*"पगली"*


          उसके मुख से तेज टपकता था। ऐसा मालूम होता था कि ज्ञान और वैराग्य का स्रोत बह रहा है। मगर उसके गुणों को पहचानने वाला उस गाँव में कोई न था। लोग उसे 'पगली' कहा करते थे। उसके कार्यों से भी यही निश्चित किया जा सकता था कि वह पगली है। उसकी परवा किसी को भी न थी और न वह खुद किसी की परवा करती थी। हाँ! परवा करती थी उनकी, जो उसके हृदय में बसे हुए थे। उन्हीं के लिये उसने लोक-लाज, मान-मर्यादा-सबका त्याग कर दिया था।
          बचपन में ही उसके माता-पिता परलोक सिधार गये थे। वे कुलीन थे। जब 'पगली 'के घर में कोई न रहा, तब उसके पड़ोस के एक ब्राह्मण ने दया करके अपने पास रखा। उन ब्राह्मण-देवता का नाम था पं० लक्ष्मीनारायण। बहुत ही सज्जन थे वे। प्रात:काल उठकर दो-ढाई घण्टे तक ईश्वराराधन किया करते थे। 'पगली' भी उनका साथ देती। जब तक 'पगली' ना-समझ थी, वह पण्डितजी के पास ही बैठकर भगवान् की मूर्ति की ओर एकटक निहारती और कुछ गुनगुनाकर कहती। पूजा के लिये वह फूल तोड़ लाती और अनन्य प्रेम से भगवान् का श्रृंगार करती! उसके इस सरल, भक्तिपूर्ण भाव से पं० लक्ष्मीनारायणका हृदय भी भर आता।
          पं० लक्ष्मीनारायण ने उसकी लगन देखकर उसे उपदेश देना शुरू कर दिया। बड़े प्रेम से वे उसे भागवत, रामायण आदि ग्रन्थ विस्तारपूर्वक सुनाते और समझाते। ज्ञान और वैराग्य का भी विवरण पूर्णतया कर दिया था। थोड़े ही दिनों में 'पगली 'का भगवान् के प्रति विश्वास तथा प्रेम और इस मिथ्या जगत् के प्रति अविश्वास और घृणा से हृदय भर उठा। उसका ज्ञान कार्यरूप में परिणत हो गया और क्रमश: उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता गया। यहाँ तक कि पं० लक्ष्मीनारायण स्वयं उससे अपनी त्रुटियाँ जानने लगे। पगली को देखकर पण्डितजी का हृदय गद्गद हो जाता। मगर यह सुख उनको अधिक समय के लिये न मिल सका। उनका कार्य समाप्त हो चुका था। उनका कार्य इतना ही था कि वे भगवद्दत्त पात्र में भगवद्दत्त रस भर दें और उसे भगवदर्पण करके भगवद्धाम में चले जायें ऐसा ही हुआ।
          पगली अकेली पड़ गयी। पगली का इस संसार में अब कोई न रह गया। उसे अब अकेला रहना होगा पगली को पण्डितजी के देहान्त का सांसारिक दु:ख न था। दुःख था केवल इस बात का कि वह उनकी सेवा न कर सकी थी।
