आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 6 )
नतोहम् रामबल्लभां ...
( श्रीतुलसीदास )
******* कल से आगे का प्रसंग
कुमार आये हैं....... .....शत्रुघ्न कुमार ।
बहुत रोये ......मेरे पैरों को भिगो दिया अपनें आँसुओं से ।
मैने कुशा आसन मै उनको बैठनें के लिए कहा ।
पर कुमार बार बार कह रहे थे ........हम रघुवंशी दोषी हैं .......हमसे महत् अपराध हुआ है । ..........लो जल पीयों पहले कुमार !
मैने जल लाकर दिया .......और कुछ कन्द मूल फल भी ।
पर मेरे पैरों में ही दृष्टि लगाये रहे शत्रुघ्न कुमार ।
कुछ तो बोलो कुमार ? मैने फिर पूछा ।
क्या बोलनें लायक हम रघुवंशी अब रह गए हैं ।
गंगा से भी पावनि आप हैं भाभी माँ ! फिर क्यों आपके साथ ऐसा किया हम लोगों नें ...............
भैया राम ! अब वो न किसी के भैया हैं ......न किसी के पिता .....न किसी के पति ........वो मात्र अब एक नीरस सम्राट रह गए हैं ..........कुमार का आक्रोश मुझे देखकर ही जागा था ।
हाँ माँ ! वो मात्र एक सम्राट के जीवन को जी रहे हैं ......उनके लिए अपनी निजी जिन्दगी कोई अर्थ नही रखती .............कुमार आँसू बहाते जा रहे थे और बोलते जा रहे थे ।
आपकी ये दशा ! ओह !
श्रुतकीर्ति कैसी है कुमार ?
मेरे इस प्रश्न पर कुमार शत्रुघ्न की फिर हिलकियाँ छूट गयीं थीं ।
आपको अपना दुःख नही बताना ! आप अपनें दुःख को कितना छुपा सकतीं हैं .........ओह ! सहनशीलता की साक्षात् मूर्ति हैं आप तो ।
अच्छा ! बताओ ना इस तरफ आनें का कारण ?
मेरे इस प्रश्न पर अपनें आँसू पोंछे थे कुमार नें .......फिर कहा .......चक्रवर्ती सम्राट श्री राम का आदेश है कि मथुरा में लवणासुर का मै वध करके आऊँ........उन्हीं के आज्ञा का मूक पालक हूँ मै तो !
कुमार नें मुझ से कहा भाभी माँ ! यहाँ से जा रहा था मथुरा के लिए .....
तभी महर्षि वाल्मीकि का मैनें आश्रम देखा ..............महर्षि के चरणों में वन्दन करनें के लिये ही आया था ..........चरण वन्दन किया तब महर्षि नें मुझ से इतना ही कहा ..................सम्राट श्री राम कैसे हैं ?
मैने कहा ..........सकुशल हैं ।
तब महर्षि के नयन सजल थे ..........उन्होंने इतना ही कहा .........वैदेही को क्यों छोड़ा ?
मै क्या बोलता ...................मै चुप रहा माँ ।
मैने ही फिर पूछा था ..........आगे क्या कहा महर्षि नें ।
उन्होंने इतना ही कहा .........अवध श्रापित हो गया है ।
मै चौंक गया था ......क्या भाभी माँ नें श्राप दे दिया अयोध्या को ?
नही ...श्राप नही दिया .........श्राप देना नही पड़ता कुमार शत्रुघ्न ।
कोई सरल अत्यंत सहज निष्पाप व्यक्ति का हृदय अगर तुम्हारे कारण दुःखी हो जाता है .......तो श्राप देना नही पड़ता ........आस्तित्व ही उसे श्राप दे देता है ...............अवध अब वीरान ही रहेगा .............जब तक वैदेही को न्याय न मिले ।
मै हँसी .............वो मुझे अपनी पुत्री मानते हैं ना कुमार ! इसलिये ये सब बोल रहे होंगें............नही तो प्रभु श्री राम से कुछ गलत हो ही नही सकता ..........वो भला गलती कर सकते हैं !
अरे ! चक्रवर्ती हैं ........अखिल भूमण्डल के अधिपति हैं ..श्री राम ....
मेरे जैसी कितनी दासियाँ होती हैं। सम्राटों की ..........एक दासी को छोड़ दिया तो क्या हुआ !
मेरे इस बात को सुनते ही फिर आँसू बहनें लगे थे ..........आँसुओं के साथ ध्वनि भी निकल रही थीं .........वह ध्वनि पूरे वन प्रदेश को ध्वनित कर रही थी ..............
