............आहा ! रघुनन्दन बोले ।
फिर पैदल ही चलिये......क्यों घोडा और पालकी की बात कर रहे हो ।
ओ सखियों ! तुम लोग ज्यादा मत बोलो............माता सुनयना नें हमें प्यार से डाँटा .............
क्यों ? क्यों सुनयना मैया ! सिया जू मैने भी पूछ लिया ।
अगर दूल्हा गुस्सा हो गया तो ? सुनयना माता नें मुझ से कहा ।
मै हँस कर चुप हो गयी थी .........क्यों की अब आरती होनें वाली थी दूल्हा की .................
आरती हुयी .............उस समय जो रूप बना था ...दूल्हा का .....उसे मै तो क्या ! शारदा भी बखान नही कर सकती ।
*****************************************************
अब चलिये ..........चलिये !
.......हम सब सखियों नें दूल्हा रघुनन्दन को बड़े प्रेम से कहा था ।
चलनें लगे .............धीरे धीरे धीरे ...............
पीछे से हम सब हँसी ..................सब सखियाँ हँसनें लगीं ।
लक्ष्मण नें आँखें घुमाकर हमारी तरफ देखा ..................
पागल हो गई हो क्या ?
हाँ छोट दूल्हा ...........तुम्हे जब से देखा है पागल ही हो गयी हैं ।
ये कहकर हम सब फिर हँसनें लगीं थीं .................
पर हम आपसे एक बात पूछती हैं .............आपको आपके माँ बाप नें चलना नही सिखाया ........? सिया जू ! ये सुनकर रघुनन्दन चौंकें .......पर फिर शान्त हो गए ........वो समझ गए थे कि ये भी विवाह का ही एक अंग है .....विधि है ।
देखो ! हमारे माँ बाप तक मत पहुँचों ........
..........पर लक्ष्मण जी को गुस्सा आगया था ।
अच्छा छोटे दूल्हा सरकार ! पर आप फिर क्यों नाराज हो रहे हैं ....अभी तो परसुराम जी भी नही आये .........आप की शक्ति परसुराम जी के आगे ही चलती है .......हम सखियों से आप जीत न सकेंगें ।
हम सब फिर हँस दीं ......ताली बजाकर ।
इशारे में रघुनन्दन ने लक्ष्मण को चुप कराया ................
अब हम चलें ? हम सखियों की ओर देखकर पूछ बैठे रघुनन्दन ।
हाँ .......बिलकुल आप चलिये ............हम सब सखियों नें कहा ।
ऐसे चल रहे हैं ............जैसे कोल्हू का बैल चलता है .....
पीछे से सिया जू ! कोई सखी बोल गयी ........।
बस इतना क्या कहा उस सखी नें.......रघुनन्दन तो शान्त ही रहे .....पर लक्ष्मण जी से रहा नही गया .........फिर कहना क्या कहा सखी ?
ऐसे चल रहे हैं .........जैसे कोल्हू का बैल ।
ये कोल्हू के बैल हैं ? लक्ष्मण जी गुस्से में आगए थे ।
तब मुझे ही माहौल को संभालना था .......तो मै आगे आ गयी ।
अच्छा ....संस्कृत में बैल को क्या कहते हैं छोटे दूल्हा सरकार ? मैने लक्ष्मण जी से ही पूछा ............तो लक्ष्मण नें उत्तर दिया .....वरद ......
मैने कहा .....ठीक उत्तर दिया है आपनें ...........अब "वरद" का अर्थ करो ......वरद का अर्थ होता है ......वर देनें वाला ............वरदान देनें वाला ........अच्छा लक्ष्मण जी ! वरदान देना क्या इनका स्वभाव नही है ....अकारण भी वरदान देते रहते हैं .................ये इनका सहज स्वभाव है ........इसलिये हमनें इनको "वरद" कहा ........।
पर तुमनें इन्हें बैल कहा........लक्ष्मण जी बात को पकड़ कर बैठ गए थे ।
हाँ तो बैल भी कह दिया तो कौन सी आपत्ति आ गयी ..........
