आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 21 )
कही न जाइ सब भाँती सुहावा ....
( रामचरितमानस )
******कल से आगे का चरित्र -
मै वैदेही !
वाद्यध्वनि नें सूचित कर दिया था कि चक्रवर्ती अवधेश महाराज बरात लेकर जनवासे से निकलनें वाले हैं .............
मेरे पिता जी और माता जी मेरे काका सपत्निक द्वार पर स्वागत के लिए उपस्थित हो गए थे ।
मेरे पास मेरी सखियाँ थीं .....और मेरी बहनें भी थीं ............हम सब सज रही थीं ................तब बाहर की सूचना देनें के लिये चन्द्रकला ही हमारे पास पर्याप्त थी ........ये कहीं से भी सूचना इकठ्ठी करके सुना जाती..........सबमें अपूर्व उत्साह और उमंग था ।
मन्द ध्वनि में शहनाई बजती ही रहती थी उन दिनों .........विवाह का वातावरण जो था ।
पाँवड़े तो बिछाये ही गए थे......जनवासे से लेकर विवाह मण्डप तक ।
सिया जू ! हमारे श्री रघुनाथ जी घोड़े में बैठे हैं ..........
मेरा श्रृंगार हो रहा था ............मैने जैसे ही सुना मेरे प्राण श्री राम घोड़े में बैठकर आरहे हैं ...........मैनें तुरन्त चन्द्रकला की और मुड़कर पूछा ....
कैसे लग रहे हैं मेरे ....................बस आगे बोल नही पाई ।
सिया जू ! ..................................
इस चन्द्रकला की बातें सुनकर मुझे हँसी आई .............बृहस्पति सुनें तो वह भी इसके शिष्य हो जाएँ .........ऐसी है ये सखी ।
और ये चन्द्रकला तो मेरी सखी है ......मेरी........इसलिये इसकी बातें तो दो , अरे ! मेरे विदेह नगर का साधारण से साधारण जन भी अच्छे खासे ज्ञानी से भी ऊंचा ही निकलेगा ।
चन्द्रकला से जब मैने पूछा बता कैसे लग रहे थे मेरे श्री राम ....घोड़े में बैठे हुये ?
तब वह कहती है .....घोडा सफेद रँग का है सिया जू ! उसपर बैठे हैं रघुनन्दन श्री राम .................
अच्छा रघुनन्दन का वह घोडा ऐसा लग रहा है जैसे "कामदेव" ही घोडा बनकर आगया हो......राम नें "कामदेव" को ही अपना घोडा बना लिया ...........सिया जू ! इस बरात की यही तो विशेषता है कि कामदेव दूल्हा पर सवार नही है ...........अपितु दूल्हा कामदेव पर सवार होकर आरहा है ..........।
मुझे हँसी आई ...........विदेह नगरी की सखी है ............हर पक्ष को अध्यात्म से ही देखती है .........अच्छा आगे बोल चन्द्रकले ! मैने कहा ।
सिया जू ! आप थोडा झरोखे में तो आओ .........और अपनें जनकपुर को देखो तो .......बाहर की भीड़ देखो तो .........
मुझे जबरदस्ती झरोखे के पास ले आई थी वो चन्द्रकला ..............
देखो ! वो देख रही हो ना .........वो हैं देवराज इंद्र .......वो जो उनके साथ चल रहे हैं .... चारों ओर देख रहे हैं और आनन्दित हो रहे हैं वो है विधाता ब्रह्मा .........उनके ही साथ झूमते हुए हाथों में एक वाद्य यन्त्र थामें चले जा रहे हैं .............वो है भगवान शंकर ........।
आपका ये विवाह साधारण नही है .............सिया जू ! यह विवाह तो "न भूतो न भविष्यति".......न पहले कभी हुआ था ....न आगे होगा ।
मेरी सखी चन्द्रकला बोले जा रही थी ................
मैने इन आँखों से देखा.............घोड़े में बैठे रघुनंन्दन ऐसे लग रहे थे ......जैसे काम पर सवार त्रिपुरारी ।
काम की उत्पत्ति है मन से ........(मेरी चन्द्रकला किसी बृहस्पति से कम थोड़े ही है) ............अब मन तो चंचल होता ही है ...........इसलिये मैनें तो एक बात समझ ली .........कि मन को शान्त करनें की अपेक्षा.........अपनें मन में रघुनंन्दन की इस छबि को ही बैठा लो........इससे लाभ ये होगा सिया जू ! कि मन अपनें आप शान्त हो जाएगा.......और उसका चंचल होना भी सफल हो जाएगा ........।
अच्छा पण्डितानी जू ! अब ये प्रवचन बन्द करके ......थोडा आँखों देखा हाल बता दो .......जो तुम्हारी ये सिया सुनना चाहती है ......।
मैने हँसते हुए उस चन्द्रकला से कहा ।
तब उसनें जो वर्णन किया वो अद्भुत था ............।
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सिया जू ! बरात चल पड़ी है ............अश्वारूढ़ दूल्हा श्री राम के दर्शन करना मुझे तो लगता है इन नयनों की सफलता इसी में है ........
सिया जू ! मै क्या कहूँ .......जिसनें देखा है वह बोल नही सकते और जो बोल सकते हैं उसनें देखा नही है ...जैसे आँखें और जिह्वा.........मै क्या बोलूँ ।
अच्छा सुनो पहले समधी महाराज की बात .............समधी महाराज यानि आपके होनें जा रहे ससुर जी ............ये कहते हुए चन्द्रकला हँस पड़ी थी ..............