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          इस समय उसकी उम्र बीस वर्ष के लगभग थी। उसे संसार का पूर्णतया ज्ञान था। वह सुन्दरी थी! रूप मनुष्य को न जाने किस वक्त अन्धा बना दे। वह अच्छी तरह जानती थी कि उसका रूप और उसकी आयु उसके सबसे बड़े शत्रु हैं। इनका उसने अच्छा प्रतिकार कर रखा था। उसने अपने केशों को जटाओं के रूप में परिणत कर लिया और उन जटाओं को अपने मुख पर बिखेरे रहा करती थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें जटाओं में छिप जाती थीं। अपने शरीर पर वह सदा धूल लपेटे रहती थी। गाँव में जब वह निकलती, एक विचित्र शब्द करती हुई चलती। लोग उसे पगली कहने लगे थे। कोई भी उसे पहचान न सका।
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          वह पगली जरूर थी; मगर लोग यह भी जानते थे कि गाँव में जहाँ कहीं भी हरि-चर्चा होगी, वहाँ पगली सबसे पहले पहुँचेगी। लोग जानते थे कि पगली स्वभावत: भगवान् के गुणानुवाद सुनने आ जाती है। वह कभी बोलती जरूर नहीं, पर बात सबकी समझती थी। वह पूर्णतया विक्षिप्त नहीं थी। उसके कुछ कार्य ऐसे थे, जो बड़ों-बड़ों को विस्मय में डाल देते थे।
          एक बार गाँव में एक बहुत ही विद्वान् पण्डित का आगमन हुआ। ग्रामवासियों ने पण्डितजी के सामने भागवत सुनाने का प्रस्ताव रखा। पण्डितजी सहमत भी हो गये। पण्डितजी एक-ही-दो रोज रुक सकते थे। उतने समय में पूरी कथा नहीं सुनायी जा सकती थी। इसलिये उन्होंने दशमस्कन्ध से श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करना ही उपयुक्त समझा। भगवान् की लीलाएँ सुनकर किसे आनन्द नहीं होता। फिर ऐसे प्रसंगों को पण्डितजी के रसीले और कोमल कन्ठ से निकली हुई व्याख्या के साथ कौन नहीं सुनता।
          गाँवमें पाठ होने लगा। गाँव भर के लोग जमा हुए।  पगली सबसे पहले बैठी थी। उसका स्थान पण्डितजी के आसन से बिलकुल मिला ही हुआ था। एक तरफ महिलाओं का समाज और दूसरों ओर पुरूषों का! समाँ बँधा हुआ था। "रूक्मणी-हरण' लीला चल रही थी। सबके श्रवण भागवतामृत का पान कर रहे थे। पण्डितजी ने बड़े ही सुरीले कण्ठ में कहा-

यस्याङ्घ्रिपङ्गजरजःस्नपनं           महान्तो
                          वाञ्छन्त्युमापतिरिवात्मतमोऽपहल्यै।
यहांम्बुजाक्ष      न     लभेय     भवत्प्रसादं
                    जर्ह्मम्बुसून् व्रतकृशाञ्छतजन्मभिः स्यात्॥

          सब लोग निस्तब्ध थे अभी तक पगली के केवल आँसू ही निकल रहे थे, मगर इस श्लोक को सुनते ही वह फूट पड़ी। वह आवेश को न रोक सकी। उसे सुध-बुध न रह गयी। उसे मूर्च्छा आ गयी। कुछ भक्तजनों के मुँह से निकल ही तो पड़ा, 'धन्य है! कितना गाढ़ प्रेम है!'
