"वैदेही की आत्मकथा" और गौरांगी का स्वप्न

आज  के  विचार

("वैदेही की आत्मकथा" और गौरांगी का स्वप्न )

शुक सारिका जानकी ल्याये
कनक पिंजरहिं राखी पठाये ।
( रामचरितमानस )

मत बोल तू सीते सीते !   राम बोल ......"श्रीराम" बोल  शुक !

कितना समझा रही हैं  आज वैदेही .......पर  ये शुक है कि मान ही नही रहा ..............देख ! शुक !    मै प्रसन्न होती हूँ   जब कोई मेरे प्राणधन का नाम लेता है .........पर  तू मेरा नाम ही क्यों बोले जा रहा है .....

पर ये तोता है कि मान ही नही रहा .............

चुप ! चुप !     ये महर्षि वाल्मीकि का आश्रम है ......कोई जनकपुर नही ।

जो तू "सीता सीता" कह रहा है .......मत कह ......मत कह  ।

ये शुक भी विचित्र है ...........बचपन से ही पालित है  श्रीकिशोरी जू की गोद में  ये .............कोई साधारण तोता तो है नही  ।

आगया है  जनकपुर से यहाँ ..............कैसे आया  !     

अरे !   अपनें  प्रेम का स्थान   ये सब समझते हैं ..........फिर ये तो  साक्षात् शुकदेव ही हैं .........आगया  उड़ते हुए  महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में .......अपनी   आराध्या के पास ..........हाँ  इनकी आराध्या  सीता जी ही तो हैं ...........।

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हरि जी !  कितनी देर से ट्राई कर रही हूँ ......पर आपका फोन लग ही नही रहा .........वाह !  गौरांगी का फोन आया था मेरे पास .....जब मै कल  ट्रेन में था  ।

गौरांगी !  मै ट्रेन में हूँ ..........यहाँ  नेटवर्क अच्छे से नही आरहा ।

आप  आरहे हैं श्रीधाम वृन्दावन हरि जी !    

गौरांगी की ख़ुशी  उसकी खनकती आवाज से ही लग रही थी ।

हरि जी !  बात ये है  कि ..........मै  नौ दिन के अनुष्ठान में थी .......

अपनी प्राण प्रिया  श्री जी की आराधना में ...............आज नवमी के दिन मेरा अनुष्ठान पूरा हुआ ।...........( फोन फिर कट गया  )

इस बार मैनें ही उसे लगाया फोन ........हाँ बताओ गौरांगी ! क्या हुआ ?

हरि जी !   आज ही मैने  आपके  "आज के विचार" पढ़े ........सारे नौ दिन तक के विचार आज ही पढ़ डाले  ।

पर "वैदेही की आत्मकथा"   4 भाग   तक  जो आपनें  लिखी  है ........

उफ़ ! .............कितना कष्ट सहा ना  !   मेरी श्री सिया जू नें ! 

मै रो गयी पढ़ते हुये............मेरे आँसू नही रुक रहे थे  ।

मन में आया  मै आपसे कहूँ इतना दुखद वर्णन मत करो .......पर विरह  ही तो प्रेम के  प्राण  है..........ये सोचकर मै चुप हो गयी  ।

थक गयी थी .....शरीर में थकान सी होनें लगी थी ......शायद  सिया जू के बारे में सोच कर   ।

मुझे नींद आगयी .........मै सो गई   ।

वैसे दिवा स्वप्न का कोई महत्व नही होता ऐसा कहते हैं .......पर जिस स्वप्न में किशोरी जी के दर्शन हों .........वह स्वप्न तो  दिव्य है ही .......शायद जाग्रत से भी  ज्यादा  धन्यता है उस स्वप्न में .....क्यों की  अपनी स्वामिनी जू के दर्शन जो हो रहे थे  ।

गौरांगी बोले जा रही थी  ।

मैने ही उसे कहा ........अब बताओ भी .......क्या देखा तुमनें गौरांगी ।

उसकी खनकती आवाज   मेरे कानों में जा रही थी .....उसनें बताना शुरू किया ................जो उसनें सपना देखा था  ।

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गंगा जी बह रही हैं ..........महर्षि वाल्मीकि का  आश्रम है ..........

और  सिया जू  बैठी हैं .....अकेली  !       मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे ।

तभी मैने देखा ............एक  तोता  बहुत सुन्दर तोता   उड़ता हुआ  सिया जू के पास आया ..............सीता जी तो लिख रही थीं .........ताल पत्र में ........अपनी आत्मकथा  ।

आत्मकथा  क्यों लिखेंगी   सीता जी ! .....पर  इस आत्मकथा के बहानें से  वो  अपनें प्राण धन श्री रघुनाथ जी का ही तो  चिन्तन  कर रही थीं  ।

तभी मैने देखा हरि जी !  एक तोता उड़ता हुआ आया ........और  सिया जू के चरणों में गिर गया ..................।

कौन ?      चौंक कर उन्होंने  अपने चरणों की ओर देखा...........