पता है वो हाथी पर बैठे हैं ...........और मूँछों में ताव देकर चले आरहे हैं .......जनकपुर वासी अपनी अपनी अट्टारिकाओं में खड़े होकर फूल बरसा रहे हैं ......जय जयकार कर रहे हैं ..............।
मार्ग फूलों से पटा पड़ा है .....................ऊपर से फूल निरन्तर बरस ही रहे हैं ................चारों ओर सुगन्धित इत्र का छिड़काव किया गया है ......और पचकारिओं से अभी भी छिड़काव हो ही रहा है ।
मैने फिर पूछा .........मेरे रघुनन्दन ?
आहा ! सिया जू ! उनका वर्णन मै कैसे कर सकती हूँ ...........चन्द्रकला नें कहा। ।
मैने जब दर्शन किये रघुनन्दन श्री राम के .......घोड़े में बैठे हुए थे ......
उनके जिस अंग पर मेरी दृष्टि जाती थी ..............मेरी दृष्टि वहाँ से हटती ही नही थी ................आहा ! उनका हर अंग !
दृष्टि और पलकों की मानों लड़ाई ही छिड़ गयी थी ............पर दृष्टि नें अब पलकों पर विजय पा लिया था ......क्यों की पलकें हार गयीं थीं .....और पलकों नें झपकना बन्द कर दिया था ।
अब बताओ सिया जू ! ऐसे छैल छबीले दूल्हा का वर्णन मै भला कैसे कर सकती हूँ ।...........मेरी सखी बोलनें में चतुर है .......मेरी प्यारी सखी ये चन्द्रकला है ।
पर मेरी ज्यादा ही जिद्द के कारण कुछ बोली थी .............चन्द्रकला ।
सिया जू ! शुभ्र धवल घोड़े पर विराजे रघुनन्दन की छवि करोड़ों करोड़ कामदेव के चित्त को भी हरनें वाली हैं.....ओह ! क्या रूप छटा !
शरीर पर पीली पीताम्बरी है .............अंग पर पीला पटुका है ।
जनेऊ है ........गले में मोतियों की माला है .........और सिया जू ! मोतियों की माला ही नही ........हीरे मणि माणिक्य इन सबकी माला धारण किये हुए हैं दूल्हा रघुनन्दन ।
उनके चरणों में जड़ाऊ जूती है ............कमर पर सुनहरा कमरबन्द है और सोनें की पेटी है .........जिसमें सुन्दर सुन्दर मोतियों का झालर सुहा रहा है । ये सब वर्णन करते हुए आँखें बन्द थीं मेरी सखी चन्द्रकला की ।
मै जब और पास में गयी .......तो आहा ! उनके सुन्दर अंगों से चन्दन की सुगन्ध आरही थी .....और वह सुगन्ध भी ऐसी मादक थी .....।
उनकी विशाल भुजाएं जिनमें माणिक्य के बाजूबन्द थे .........कानों में कुण्डल .......सिया जू ! मेरा धीरज तो समाप्त ही हो रहा था .......
उनके मस्तक पर केशर का तिलक था ...........जुल्फों की लट उनके गालों को छु रही थी ......तब जो उनकी शोभा बनती .......आहा !
और सिया जू ! ये जुल्फे थोड़े ही थीं ..........ये तो जाल थे जाल ......इस जाल में जो फंस रहा था ........और एक बार फंस गया ......वो फिर जीवन भर नही निकल पायेगा .....ये पक्का था ।
और सिया जू ! इस छवि में भी अगर दिल फंसनें को राजी नही है तो ऐसे दिल का धड़कना क्या मायनें रखता है ..........।
और अंतिम में सिर में जड़ाऊ मुकुट है ............उसपर कलँगी लगी है ।
मौरी है .......और उसमें झलमल करती हुयी मोतियों की लड़ी है.......
इनके कमल नयन में लगा हुआ वो काजल .............वो तो सीधे हृदय में ही प्रवेश कर जाता है ..................
सिया जू ! घोड़े में बैठे ये दूल्हा रघुनन्दन सबके चित्त को हरण करके स्वयं में लिपटा लेनें में ही इन्हें बड़ा आनन्द आता है ........सिया जू ! ये रसिक शेखर हैं ..........इन्हें अगर अपनें प्राणों में नही बसाया .....तो इन प्राणों को धारण करनें का लाभ ही क्या हुआ ?
आहा ! इनके तिरछी नजर की बाण जिसे लग गयी .......समझो वो तो गया काम से ..................मै ज्यादा नही बोल रही हूँ सिया जू ! देखो ! जनकपुर की यही दशा हो गयी है आज ..............जिधर देखो सब बाबरी हो रही हैं यहाँ की मिथिलानियाँ .............
देखो ! देखो ! आगयी बरात ......................
दुष्ट है मेरी सखी चन्द्रकला .........मुझे अब ले गयी झरोखे से ......
कहती है अभी नही देखना है दूल्हा को .....................
पर कब देखना है .........मेरा तो मन अब मेरे पास ही नही है ........
बाहर शहनाई बज रही है ....................जयजयकार हो रहे हैं .......लोग नाच रहे हैं ....गा रहे हैं ................
शेष चरित्र कल ...............
Harisharan
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