आज के विचार
( हमारी सारी उपाधियाँ मिथ्या हैं ...)
गोपी भर्तु पद कमलयो दास दासानुदास...
( श्रीचैतन्यमहाप्रभु )
हमारी सारी उपाधियाँ मिथ्या हैं ...........
स्वामी विवेकानन्द जी ...इग्लैंड के उस फ़ार्म हाउस में बैठकर अपनें साधकों को भक्तमाल की कथा सुनाते हुए बोल रहे थे ।
ईश्वर तो निरूपाधिक है ..........उसमें कोई उपाधि कहाँ ?
फिर उस निरूपाधिक ईश्वर को पानें के लिए तो तुम्हे भी उपाधि रहित ही होना पड़ेगा ना ? स्वामी विवेकानन्द जी नें समझाया था ।
उपाधि ? कैसी उपाधि ? भगिनी निवेदिता नें प्रश्न किया ।
हाँ ..............उपाधि ! गम्भीर हो गए थे स्वामी जी ।
देखो ! मै विद्वान हूँ ...............मै डॉक्टर हूँ ............मै मिस्टर जोन्स हूँ ................सामनें बैठे एक विदेशी साधक की ओर देखते हुए स्वामी जी बोले थे ।
क्या तुम्हारा विद्वान होना सत्य है ?
सब लोग चुप थे ................स्वामी जी भी कुछ देर के लिए चुप होगये .....ताकि साधक विचार तो करे ।
बताओ ! क्या तुम्हारा विद्वान होना सत्य है ?
इसका उत्तर स्वयं स्वामी जी नें दिया .......एक लाठी कसकर तुम्हारी खोपड़ी में मार दी जाए .........तो तुम्हारी याददाश्त गयी ।
अब बताओ कहाँ गयी तुम्हारी विद्वत्ता ?
इसी तरह सब तुम्हारी उपाधियाँ मिथ्या हैं .....झूठी हैं ......तुम नें अपनें आपको इन उपाधियों में बांध लिया है ............।
तुम्हारा नाम मिस्टर जोन्स है ?
पर पैदा होते समय तो तुम्हारा कोई नाम नही था ......और अब भी चाहो तो नाम बदल सकते हो ......तो ये तुम्हारा नाम भी मिथ्या हुआ ।
स्वामी जी ! आप ये बताइये कि सत्य की परिभाषा आपकी दृष्टि में क्या है ?
मि. जोन्स नें ही ये प्रश्न किया था ।
स्वामी जी नें उत्तर दिया ......सत्य उसे कहते हैं .....जो "है" ।
जिसकी उपस्थिति सदैव है .........कल भी , आज भी और कल भी ।
अपनें आपको किसी उपाधियों में मत बांधो..........तुम जो हो ...वो हो ।
इतना कहकर स्वामी जी भक्तमाल की कथा सुनानें लगे थे ......
पर उससे पहले गीता का एक श्लोक कहा ..........
न में भक्त प्रणश्यति ............
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं मेरा भक्त कभी गिरता नही है ।
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मै साथ था पागलबाबा के उस दिन ...............
उनको उनके किसी भक्त नें अपनें यहाँ बुलाया था .............कोई सत्संग था ...............पर बाबा भी विचित्र हैं .........चले तो गए ....पर बिलकुल पीछे जाकर बैठ गए ।
मैने कहा .....आगे तो चलिये ........तो कहनें लगे ......... क्या फ़र्क पड़ता है .....पीछे ही बैठकर सत्संग का आनन्द लो ।
लोग क्या कहेंगें ........स्तर आपका गिर जाएगा बाबा !
मुझे भी पता नही क्या सूझी ......मैने ये कह दिया ।
बाबा हँसे ......और बोले ........स्तर उसका गिरता है ..........जो स्तर में जीता है ......मै स्तर में नही जीता ......इसलिये मै कभी गिरता नही हूँ ।
अपना स्तर बनानें वाले.........गिरते और उठते रहते हैं ........।
याद रखना ..........वही लोग दुःखी और सुखी के भँवर में डूबते और उछलते रहते हैं..........क्यों की ये सब मिथ्या है .....झूठ है ।
तुम जो हो .......वो एक समान है ......वो न गिरता है ....न उठता है ।
अपनें आपको जो नही पहचानता ...........वही इन सबमें उलझता है ।
स्तर बनना और बिगड़ना .....ये सब तो मिथ्या है ............मुझे मेरे पागल बाबा नें समझाया था ।
क्या आत्मा का स्तर बनता है या बिगड़ता है ?