शुक !     तू  !     

और  वो शुक अकेले नही आया था ......उसके साथ  सारिका ( मैना )

भी आई थी .......पर  वो दूर  बैठी रही ...........अपनी सर्वेश्वरी की यह स्थिति देखकर  वो  भी अपनें आँसू बहा  रही थी  ।

पर  तू यहाँ  क्यों आया  ?     जा ना  मिथिला !    क्यों आया है तू यहाँ ।

तोता कुछ नही बोला .....................

वो चाह रहा था  कि  पहले की तरह ही  सिया जू मुझे अपनें हाथों में लें ....और अपनें  निकट ले जाकर  ............प्यार से कुछ बोलें  ।

ये  वही तोता तो था .........जब   श्री किशोरी जी की विदाई हो रही थी विवाह के बाद में ...............जनक जी तक अपनें आपको सम्भाल नही पाये थे .......रोते ही जा रहे थे ......इतने बड़े ज्ञानी   जनक .....पर आज इन्हें क्या हो गया था  .......सुनयना माँ तो मूर्छित ही हो गयी थीं ।

तभी  इसी तोते नें ........चिल्लाना शुरू किया था ......सीते ! सीते ! 

ओह !    विदेह राज  और विचलित हो गए ............उन्होंने कहा ..........ये तोता अगर यहाँ रहा ......तो हमें जीनें नही देगा .........

ये  हर समय ....सीते ! सीते !   का रट लगाएगा ............और   हम कैसे रहेंगें  .................

नही ...........इस तोता और मैना को ......सीता के साथ ही  भेज दो ......अवध ...................।

सुवर्ण का पिंजरा ही   सीता जी की डोली में रख दिया था .........

अपनें हाथों  में  ही  लेकर  चलीं थीं  श्री किशोरी जी  ।

कितनें प्यार से पाला था इसे ...............फिर उस वात्सल्यमयी सीता जी को  ये  तोता कैसे भूल जाता ...........।

अवध में  भी   साथ ही रहता था  ये तोता ..............

विचित्र निष्ठा थी इसकी .....किशोरी जी के प्रति ........

राम भद्र  कुछ अपनें हाथों से खिलाते.......तो ये नही खाता ......ये तो अपनी स्वामिनी सिया जू के हाथों  से  ही  खाता और पीता था  ।

पर घटना घट गयी थी अवध में ..........की वनवास जाना पड़ेगा  अब प्रभु श्री राम को ........तब  तो  श्री किशोरी जी भी  जाएँगी  ।

उस समय जब चलनें लगीं  सीता जी  राम जी के साथ .......

फिर इस तोते नें करुण क्रन्दन किया ......सीते ! सीते ! सीते ! 

दौड़कर  उस  तोते को  अपनें वक्ष से लगा लिया  किशोरी जी नें ।

शुक !    तू जा ..........मिथिला में जा ........वहीँ जाकर रह ........

पर आप मिथिला में नही हो  ......तोता बोलता था  ।

शुक !    मेरे हृदय में मिथिला है .....मेरे हृदय में जनकपुर है ......

तो मै कैसे दूर हो सकती हूँ  जनकपुर से  बता  !

( अपना स्वप्न सुनाते हुए  रो रही थी गौरांगी )

तू जा !      

पर मै आपके साथ जाऊँगा ........जहाँ आप जाओगी  !

नही .................मेरी बात मान ले .....जिद्द मत कर ।

ओह !    जब तोता नही माना ....तब  अपनी सौगन्ध दिला दी उसे ।

रोता हुआ...........कुछ नाराज सा .........उड़ गया था  वो तोता ।

उसनें पीछे मुड़कर भी नही देखा  अपनी स्वामिनी को भी .....ज्यादा ही रूठ गया था .........वो उड़ता रहा ।

सिया जू उसे देखती रहीं ................अपनें आँसू पोंछती रहीं  ।

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तू यहाँ  क्यों आगया अब  ?  

महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ये तोता  आज आगया था ....जनकपुर से ।

सीता जी नें    रोते हुए  उसे  अब अपने हाथों में लिया   ।

शुक !   क्या चाहते हो  !       क्यों मुझे दुःख दे रहे हो ....जाओ ना !

मै आपको दुःख दे रहा हूँ ..............नही ......अगर मेरे यहाँ आनें के कारण  आपको दुःख हो रहा है ....तो मै यहीं गंगा जी में कूद कर अपने इस शरीर को त्याग दूँगा ...............पर अब मुझे जानें के लिए मत कहिये ........मै  आपका शुक हूँ .......सिर्फ आपका शुक हूँ  ।

मुझे  आपके पास रहना है .........आप  इस तरह से हैं  यहाँ !  ओह !