वृषभ को हमारे यहाँ धर्म रूप माना जाता है .......है ना लक्ष्मण भैया !
और इन श्रीराम को धर्म का साक्षात् अवतार कहा गया है ...........
फिर हमनें अगर बैल कह भी दिया इनको ....तो क्या हो गया ।
मैने चन्द्रकला से कहा .......वाह ! तू तो बहुत होशियार है .....सही जबाब दिया ।
.आपकी सखी हूँ.....कोई साधारण हूँ किशोरी जू ....चन्द्रकला बोली थी ।
अच्छा आगे बता, आगे क्या हुआ ? मैने पूछा ।
चन्द्रकला आगे सुनानें लगी थी ..............
अब तो लम्बी लम्बी चाल चलनें लगे थे .......ये उपाय भी लक्ष्मण जी नें ही बताया था श्री रघुनन्दन के कान में ............
अब थोडा जल्दी जल्दी चलिये ..........नही तो ये बैल ..सांड ......वृषभ ....ऐसे ऐसे शब्दों का प्रयोग करेंगी ।
बस भोले भण्डारी तो हैं हीं श्री राम ...........मान लिये अपनें छोटे भाई की बात .....लम्बी डग भरनें लगे थे ।
अब कैसे लग रहे हैं ये दूल्हा राम !
............छेड़नें के लिये पीछे से फिर दूसरी सखी नें कहा था .....।
सिया जू ! मैने तुरन्त कहा .....ऐसे लग रहे हैं ........जैसे बकरा बन्धन से मुक्त होते ही भागता है ............।
रुक गए छोटे दूल्हा..........रघुनन्दन नें कहा भी तुम जितना ज्यादा इनके मुँह लगोगे .....ये उतना ही बोलेंगी .....लक्ष्मण ! चुप रहो ।
पर लक्ष्मण कहाँ माननें वाले थे ................क्या कहा ? लाल लाल आँखें दिखा बोले ।
देखो लखन भैया ! यहाँ कोई परसुराम तो है नही ....जो डर जाएगा ........यहाँ तुमसे कोई नही डरनें वाला ।
सिया जू ! मैने कहा ये सब लक्ष्मण भैया से ।
तो क्या तुम्हारे मन में जो आएगा वही कहोगी ? हद्द है !
लक्ष्मण भैया ! हमनें गलत तो कहा नही ...................
हमनें यही तो कहा .........कि रघुनन्दन दूल्हा, तेज़ चाल में ऐसे लग रहे हैं ......जैसे बकरा बन्धन से छूट कर भागे ।
ये बकरा हैं ? लक्ष्मण जी गम्भीर होकर बोले थे ।
मै ही आगे थी.. ......तो मैने ही समझाया बड़े प्रेम से लक्ष्मण भैया को .........ये कहते हुये उर्मिला के पीठ में धीरे से हाथ मारते हुए चन्द्रकला बोली थी .............
अच्छा बताओ लक्ष्मण जी ! बकरे का बेटा कौन होता है ?
ये क्या प्रश्न हुआ ? बकरे का बेटा बकरा ही होता है ..........लक्ष्मण जी नें उत्तर दिया ।
अच्छा ...........बकरे का पोता क्या होता है ?............मैने हँसते हुए फिर पूछा ............
ये क्या प्रश्न है ? नाराज हो गए लक्ष्मण जी ।
उत्तर दीजिये ..........बकरे का पोता कौन होता है ?
बकरा ही होता है ............ये कोई पूछनें की बात है ! लक्ष्मण जी का उत्तर था ।
सिया जू ! मैने पूछा ..............आपके दादा जी का क्या नाम है ?
लक्ष्मण जी बोले ......अज !
अच्छा ....."अज" को संस्कृत में क्या कहते हैं ?