चारों ओर से हिरण , हिरणियाँ , वृक्षों में मोर ...अन्य पक्षी ...........अरे! यहाँ तक की हिंसक प्राणी सिंह रीछ व्याल ये सब भी आगये थे .....पर ये भी कुमार के क्रन्दन को सुनकर आँसू बहा रहे थे ।
अब जाओ तुम कुमार ! मथुरा यहाँ से दूर है ................जाओ !
मैने इतना कहकर कुमार को भेज दिया था ।
वो लड़खड़ाते हुए उठे ...........मुझे प्रणाम किया ............फिर अपनें रथ की और ......................पर फिर एक बार मुड़कर मेरी ओर देखा था .............
"मेरे प्राण कैसे हैं कुमार" ? ......ये बात मैने चिल्लाकर पूछी थी ।
इस प्रश्न नें अंदर तक झकझोर दिया था कुमार को .......
मै भी ये प्रश्न पहले ही पूछना चाह रही थी ............पर ।
इस दासी को याद तो करते हैं ना मेरे प्राण श्री रघुनाथ जी ?
कुमार के हाथों से रक्त निकलनें लगा था .............क्यों की मेरे इस प्रश्न को सुनकर रथ में रखे तलवार को अपनी हथेलियों से दवा दिया था कुमार नें .............हाथों से रक्त और आँखों से आँसू ।
आप सच में सहनशीलता की साक्षात् मूर्ति हैं भाभी माँ !
आपको कोई शिकायत नही है .......किसी से कोई शिकायत नही है ! ओह ! ।
आप जैसी सहन शीलता इस विश्व व्रह्माण्ड में किसी के पास नही होगी ..........कुमार और भी बहुत कुछ बोलना चाहते थे .......पर मैने ही उन्हें भेज दिया ।
लौटकर अपनी कुटिया में आगयी .........................
क्यों न हो कुमार मुझ में सहनशीलता ! मै भूमिजा जो हूँ ।
मेरी माँ भूमि है .............मै भूमि की पुत्री हूँ ।
कितना करते हैं हम लोग भूमि के ऊपर ..........उसको खोदते हैं ........उसपर मल विसर्जन करते हैं .......पर क्या कभी शिकायत की ...मेरी माँ नें ............फिर पुत्री में वही गुण तो आयेगे ही ना .......
मैने मन ही मन कहा ....................।
फिर बैठ गयी .............ताल पत्र और लेखनी लेकर ............सिंदूर और अनार के लकड़ी की लेखनी और स्याही बनाई थी .....
उसी से फिर लिखनें लग गयी अपनी आत्मकथा ।
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जनकपुर में राजाओं का आना शुरू हो गया था ...........पिनाक जो तोड़ेगा उसे सीता मिलेगी ..........बस इसी आस से युवा राजा ही नही प्रौढ़ राजा भी आरहे थे .......सब लोग आते ही धनुष को देखना चाहते थे । धनुष पिनाक .........हाँ ठीक कहा था देवर्षि नारद जी नें ये धनुष चिन्मय है ।
कितना भारी हो जाता था ! ......राजा ताल ठोक कर पिनाक के पास जाते थे .............पर उठानें की बात तो दूर गयी वो धनुष को हिला भी नही पाते ।
इस तरह नित नए नए राजा आते गए ...................एक दिन !
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रावण और वाणासुर दोनों आगये थे ..................इनके आनें की सूचना मेरे पिता जी को दो दिन पहले ही मिल गयी .....तभी से मेरे पिता चिंतित दीख रहे थे ।
मैने सुनयना माँ से ये कहते सुना कि - महारानी ! बाणासुर तो मुझे अपना बड़ा भाई मानता है ................मुझे गुरुभाई मानता है ...........इसलिये वो पिनाक उठानें की सोच भी नही सकता .........वो अवश्य मेरे कार्य में सहयोग करनें आरहा है ........पर ये दशानन ! ये महादुष्ट है ...........चिन्ता मुझे यही है कि कहीं रावण पिनाक को तोड़नें के लिए आगे बढ़ा .......और उससे पिनाक टूट गया तो ? मेरी पुत्री राक्षस के यहाँ जायेगी !...........नही ।
तब मेरी माँ सुनयना नें मेरे पिता को समझाया था .............अब ये बात पक्की हो गयी है कि पिनाक धनुष चिन्मय है ..........वह जड़ नही है ।
इसलिये रावण के हाथों ये स्वयं नही टूटेगा ...........आप लेना स्वामी ! मेरी माँ ने समझाया था ।
पर ये क्या रावण और बाणासुर तो दूसरे दिन ही आ धमके थे ।
मेरे पिता के चरण छूए बाणासुर नें ........बड़े गुरुभाई कहकर ................जय शंकर की ! अहंकार में भरा रावण यही बोला था मेरे पिता से ।
मेरे पिता ने भी जय शंकर! कहकर सम्मान किया था ........अतिथि का सम्मान होना ही चाहिए ........ ..मेरे पिता का ये स्वभाव ही है ।
कोई सेवा बताओ गुरुभाई ! बड़े प्रेम से कहा .......बाणासुर नें मेरे पिता जी से कहा ................पर रावण बोल उठा .........पिनाक कहाँ है ?