इतनें बड़े महल की राजकुमारी..........आज ऐसे ? 

वो शुक पक्षी फिर  अपनें  आँखों से आँसू बहानें लगा  था  ।

मै आपके साथ ही रहूंगा......चाहे आप किसी भी रूप में ...रहें ...जहाँ भी रहें  मै आपको अब छोड़नें वाला नही हूँ  ।

मुझे अपनें चरणों में रख लीजिये ........अब मत छोड़िये .........

किसी भी रूप में ......आप मुझे मत छोड़िये  ।

मै आपकी लीलाओं का गान करूँगा ............मै आपके  दिव्य पावन चरित्र को  सुनाऊंगा ...........जगत को सुनाऊंगा ............पर आपके चरणों के निकट रह कर ........इतना कहकर  फिर वो शुक  चुप हो गया ......एक क्षण के लिए  जगत जननी के साँस अटक गए .....कहीं  तीव्र विरह के ताप से इसनें प्राण तो नही छोड़ दिए  ।

अपनें कोमल और वात्सल्य से भरे हाथ शुक पक्षी के ऊपर फेरनें लगीं थीं  सीता जी  ........

तोता  अब प्रसन्न था ...............।

आप मुझे नही छोड़ेगीं  अब .........कहिये  !   

नही छोडूंगी  तुम्हे मेरे प्यारे शुक !    किशोरी जी नें कहा ।

दूसरे अवतार में भी  !       शुक कोई साधारण पक्षी तो था नही ......उसे तो सब पता था ............कि किशोरी जी  अब  द्वापर में  श्री राधा का रूप लेकर आनें वाली हैं .......और श्री राम ....श्री कृष्ण के रूप में ।

हाँ ...हाँ ........मै  तुम्हे उस अवतार में भी अपनें साथ रखूंगी ........खुश !

किशोरी जी के इतना कहते ही  .......वो तो  किशोरी जी के हाथों में ही नाचनें लगा था ..........

पर ये लीला क्यों ?     इस तरह विरह ..........और वो भी  अपनें ही प्राण से .........ये क्या लीला है  ?  शुक नें पूछा था ।

मेरे स्वामी ......चाहते हैं .....कि  जगत में  मेरा ही यश हो .........सीता नें कितना त्याग किया .............ये जगत कहे ...........भले ही  स्वयं को  जगत गलत मानें .....उन्हें इस बात की परवाह कहाँ है  ।

मेरे प्राण श्री राम  यही तो सदैव चाहते रहे हैं .............मुझे  बहुत ऊँचा रखकर .....स्वयं भले ही निन्दा के पात्र बनें .....उन्हें इस बात से कोई मतलब नही है ........शुक !  तुम तो जानते हो ना  !

जानता हूँ ....जानता हूँ .....जानता हूँ ................कितना खुश था वो तोता अब ..................यही तोता  तो शुकदेव हैं .........

हाँ ....किशोरी जी द्वारा पालित लालित...........शुकदेव ! 

भागवत की कथा हो .....या उसमें  रामायण गाई गयी हो ......वो सब किशोरी जी नें ही सिखाया था इसे ..................ये शुकदेव ही हैं ।

मेरे मन नें ये कहना शुरू कर दिया था.....तभी  मेरा ये स्वप्न टूट गया ।

गौरांगी नें कहा .........मै उठी ..............मुझे बहुत रोना आरहा था ।

तब हरि जी ! मैने आपको फोन लगाया ...............

मैने भी अपनें आँसू पोंछे ........और कहा  गौरांगी !  सच है ये स्वप्न दिव्य है ........शुकदेव ही हैं .........जो किशोरी जी के प्रिय हैं ....ये वही शुकदेव हैं......जिन्होनें भागवत की कथा गाई ..........।

किशोरी जी ही  इसे सिखाती रहीं.........पढ़ाती रहीं  ।

कब तक आयोगे श्री धाम वृन्दावन हरि जी !

मैने कहा .....गौरांगी ! मेरी ट्रेन  लेट है .........7 घण्टे लेट ।

रात में ही पहुंचूंगा .................।

कुञ्ज में आओगे ना  कल ?   

हाँ ....आऊंगा ना ......कुञ्ज में नही आऊंगा तो कहाँ जाऊँगा गौरांगी ।

मेरे  इतना कहते ही ....फोन कट गया था  ।

मै काफी देर तक इस बारें में सोचता रहा ...........गौरांगी की वो भाव मयी स्थिति विलक्षण थी.....उसी भाव स्थिति नें ही तो ये  कथा प्रकट की है ........।


Harisharan

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