          कथा को आरम्भ हुए देर हो चुकी थी। अध्याय भी समाप्त ही था! पगली ही कथा की समाप्ति का कारण बनी। लोगों ने उसे घेर लिया। कोई हवा करने लगा और कोई ठण्डे जल के छींटे देने लगा! सब लौकिक उपचार में लीन थे। मगर किसी को यह न मालूम था कि इस समय पगली स्वयं ही रुक्मिणी के स्थान में थी और भगवान् का आवाहन कर रही थी। वह दूसरे ही संसार में थी। वह देख रही थी कि भगवान् उसकी पुकार सुनकर दौड़े आ रहे हैं! उन्होंने आकर उसकी ओर प्रेमभरी मुसकान से देखा! पगली कृतकृत्य हो गयी! उसने अपनी आँखें प्रेम से विह्वल होकर मूँद लीं।
          जब उसने आँखें खोलीं तो देखा गाँव वाले उसे घेरे खड़े हैं। उसने तुरंत अपना शरीर सँभाला और पगली का अभिनय करती हुई वहाँ से चली गयी।
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          पगली में केवल भक्ति ही नहीं थी! उसे तो सब जीवों में भगवान् की ही झलक दिखलायी पड़ती थी। वह जब कभी एकान्त में होती, गुनगुनाने लगती-

           यो मां पश्यति  सर्वत्र सर्वं  च मयि पश्यति।
           तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

          किसी भी जीव को यदि वह दुखी देख लेती तो स्वयं बहुत दुखी होती और उसके दुःख-निवारण के लिये ईश्वर से प्रार्थना करती और स्वयं भरसक प्रयत्न करती।
          एक बार उसके गाँव का एक गरीब बालक बीमार पड़ा। उसकी आयु चौदह-पन्द्रह वर्ष की थी! उसके कोई भी नहीं था। गाँव में धनी लोगों के यहाँ कुछ काम कर देता था और उसके बदले में जो कुछ मिल जाता, उसी से उदर-पूर्ति कर लेता था। इस समय वह असहाय था। वह चारपाई से उठ भी नहीं सकता था ! पगली को किसी प्रकार इसकी खबर लगी। वह निरन्तर उसी बालक के यहाँ रहने लगी। यह उसकी कोई नयी आदत न थी। कई बार ऐसा हो चुका था।
          तीन दिन से उस बालक की हालत बहुत ही खराब थी। पगली रात में भी वहीं रहने लगी! उस रात को उसके बचने की आशा न थी! पगली तीन रोज से बिलकुल न सो सकी थी। दो बजे के लगभग उसे जोर की झपकी आयी। बालक जग रहा था। वह पगली को समझना चाहता था। उसका हृदय तो वह अच्छी तरह समझ चुका था, मगर उसका वेष और हाव-भाव नहीं समझ पाया था। वह बड़ी दुविधा में था। उसका हृदय कहता था यह पगली नहीं, देवी है! मगर लोग और उसके हाव-भाव यही कहते थे कि वह पगली है! वह इसी विचार में लीन हो गया था। उसे यह नहीं मालूम था कि उसकी क्या हालत है।
          पगली स्वप्न देख रही थी। वह भगवान् के पास पहुँच गयी है। भगवान् सामने खड़े मुसकरा रहे हैं। उनका अभय हस्त उसके सिर पर है! उसने भगवान् से प्रार्थना की-'देव! इस बालक को स्वस्थ कर दो।' भगवान् ने 'एवमस्तु' कहा और अन्तर्धान हो गये।
          वास्तव में तो वह स्वप्न देख रही थी, मगर वह वाक्य उसके मुख से निद्रावस्था में निकल पड़ा! बालक का ध्यान टूट गया। उसको आश्चर्य हुआ। पगली कुछ कह रही है! इसके पहले गाँव के किसी भी पुरुष या स्त्री ने पगली के मुख से कोई भी सार्थक शब्द न सुना था।
          बालक ने देखा, पगली सो रही है जब वह जगा, तब उसने पगली से कहा, 'माँ! मेरी आखिरी बात मान लो! अब मैं धोड़ी ही देर का मेहमान हूँ। अब तुम अपने को मुझसे न छिपाओ! मैंने सुना है कि तुम स्वप्न में किसी से कह रही थी-'देव! इस बालक को स्वस्थ कर दो।' अब छिपाने से कोई लाभ नहीं। माँ! जल्दी कहो न।'