मेरे पिता चिंतित हो उठे .............बताओ जनक ! कहाँ है पिनाक ! मै भी देखना चाहता हूँ उस धनुष को .............रावण बोल रहा था ।
ले गए थे पिता जी रावण को उस पूजा स्थल में जहाँ पिनाक रखा था ।
पर ये कुछ दी देर बाद मुझे बुलानें के लिए सेविकाएं आयीं ...........आप चलिए राजकुमारी जी !
मेरी माँ सुनयना नें रोना शुरू कर दिया था .......उन्हें लगा रावण नें धनुष को तोड़ दिया ..........इसलिये अब प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे वर माला रावण को ही पहनानी होगी ।
आप जल्दी चलिए महाराज नें शीघ्र बुलाया है आपको ........दासी नें फिर कहा ।
मेरी सखियाँ भी उदास हो गयीं थीं ............वो मुझे ले जानें के पक्ष में ही नही थीं ...........पर उस समय मुझे देवर्षि की बात का स्मरण हो आया कि पिनाक चिन्मय है ।
मै गयी अपनी अष्ट सखियों के साथ ..................ओह ! ये क्या ! धनुष में तो रावण की ऊँगली फंस गयी थी ..........पिनाक को उठानें के चक्कर में उठा तो नही पाया पर कुछ ही उठा था धनुष ..... फिर गिर गया था .............तब रावण की ऊँगली फंस गयी थी ।
वो चिल्ला रहा था .................उसको असहनीय पीड़ा हो रही थी ................
जैसे ही मै गयी ...............मै समझ गयी ..........मेरी सखियाँ तो मारे ख़ुशी के उछलना चाहती थी ..........पर मैने ही उन्हें रोक दिया ।
पुत्री सीता ! इस धनुष को उठा दो ......दशानन को बड़ा कष्ट हो रहा है ..............मैने पहली बार रावण को देखा ...........काला था ........काजल की तरह काला .......पर शरीर उसका बलिष्ठ लग रहा था ......बड़ी बड़ी मूंछे थीं उसकी .......आँखें ऐसी थीं जैसे अंगार उगल रही हों .....लाल ।
मै गयी .............रावण के पास ...............उसनें मुझे देखा था ...............मैने एक ही हाथ से उठा दिया पिनाक...................रावण नें अपनी ऊँगली निकाल ली ......
काफी सहलाता रहा पहले तो अपनी ऊँगली .........फिर मेरी ओर देखा था ................देख कर चौंक गया ।
भगवती ! हे माँ ! हे जगदम्ब ! पता नही क्या क्या बड़बड़ानें लगा था ................मेरे पिता और मेरी सखियों नें सोचा ऊँगली की पीड़ा के कारण रावण ज्यादा बोल रहा है ..........वो बोलता रहा ..............
मेरे पिता जनक जी नें मेरी सखियों को इशारा किया ..........ले जाओ पुत्री सीता को ...।
मै जब चली .........तब रावण पीछे से चिल्लाया .............मेरा उद्धार नही करोगी भगवती ! तुम्हे मेरा उद्धार करना ही पड़ेगा ...........आपको मेरी लंका में अपनें चरण रखनें ही पड़ेंगें ............इस रावण का उद्धार आपके ही द्वारा होगा ................।
मै कल तक चिंतित था कि दशानन तेरा कल्याण कैसे होगा ? पर आज मुझे मेरे कल्याण का मार्ग मिल गया ...........
तुझे ही इस रावण का कल्याण करना है वैदेही !..............ये कहते हुए अट्टहास किया था रावण नें ........और वहाँ से चला गया ।
शेष प्रसंग कल ..........
Harisharan
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