राम जी तुरन्त बोले .................इन सखियों से ज्यादा न उलझो ।
पर हम सखियाँ भी कम कहाँ थीं ..............
"अज" का अर्थ तो बताइये छोटे दूल्हा सरकार ?
बकरा ............यही है ना अज का अर्थ .....आपके दादा जी का नाम "अज"..है ना ! ....अच्छा जब दादा बकरा तो पोता भी बकरा ................
यह सुनते ही सारी सखियाँ खूब हँसनें लगीं थीं .........।
इस बार तो मुझे भी हँसी आगयी थी ..............मै भी हँसी ........
अच्छा ! फिर क्या हुआ ? मैने ही पूछा .........
अब तो सिया जू ! रघुनन्दन दूल्हा को भी गुस्सा सा आगया था ......ये तो बाप दादा सबको गाली दे रही हैं ...............
तो रघुनन्दन खड़े हो गए .......चलना बन्द कर दिया ...........बीच में ही खड़े हो गए ................
मैने इस छबि को भर नयन निहारा .........आहा ! क्या लग रहे थे ।
पर सिया जू ! दूसरी सखी नें मुझे फिर छेड़ा .........
अब बताओ ........ये खड़े कैसे लग रहे हैं ......?
मैने तुरन्त उत्तर दिया ...........ऐसे लग रहे हैं .....जैसे मध्य में नील मणि का कोई खम्भा गाढ दिया हो ............
हद्द है ...............आपको ससुराल यही मिली थी बनानें के लिए ?
छोटे दूल्हा नें बड़े दूल्हा से झुंझलाते हुए कहा ।
अब सुन ले भाई ! .........क्या करेगा ...........ससुराल है ......बोलोगे तो और सुनना पड़ेगा .....इसलिये चुप रहो । बड़े दूल्हा बोले थे ।
मेरी सखी बहुत चतुर है ..........हाँ मेरी सखी चन्द्रकला ...........
वो बोली ......सिया जू ! मुझ से अन्य मिथिला की प्रबुद्ध नारियों नें पूछा .....चैतन्य राम हैं.....राम चैतन्य हैं ........पर खम्भा तो जड़ है ...तुम चैतन्य की उपमा जड़ से दे रही हो ?
तुरन्त लक्ष्मण बोले .........इनकी बुद्धि जड़ है ....इन्हें क्या पता श्री राम कौन हैं ............ये क्या जानें ?
लक्ष्मण जी इतना बोल कर चुप हो गए थे ।
मैने कहा ......मै नही जानती ......मुझे और कुछ जानना भी नही है ........
मै तो इतना जानती हूँ की जड़ और चैतन्य ....सब में यही राम हैं .....
क्या मेरी बात गलत है ? बोलो छोटे दूल्हा सरकार !
क्या चैतन्य में ही राम हैं ? .......जड़ में नही हैं ?
जड़ , चैतन्य सबमें राम ही तो हैं ..............सबमें राम ही तो समाये हैं ।
राम के सिवाय और है ही क्या !
मैने जैसे ही इतना कहा.......लक्ष्मण जी मुस्कुराये मुझे देखकर .....
मै भी मुस्कुराई उन्हें देखकर ..............
फिर बड़े दूल्हा सरकार यानि श्री रघुनन्दन मेरी और ही देख रहे थे ।
मै ज्यादा वहाँ खड़ी नही हो सकती थी.......क्यों की मेरे सामनें श्री राम थे...छैल छबीले दूल्हा श्रीराम !...और मुस्कुरा और रहे थे ....उफ़ ।
मै भाग के आगयी आपके पास ............अब तो मण्डप में चले गए होंगें ........सिया जू ! तैयार हो जाइए .......कभी भी बुलावा आसकता है ।
मेरी सखी चन्द्रकला मुझे सजानें में लग गयी थी ................
मै दुल्हन बन रही थी .....अपनें श्री राम की ...............
शेष चरित्र कल ...........
Harisharan
No comments:
Post a Comment