बाबा का प्रश्न था ।
मै कुछ नही बोला ................।
बाबा अपनें निजानन्द में ही डूबे रहे मुझे समझाकर .............।
मुझे सत्य का दर्शन कराया था बाबा नें उस दिन ।
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इन उपाधियों में जो उलझता है ......मै बड़ा ये छोटा ........इस तरह .....इसनें मुझे सम्मान नही दिया तो मै छोटा हो जाऊँगा .......या इसनें मुझे आदर दिया तो मै बड़ा हो जाऊँगा ........इसी तरह तो तुम दुःख और सुख में उलझे रहते हो ।
स्वामी विवेकानन्द जी नें एक कथा सुनाई ....भक्तमाल की ।
गोस्वामी नाभा दास और गोस्वामी तुलसी दास ये दोनों ही मित्र थे .....अच्छे मित्र ...............।
पता है ..........दोनों नें ही महान कृति दी थी इस विश्व् को .....एक नें रामचरितमानस दिया .....तो दूसरे नें भक्तमाल ।
एक बार ...................साधुओं का भण्डारा लगाया था गोस्वामी नाभा दास जी नें ................
सब साधू आये थे ...............स्वामी विवेकानन्द जी नें कहा ........उस भण्डारे में गोस्वामी श्री तुलसी दास जी भी आये थे ............पूरा भक्ति जगत परिचित था गोस्वामी तुलसी दास जी से ।
पर वो इतनें सहज की भण्डारे में जाकर कोनें में ही बैठ गए ।
भण्डारे में जो परोसाइ कर रहा था .....वो खीर देनें लगा ।
गोस्वामी तुलसी दास जी को बोला .......किसमें लोगे बाबा खीर ?
तो गोस्वामी तुलसी दास जी नें सामनें देखा ......एक महात्मा की जूती पड़ी थी..........क्या फ़र्क पड़ता है .......सन्तों के चरणों में तो सब कुछ है .........ऐसी भावना जाग्रत हुयी ........तुरन्त खीर देनें वाले के सामनें सन्त की जूती आगे कर दी ।
खीर देनें वाला चौंक गया ........उसनें खीर नही दी ..........वो दौड़ा गोस्वामी नाभा दास के पास ......।
महाराज ! कोई साधू आया है .........जो महात्मा की जूती में ही खीर माँग रहा है ..........और कह रहा है .....जूती तो महात्मा के चरण से स्पर्शित है ना ..........तो इससे पवित्र और क्या हो सकता है ?
गोस्वामी नाभा दास दौड़े ...........खीर वाले से कहा ........इतनें अहंकार को गला देनें वाला .......मेरा मित्र गोस्वामी तुलसी दास ही हो सकता है ।
गोस्वामी नाभा दास दौड़ते जा रहे थे .........और कहते जा रहे थे .........मेरा मित्र तुलसी दास ही है वो .................हाँ .......क्यों की हीनता जिसके अंदर होती है .......वो विनम्र नही हो सकता ........इतनी विनम्रता के लिये ......अपनें स्वरूप का ज्ञान चाहिये ही ।
शान्त बैठे थे गोस्वामी तुलसी दास जी ............नाभा दास जी गए ....और दौड़कर उनको अपनें हृदय से लगा लिया ।
दोनों ही मित्र गले लगे थे ....और दोनों के ही नेत्रों से अश्रु प्रवाहित हो रहे थे .................।
क्या तुम उपाधियों में फंसे हो ? ...........
तो याद रखो ......तुम सुख दुःख से कभी मुक्त नही हो सकते .......
तुम उस आनन्द का अनुभव कभी नही कर सकते ।
यही सच है ................
Harisharan
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