          पगली अपने को न रोक सकी। उसके आँसू बह रहे थे। उसने बालक को अपना ही पुत्र समझा और उससे स्वप्न का हाल तथा अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया। पगली का हाल सुनकर-उसके त्याग, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का हाल सुनकर बालक को रोमांच हो आया। उसकी पगली के प्रति श्रद्धा जाग उठी और भगवान् में भी अनन्य प्रेम तथा विश्वास हो गया। उसने पगली को अपनी माता मानकर प्रणाम किया।
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          बालक अब स्वस्थ हो गया था। पगली ने उसे मना कर दिया था कि वह किसी को भी यह सब वृत्तान्त न सुनाये। बालक भी अब पगली के साथ ही रहने लगा और शिक्षा पाने लगा।
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          पगली का प्रात:काल का नियम था कि वह सबसे पहले जाकर नदी में स्नानकर लौट आती थी। यह क्रम उसका प्रतिमास का था। जाड़े के दिन थे । सर्दी भी अधिक पड़ रही थी। मगर पगली को शीत का कुछ भी डर न था। वह नित्य-प्रति सदा की भाँति स्नान करने जाती थी। एक दिन उसे सर्दी लग गयी। घर लौटते-लौटते उसे बहुत तीव्र ज्वर हो आया । उसके सारे शरीर में पीड़ा होने लगी और बढ़ती ही गयी। उसकी हालत दिन-प्रति-दिन खराब होती गयी। बालक उसकी शुश्रूषा करता था। मगर वह निराश हो उठता था। वह इस चिन्ता में था कि पगली के बाद उसे धर्मपथ कौन सिखायेगा। वह तरह-तरह की चिन्ताओं से व्याकुल हो उठता था। मगर इसपर उसका कोई वश न था। पगली के दिन प्रायः समीप थे। अब वह मृत्यु-शय्या पर पड़ी थी। उसे उन्माद हो गया था। उस उन्माद में कभी वह गीता का पाठ करने लगती और कभी भगवत् कीर्तन करते-करते उठ खड़ी होती। बालक यह अवस्था देखकर घबरा गया लाचार था। वैद्यों ने एक 'पगली' का उपचार करने से इनकार कर दिया था।
          थोड़ी देर के लिये 'पगली' शान्त हुई और उसने बालक को बुलाकर कहा, 'बेटा ! बुरा न मानना, मेरा समय अब आ गया है। मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ। संसार में विषयों के संग के कारण ही मनुष्य को फिर जन्म लेना पड़ता है। मैंने सबसे छुटकारा पा लिया। तुम्हें मालूम है मैं आजन्म कुमारी ही रही। मैंने तुम्हें पुत्र-सा मानकर रखा है; मगर मैं यह नहीं चाहती कि इस स्नेह के कारण मुझे फिर जन्म लेना पड़े। यह स्नेह मेरी आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। मैं मोह में नहीं फँसी हूँ। फिर भी तुम्हारा कल्याण ही मेरा मनोरथ है। तुम भी इस संसार से अलग ही रहना। अपने गुरु के स्थान पर कमल को रखो। देखो, वह जल में ही उत्पन्न होता है। जल से ही उसकी शोभा है, बेटा ! मगर क्या कभी जल कमल के ऊपर असर कर सकता है। एक बिन्दु भी कमल पर नहीं ठहर सकता। बेटा ! हम लोगों का जीवन इन्हीं विषयों से घिरे हुए वातावरण में हुआ है। इन्हीं के सहारे हम जीते हैं। मगर देखो, ये हम पर असर न कर पायें।'
          'पगली' कहते-कहते सहसा रुक गयी। उसकी दृष्टि छत की ओर एकटक लगी हुई थी। वहाँ वह देख रही थी-भगवान् खड़े हैं, पीताम्बर धारण किये हैं। एक हाथ में मुरली लिये हैं। अधरों पर मीठी मुस्कान थी। उन्होंने कुछ इशारा किया। पगली के ओठ खुल गये। एक हलकी-सी मुस्कान फूट पड़ी। उसके मुख से यह मन्त्र निकला- 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।'
          पगली की आत्मा उसके प्रियतम में मिल गयी थी। वह अब आवागमन के चक्र से मुक्त थी। एक स्त्री होकर उसने वह किया, जो बड़े-बड़े वीर, साहसी, मनस्वी मुनिगण बड़े परिश्रम के बाद भी करने में असफल ही रहते हैं। भगवान् के भक्तों की लीला न्यारी ही है।
'बोलो भक्त और उनके भगवान् की जय!'

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